Monday 29 April 2019

भक्ति मार्ग सुखदायी दया धर्म का महत्व/कर्मों की गती

 भक्ति मार्ग सुखदायी  
कर्मों की गती
दया धर्म का महत्व

यह सृष्टि भक्ति मार्ग पर ही टिकी हुयी है। क्योंकि जो भी मनुष्य इस परम मार्ग को अपनाता है , उसके मन मे कभी भी किसी के प्रति बुरा भाव नही आता है। वह हमेशा परोपकारी जीवन ही व्यतीत करता है तथा कभी भी किसी दूसरे जीव को कष्ट नही देता है। उसके अन्दर सद्विचारों का समावेश होता है और वह पूरी सृष्टि तथा सभी जीवों की उपयोगिता को समझता है। वह अपने जीवन को व्यर्थ ही नही बल्कि सार्थकमय बना देता हैऔर उस परब्रह्म परमात्मा का स्मरण करते हुए परलोक को सुधार लेता है।

जो व्यक्ति सिर्फ सांसारिक सुखो को ही असली सुख समझता है वह कभी जीवन की उपयोगिता नही समझ सकता। क्योंकि उसके मन मे यह बात घर कर जाती हैं कि पूजा-पाठ या भगवत भक्ति मिथ्या है। लेकिन जब वह इस शरीर को त्याग कर परम धाम को चला जाता है तो उसे एहसास होता है कि उसने अपने जीवन को व्यर्थ ही गवांया है।

कहा जाता है कि पापों का नाश न तो ब्रह्म कर सकता है और न ही परब्रह्म तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश कर सकते है। मनुष्य जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल भोगेगा।

परमात्मा ने सभी प्राणियों के लिए यह सुन्दर प्रकृति का निर्माण किया है। जिसका नाम धरती कहा जाता है। और यह धरती पांच तत्व पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश से मिलकर बनी है। और हमारा  शरीर भी इन्ही पांच तत्वों से बना है।यानी जितनी उपयोगिता इस धरती की है तनी ही सभी जीवों की भी है।

अगर परम धाम को प्राप्त करना है तो ईश्वर की भक्ति ही एक मात्र साधन है। यदी आपको धन ,दौलत ,पद , प्रतिष्ठा भी प्राप्त करनी है तो वह भी भक्ती के ही मार्ग से प्राप्त हो सकती है।

भक्ती मार्ग को अपनाने के लिए मनुष्य को इस संसार से मोह त्यागना पडता है। यानी अपने जीवन मे कोई भी बन्धन ऐसा नही पालना कि जिसके बिना तुम भक्ति मार्ग से बिमुख हो जाओ। और भक्ती का अर्थ किसी देवी पूजा या अनुष्ठान नही है बल्की अपनी जीवन की सार्थकता सिद्ध करना कि उसे जन्म किस प्रयोजन से प्राप्त हुआ है।

              आश्रमों का महत्व 
मनुष्य के लिए चार आश्रम निर्धारित किये गये है
ब्रह्मचर्य , 
      गृहस्थ ,
          वानप्रस्थ, 
             सन्यास, 
यानी मनुष्य वही है जो नीतीश के अनुसार इन चारों धर्मो का अनुसरण करके ही जीवन व्यतीत करता है। हमे जीवन केवल गृहस्थ जीवन के लिए ही नही मिला है।  जो व्यक्ति सभी धर्मो का समान रूप से पालन करते हुए अन्त गती को पहुंचता है वही परम धाम को प्राप्त करता है। और इन धर्मो के लिए निश्चित समय निर्धारित किया गया है।

1--ब्रह्मचर्य---जन्म से 25 वर्ष तक, 
जो व्यक्ति इस अवस्था का पालन करता है अपने मन मे कभी भी कोई अन्य भाव नहि लाता वही ज्ञान को प्राप्त करता है। क्योंकि यह अवस्था केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही है। इसमे व्यक्ति को अपने मन,कर्म, वचन, इन्द्रियों तथा बुद्धि पर नियन्त्रण करना पडता है।

2--गृहस्थ आश्रम --
यही वह आश्रम  है जिसमे सभी धर्म के लोग टिके हुए है। और यही वह धर्म है जिसमे मनुष्य सभी सुख भोगता है। और भक्ती मार्ग भी इसी धर्म से वह प्राप्त कर सकता है लेकिन मनुष्य ऐसा नही कर पाता है , क्योंकि वह इस अवस्था मे ऐसा रमेश जाता है कि उसे कुछ सूझता ही नही है। और आजीवन इसी आश्रम को अपनाकर अपने जीवन को कष्टमय बना देता है। जबकी मनुष्य 25 से 50 तक के सफर मे सभी सुख प्राप्त कर लेता है परन्तु उसकी तृप्ति नहि हो पाती है। वह अन्य आश्रमो को भी भूल जाता है। जो ईश्वर ने मानव कल्याण के लिए ही निर्धारित किए थे।

3--वानप्रस्थ आश्रम --
यह आश्रम 50 से 75 के बीच होता है। यानी मनुष्य गृहस्थ जीवन मे सुख भागकर अब प्रभु को प्राप्त करने के लिए तथा लोगों के कष्टों का निवारण करने के लिए घर का आजीवन के लिए त्याग कर देता है और दुवारा कभी मोह माया मे नही फसता है। कौन अपना है कौन पराया इसकी परवाह न करते हुए उस परमात्मा के लिए ही अपना जीवन लगा देना है।

4--सन्यास आश्रम---
इस आश्रम मे व्यक्ति इस संसार तथा प्राणि मात्र से दूर रहकर उस ईश्वर की भक्ती मे हीन हो जाता है।

अर्थात जीवन मे भक्ती ही मुक्ती का मार्ग है। जो चार आश्रमों के अनुसार जीवन व्यतीत करता है वह सुख भी भोगता है और ईश्वर को भी प्राप्त करता है।

कर्मो की प्रधानता ही उत्तम गती को प्राप्त होती है। 

हमारे शास्त्रों मे कर्म को ही प्रधानता दी गयी है और कहा गया है कि व्यक्ति अगर कर्मो मे श्रेष्ठ है तो उसे धरातल पर श्रेष्ठ बनने की जरूरत नही है। वह अपने आप मे एक महान व्यक्तित्व वाला होता होता है जिसके दिव्य चमक और गौरव से वह स्वतः ही दे दिव्य मान होता है और वह हीरे की तरह चमकने लगता है।

भारतीय शास्त्र ग्रन्थों की अगर बात करे तो यह अपने आप मे अलौकिक है जिसमे अथाह ज्ञान समाया हुआ है। और जो मनुष्य की मतीन और धारणा को सही रास्ते पर लेजा करके उसकी दिशा ही बदल देता है। गरूड पुराण जो कि मनुष्य की गती के बारे मे हमे ज्ञान दिलाता है कि किस प्रकार उसके कर्मो की गती होती है। और उसे किन परिस्थितियों से होकर गुजरना पढता है ।

                 कर्मो की परधानता-- 
मनुष्य के लिए कर्म हीरा श्रेष्ठ बताये गये है। और वही कर्म उसके आगे की राह तय करता है। जन्म लेना उस प्रकार से है कि जिस प्रकार से हम वस्त्र बदलते है। यानी कहा जाए तो आत्मा ही श्रेष्ठ है और शरीर उसका वस्त्र है और जब आत्मा को लगता है कि वस्त्र पुराना हो गया है तो वह उसे त्यागकर नया वस्त्र यानी नया शरीर धारण कर लेता है। तो फिर क्यों मनुष्य अपने इस शरीर से इतना मोह करता है और बुरे कर्मों की ओर अग्रसर होता है। जिसके फलस्वरूप  उसे बुरी से बुरी यातनाएं झेलनी पडती है।

इसीलिए मनुष्य को अपने कर्मो को श्रेष्ठ बनाने मे ही समय व्यतीत करना चाहिए कि जिस लिए ईश्वर ने उसे यह शरीर प्रदान किया है। किसी भी प्राणी की हत्या करना वो भी अपने सुख के लिए यह शास्त्रों मे निहित है। प्राणी ही अगर प्राणी की हत्या करेगा तो फिर उस  परम तत्व जो आत्मा उस शरीर मे रहती है उसे बहुत कष्ट का अनुभव होता है और वह उस शरीर से छुटकारा पाना चाहता है।

इसीलिए  अपने विचारों को शुद्ध कीजिये सभी चीजे आपके जीवन मे अच्छी घटित होने लगेगी।

  शास्त्रों का महत्व

कर्म तो लोक रंजना कारक है। मोक्ष का तो साक्षात्करण तत्वज्ञान है। यानी कर्म अच्छे होंगे तो मोक्ष निश्चित है। षड्दर्शनरूपी महा भयंकर कुवें मे घिरे प्राणी परमार्थ को नही जानते है, क्योंकि  उसे उसका ज्ञान नही हो पाता है। वह पशु के समान अज्ञानी ही बना रहता है। तथा सांसारिक बंधनों से घिरा रहता है। उसे इस मोह माया से ही फुर्सत नही मिल पाती है। और यह भी सत्य है कि कोई भी वेद शास्त्र या ग्रन्थों को पढने मात्र से ही ज्ञानी नही बन पाता है, अगर उसने उन गूढ साधन-रहस्य का अपने जीवन मे प्रयोग नही किया तो उसका वह ज्ञानी व्यर्थ का है।वह कौवे के समान है क्योकि कौवे की बोली किसी को प्रिय नही होती जबकी वह सहृदय से उसका गान करता है। यह ज्ञान है ,यह बात जानने योग्य है,इस चिन्ता मे पढते अहर्निश शास्त्र पढते है फिर भी उन्हे शास्त्र ज्ञान प्राप्त नही हो पाता है। क्योंकि हर विद्या का अपना महत्व है, जब तक उसके प्रति अटूट विश्वास व धारणा सही न हो वह प्राप्त नही हो सकती।

मनुष्य शास्त्रो को पढकर कष्ट ही भोगते है क्योंकि लोग उसके सही अर्थ का अनर्थ कर देते है। जो बाते आध्यात्म से जुडी हुयी है उसे जीवन से जोड देते है। जबकी जीवन और आध्यात्म बहुत अगाध विषय है।कुछ लोग थोडे से शास्त्रों को पढकर ही आपस मे ज्ञान बांटने लगते है। और उसमे भी अहंकार की भावना छुपी होती है। लेकिन यह भी सत्य है कि जहां अहंकार होता है वहां ज्ञान शून्य होता जाता है।

 ज्ञान का महत्व 

विद्या को निरर्थक माना गया है, क्योकि जब तक गुरू के समक्ष वहा अपने आप को समर्पित नही कर देता उसे ज्ञान प्राप्त नही होता सकता गुरू से ही ज्ञान का सम्बन्ध है। दोनो एक दूसरे के पूरक है। दोनो को साथ लेकर जो चलता है वही उस विद्या का हकदार है। अपने आप अगर सभी शास्त्रो का अध्ययन क्यो न किया जाए लेकिन जबतक गुरू के मुख से उसने उन वचनो को नही सुना तो वह उसके मष्तिष्क मे विराजमान नही हो सकता। सरल अर्थ मे कहे तो बिना गुरू के किसी भी ज्ञान को हासिल नही किया जा सकता। वह गुरु कोई भी हो सकता है। यानी जिससे हमे कुछ सीखने कोई मिले वही गुरू है।

    कर्म की श्रेष्ठता
कर्म की श्रेष्ठता यह है कि यह मेरा  है ,इसे प्राणी बन्धन मेर और यह मेरा नही है, इससे जब वह मुक्त हो जाता है तो वही कर्म कहलाता है। और जिसके द्वारा कोई बन्धन न हो वही विद्या है यानी विद्या विना बन्धन के ही प्राप्त की जा सकती है। और विद्या यानि ज्ञान ही मुक्ती को देने वाली होती है। इसके अलावा मनुष्य जितने भी कर्म करता है वह केवल परीश्रम करने वाले ही होते है।

जबतक मनुष्य कर्म करता है तब तक उसके अन्दर सांसारिक वासना घिरी रहती है। और जबतक उसे अपने शरीर पर अभिमान रहता है तबतक उसे ममता घेरे रहती है,जबतक कोई शास्त्र का चिन्तन नही करता तबतक उस पर गुरू की कृपा नही हो पाती है। इसीलिए अगर आप मुक्ती चाहते है तो हमेशा तत्व निष्ठ बने तभी आपका जीवन सफल हो सकता है।


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