पुरूष का जीवन
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पुरूष का जीवन भी कितने पहलू से सजा है,
हर किसी की ख्वाहिशों के लिए ही वो जीता है।
अपने कंधो पर लेकर भार परिवार का,
निकलता है पथरीले रास्तों पर जब अकेले।
अपने नखरों को भूल अपनों के नखरे बुनता है,
पुरूष का जीवन भी कितने पहलुओं से गुजरा है।
अगर स्त्री का जीवन संघर्ष का है,
तो पुरूष का जीवन भी कहां गुलजार है।
स्त्री तो अपना दुख दर्द बांट लेती है फिर भी,
लेकिन पुरूष अपने अन्दर ही दर्द को सहन करता है।
किसी भी पुरूष को आशान है कठोर या अभद्र कहना,
दुनिया समझती है उसे पशु जैसे वह इन्सान नही।
पिता-पुत्र, पती बनकर वह हर फर्ज बखूबी निभाता है,
अपनो के सपने तले वो खुद का चैन भूल जाता है।
परिवार के पेट की खातिर वो भूखा ही सो जाताहै,
अपनों की खुशी के खातिर वह अपना वर्तमान भूल जाता है।
पुरूष का जीवन भी कितने पहलू से सजा है । """
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पुरूष का जीवन भी कितने पहलू से सजा है,
हर किसी की ख्वाहिशों के लिए ही वो जीता है।
अपने कंधो पर लेकर भार परिवार का,
निकलता है पथरीले रास्तों पर जब अकेले।
अपने नखरों को भूल अपनों के नखरे बुनता है,
पुरूष का जीवन भी कितने पहलुओं से गुजरा है।
अगर स्त्री का जीवन संघर्ष का है,
तो पुरूष का जीवन भी कहां गुलजार है।
स्त्री तो अपना दुख दर्द बांट लेती है फिर भी,
लेकिन पुरूष अपने अन्दर ही दर्द को सहन करता है।
किसी भी पुरूष को आशान है कठोर या अभद्र कहना,
दुनिया समझती है उसे पशु जैसे वह इन्सान नही।
पिता-पुत्र, पती बनकर वह हर फर्ज बखूबी निभाता है,
अपनो के सपने तले वो खुद का चैन भूल जाता है।
परिवार के पेट की खातिर वो भूखा ही सो जाताहै,
अपनों की खुशी के खातिर वह अपना वर्तमान भूल जाता है।
पुरूष का जीवन भी कितने पहलू से सजा है । """
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