हिन्दी व्याकरण
अलंकार
hindi grammar/ras,chand,alankar/ संस्कृत व्याकरण/ Definition, types, characteristics, examples}
{परिभाषा, प्रकार, लक्षण, उदाहरण }
परिभाषा- (1)
अलंकार शब्द अलम एवं कार के योग से बना है, जिसका सामान्य अर्थ होता है--- आभूषण या शोभयमान करने वाला श्रृंगार आदि । जिन उपकरणों या शैलियों से काव्यों की सुन्दरता बढाई जाती है, उन्हे ही अलंकार कहा जाता है।(2)- काव्य को सही रूप प्रदा करने के लिए जिन घटकों का प्रयोग किया जाता है उसे अलंकार कहा जाता है।
(3-) कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं।
उपमा आदि के लिए अलंकार शब्द का संकुचित अर्थ में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते हैं और उसी से काव्य ग्रहण किया जाता है।
(काव्यं ग्राह्ममलंकारात्। सौंदर्यमलंकार: - वामन)
■ संस्कृत के आचार्य रुद्रट ने अभिधान प्रकार विशेष को ही अलंकार कहते हैं।
(अभिधानप्रकाशविशेषा एव चालंकारा:)
■ आचार्य दंडी जी के लिए अलंकार काव्य के शोभाकर धर्म हैं ।
(काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते)
■ सौंदर्य, चारुत्व, काव्यशोभाकर धर्म इन तीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और शेष में शब्द तथा अर्थ के अनुप्रासोपमादि अलंकारों के संकुचित अर्थ में। एक में अलंकार काव्य के प्राणभूत तत्व के रूप में ग्रहीत हैं और दूसरे में सुसज्जितकर्ता के रूप में।
अलंकार अलंकृति ; अलंकार : अलम् अर्थात् भूषण।
अर्थात---
जो भूषित करे वह अलंकार है। यानी जो अपनी ओर दूसरों को आकर्षित करता है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसकी चमक पूर्णिमा के चांद के समान हो जाती है। उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है।
आचार्यों द्वारा अन्य मत एवं परिभाषाएं
आचार्यों ने काव्यशरीर, उसके नित्यधर्म तथा बहिरंग उपकारक का विचार करते हुए काव्य में अलंकार के स्थान और महत्व का व्याख्यान किया है। इस संबंध में इनका विचार, गुण, रस, ध्वनि तथा स्वयं के प्रसंग में किया जाता है। शोभास्रष्टा के रूप में अलंकार स्वयं अलंकार्य ही मान लिए जाते हैं और शोभा के वृद्धिकारक के रूप में वे आभूषण के समान उपकारक मात्र माने जाते हैं। पहले रूप में वे काव्य के नित्यधर्म और दूसरे रूप में वे अनित्यधर्म कहलाते हैं। इस प्रकार के विचारों से अलंकारशास्त्र में दो पक्षों की नींव पड़ गई। एक पक्ष ने, जो रस को ही काव्य की आत्मा मानता है, अलंकारों को गौण मानकर उन्हें अस्थिरधर्म माना और दूसरे पक्ष ने उन्हें गुणों के स्थान पर नित्यधर्म स्वीकार कर लिया। काव्य के शरीर की कल्पना करके उनका निरूपण किया जाने लगा।
■ आचार्य वामन ने व्यापक अर्थ को ग्रहण करते हुए संकीर्ण अर्थ की चर्चा के समय अलंकारों को काव्य का शोभाकार धर्म न मानकर उन्हें केवल गुणों में अतिशयता लानेवाला हेतु माना है।
(काव्यशोभाया: कर्त्तारो धर्मा गुणा:। तदतिशयहेतवस्त्वलंकारा:।
■ आचार्य आनंदवर्धन ने इन्हें काव्यशरीर पर कटककुंडल आदि के सदृश मात्र माना है।
(तमर्थमवलंबते येऽङिगनं ते गुणा: स्मृता:। अंगाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्या: कटकादिवत्। - ध्वन्यालोक)।
■ आचार्य मम्मट ने गुणों को शौर्यादिक अंगी धर्मों के समान तथा अलंकारों को उन गुणों का अंगद्वारा से उपकार करनेवाला बताकर उन्हीं का अनुसरण किया है।
(ये रसस्यांगिनी धर्मा: शौयादय इवात्मन:। उत्कर्षहेतवस्तेस्युरचलस्थितयो गुणा:।। उपकुर्वंति ते संतं येऽङगद्वारेण जातुचित्। हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादय:।)
■ आचार्य हेमचंद्र तथा आचार्य विश्वनाथ दोनों ने उन्हें अंगाश्रित ही माना है। हेमचंद्र ने तो "अंगाश्रितास्त्वलंकारा:" कहा ही है और विश्वनाथ ने उन्हें अस्थिर धर्म बतकर काव्य में गुणों के समान आवश्यक नहीं माना है।
(शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्मा: शोभातिशयिन:। रसादीनुपकुर्वंतोऽलंकारास्तेऽङगदादिवत्।
■ इसी प्रकार यद्यपि अग्निपुराणकार ने ("वाग्वैधग्ध्यप्रधानेऽपि रसएवात्रजीवितम्")
कहकर काव्य में रस की प्रधानता स्वीकार की है, तथापि अलंकारों को नितांत अनावश्यक न मानकर उन्हें शोभातिशायी कारण मान लिया है ।
(अर्थालंकाररहिता विधवेव सरस्वती)।
आचार्यों द्वारा विविध मंत्रणा एवं विवाद
■ इस विवाद के रहते हुए भी आनंदवर्धन जैसे समन्वयवादियों ने अलंकारों का महत्व प्रतिपादित करते हुए उन्हें आंतर मानने में हिचक नहीं दिखाई है। रसों को अभिव्यंजना वाच्यविशेष से ही होती है और वाच्यविशेष के प्रतिपादक शब्दों से रसादि के प्रकाशक अलंकार, रूपक आदि भी वाच्यविशेष ही हैं, अतएव उन्हें अंतरंग रसादि ही मानना चाहिए। बहिरंगता केवल प्रयत्नसाध्य यमक आदि के संबंध में मानी जाएगी ।(यतो रसा वाच्यविशेषैरेवाक्षेप्तव्या:। तस्मान्न तेषां बहिरंगत्वं रसाभिव्यक्तौ। यमकदुष्करमार्गेषु - तु तत् स्थितमेव। - ध्वन्यालोक)।
■ अभिनवगुप्त के विचार से भी यद्यपि रसहीन काव्य में अलंकारों की योजना करना शव को सजाने के समान है (तथाहि अचेतनं शवशरीरं कुंडलाद्युपेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात्-लोचन), तथापि यदि उनका प्रयोग अलंकार्य सहायक के रूप में किया जाएगा तो वे कटकवत् न रहकर कुंकुम के समान शरीर को सुख और सौंदर्य प्रदान करते हुए अद्भुत सौंदर्य से मंडित करेंगे; यहाँ तक कि वे काव्यात्मा ही बन जाएँगे। जैसे खेलता हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सचमुच राजा ही समझता है और उसके साथी भी उसे वैसा ही समझते हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार भी प्रधान हो सकते हैं ।
(सुकवि: विदग्धपुरंध्रीवत् भूषणं यद्यपि श्लिष्टं योजयति, तथापि शरीरतापत्तिरेवास्य कष्टसंपाद्या, कुंकुमपीतिकाया इव। बालक्रीडायामपि राजत्वमिवेत्थममुमर्थं मनसि कृत्वाह।-लोचन)।
■ ध्वन्यालोक में "अनन्ता हि वाग्विकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेयता की ओर संकेत किया गया है।
दंडी ने "ते चाद्यापि विकल्प्यंते" कहकर इनकी नित्य संख्यवृद्धि का ही निर्देश किया है। तथापि विचारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, रसालंकार, भावालंकार, मिश्रालंकार, उभयालंकार तथा संसृष्टि और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द तथा अर्थ के आश्रित अलंकार हैं। यह विभाग अन्वयव्यतिरेक के आधार पर किया जाता है। जब किसी शब्द के पर्यायवाची का प्रयोग करने से पंक्ति में ध्वनि का वही चारुत्व न रहे तब मूल शब्द के प्रयोग में शब्दालंकार होता है और जब शब्द के पर्यायवाची के प्रयोग से भी अर्थ की चारुता में अंतर न आता हो तब अर्थालंकार होता है।
■ सादृश्य आदि को अलंकारों के मूल में पाकर पहले पहले उद्भट ने विषयानुसार, कुल 44 अलंकारों को छह वर्गों में विभाजित किया था, किंतु इनसे अलंकारों के विकास की भिन्न अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ने की अपेक्षा भिन्न प्रवृत्तियों का ही पता चलता है। वैज्ञानिक वर्गीकरण की दृष्टि से तो रुद्रट ने ही पहली बार सफलता प्राप्त की है।
उन्होंने वास्तव, औपम्य, अतिशय और श्लेष को आधार मानकर उनके चार वर्ग किए हैं।
अलंकारों के प्रकार वर्ग
1- वस्तु के स्वरूप का वर्णन वास्तव है। इसके अंतर्गत 23 अलंकार आते हैं।2- किसी वस्तु के स्वरूप की किसी अप्रस्तुत से तुलना करके स्पष्टतापूर्वक उसे उपस्थित करने पर औपम्यमूलक 21 अलंकार माने जाते हैं।
3- अर्थ तथा धर्म के नियमों के विपर्यय में अतिशयमूलक 12 अलंकार होते है।
4- अनेक अर्थोंवाले पदों से एक ही अर्थ का बोध करानेवाले श्लेषमूलक 10 अलंकार होते हैं।
अलंकार के भेद
अलंकार के दो भेद होते है---------1-- शब्दालंकार
2-- अर्थालंकार
1-- शब्दालकार : जहां शब्दों मे अलंकार हो अलंकार मे शब्द विशेष को बदल दिया जाय तो अलंकार नही रह पाएगा। इसके अंतर्गत ---
1- अनुप्रास ,
2- यमक,
3- श्लेष,
4- पुनरुक्ति प्रकाश,
5- प्रश्न स्वरमैत्री
आदि अलंकार आते है।
2-- अर्थालंकार : जहां अलंकार अर्थ पर आश्रित हो, वहां अर्थालंकार होता है। इस अलंकार मे शब्दों के परिवर्तन कर देने पर भी अर्थ मे बदलाव नहीं आता है। इस अलंकार के अंतर्गत ---
1- उपमा
2- रूपक
3- उत्प्रेक्षा
4-अतिशयोक्ति
5- अन्योक्ति
6- अपहनुति
7- व्यतिरेक
8- विरोधाभास
आदि आते है।
अलंकार में ध्यान देने योग्य बातें----
अलंकार कविता में पहचान1: अनुप्रास वर्णों की आवृत्ति
2: यमक अलग अर्थ में एक शब्द की बार-बार आवृत्ति
3: श्लेष प्रयोग एक बार लेकिन अर्थ मे विविधता
4: वक्रोक्ति कहने वाले तथा सुनने वाले के आशय मे अंतर
5: उपमा वस्तु की समता
6: रूपक एक वस्तु के बदले दूसरे को रखना
7: प्रतीप उपमेय तथा उपमान मे समानता
8: उत्प्रेक्षा उपमेय मे उपमान की सम्भावना
9: व्यतिरेक उपमेय को उपमान से श्रेष्ट बताया जाए
10: विभावना बिना कारण के कार्य की सम्भावना
11: अतिशयोक्ति बढा-चढाकर किया गया वर्णन
12: दृष्टांत मिलती- जुलती बात करना
13: भ्रान्तिमान भ्रान्ति उत्पन्न होना
14: काव्यलिंग किसी उक्ति के समर्थन का कारण बताना
1-- अनुप्रास अलंकार
● जिस रचना मे किसी व्यंजन की आवृत्ति एक निश्चित क्रम मे होती है, वहां अनुप्रास अलंकार होता है।● इस अलंकार मे कसी व्यंजन वर्ण की आवृत्ति होती है। आवृत्ति का अर्थ है दुहराना।
उदाहरण--
1-- मुदित महीपति मंदिर आए ।
सेवक सचिव सुमंत बुलाए ।।
2-- तरनि-तनुजा-तट-तमाल तरुवर बहु छाए ।
3- कोकैल कीर कपोतनि के कुल केलि करैं अति आनंदकारी ।
4-- प्रगति सुमति गति गुंजित कलरव ।
जगे राष्ट्र नूतन नित अभिनव ।।
नोट-- उपर्युक्त उदाहरणों मे व्यंजन वर्णों की आवृत्ति एक निश्चित क्रम मे है। अर्थात पहले उदाहरण की पहलो पंक्ति मे म तथा दूसरी पंक्ति मे स की आवृत्ति हुई है। दूसरे उदाहरण मे त तीसरे उदाहरण मे क चौथे उदाहरण मे स और पांचवे उदाहरण की प्रथम पंक्ति मे त और द्वितीय पंक्ति मे न वर्णों की आवृत्ति हुई है।
अतः इन सभो पंक्तियों मे अनुप्रास अलंकार की छटः विद्यमान है।
2--- यमक अलंकार
● जब किसी रचना मे किसी शब्द की आवृत्ति भिन्न-भिन्न अर्थों मे हो तो वहां पर यमक अलंकार होता है।● जिस काव्य मे समान शब्द के अलग-अलग अर्थों में आवृत्ति हो, वहां यमक अलंकार होता है। यानी एक ही शब्द जितनी बार आए उतने ही अलग-अलग अर्थ दे।
उदाहरण--
कनक-कनक ते सौ गुनी ,मादकता अधिकाय ।
वा खाए बौराय नर, वा पाए बौराय ।।
नोट--- इस उदाहरण के माध्यम से कनक शब्द दो बार आया है।
पहले कनक का अर्थ है-- धतूरा और दूसरे कनक का अर्थ है--- सोना । कवि के कहने का तात्पर्य है कि धतूरे और सोने के नशे मे सौ गुने का अंतर है। यदि कोई व्यक्ति धतूरा खा लेता है तो वह उन्मत्त (पागल) हो जाता है लेकिन उसका यह पागलपन घंटे दो घंटे मे समाप्त हो जाता है ।
अर्थात यही चमत्कार यमक अलंकार कहलाता है।
यमक के अन्य प्रमुख उदाहरण
1-- माला फेरतयुग गया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।
-- (मनका -- माला के दाने ,मन का -- हृदय का।)
2-- काली घटा का घमंड घटा , नभमंडल तारक -वृंद खिले ।
--(घटा- बादल , घटा-घट जाना , कम हो जाना)
3-- भजन कह्यौ ताते भज्यौ न एको बार ।
दूर भजन जासो कह्यो , सो तू भज्यौ गंवार ।।
नोट--- यहां भजन और भज्यौ शब्द की आवृत्ति भिन्न अर्थो मे हुई है। भजन का अर्थ है-- भजन पूजन और भाग जाना । इसी तरह भज्यौ के भी दो अर्थ है जाना और भक्ति करना।
3--श्लेष अलंकार
श्लेष का शाब्दिक अर्थ होता है--- चिपके रहना । जहां किसी रचना मे कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो, परंतु एक से अधिक अर्थ दे , वहां पर श्लेष अलंकार होता है।श्लेष अलंकार दो प्रकार के माने जाते है।----
1- शब्द श्लेष
2- अर्थ श्लेष
1: शब्द श्लेष : जहां एक शब्द अनेक अर्थों मे प्रयुक्त होता है, वहां शब्द-श्लेष होता है।
उदाहरण--
रहिमन पानी राखिए , बिन पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून ।।
नोट--- यहां दूसरी पंक्ति मे पानी श्लिष्ट शब्द है,जो प्रसंग के अनुसार तीन अर्थ दे रहा है----
● मोती के अर्थ मे----- चमक
● मनुष्य के अर्थ मे ----- प्रतिष्ठा
● चूने के अर्थ मे ------ जल
2-- अर्थ श्लेष : जहां सामान्यतः एकार्थक शब्द के द्वारा एक सः अधिक अर्थों के बोध हो, उसे अर्थ शःलेष कहते है।
उदाहरण--
नर की अरु नलनीर की गतै एकै कर जोय ।
जेतो नीचो ह्वै चले तेतो ऊंचो हो ।।
नोट---- इस उदाहरण की दूसरी पंक्ति मे नीचो ह्वै चले और ऊंचो होय शब्द सामान्यतः एक ही अर्थ का ज्ञान करा रहे है,लेकिन नर और नलनीर के प्रसंग मे दो भिन्नार्थों की प्रतीति कराते है।
4--- वीप्सा अलंकार
आदर , घबराहट , आश्चर्य , घृणा , रोचकता आदि प्रदर्शित करने के लिए किसी शब्द को दुहराना ही वीप्सा अलंकार कहा जाता है।उदाहरण--
मधुर- मधुर मेरे दीपक जल ।
नोट--- वीप्सा अलंकार को ही 'पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार ' कहा जाता है। यानी शब्द की आवृत्ति होती है।
5-- प्रश्न अलंकार
यदि पद मे प्रश्न किया जाए तो उसमे प्रश्न अलंकार होता है।यानी ऐसे वाक्यांश जिसमे प्रश्नवाचक चिन्ह या प्रश्न उठे ।उदाहरण
■ जीवन क्या है ? निर्झर है।
मस्ती ही इसका पानी है ।
■ कौन रोक सकता है उसकी गति ?
गरज उठते जब मेघ,
कौन रोक सकता विपुल नाद ?
6-- उपमा अलंकार
उप का अर्थ होता है--- समीप से यानी नजदीक से और मा का अर्थ होता है--- तौलना या देखना । और उपमा शब्द का अर्थ होता है---- एक वस्तु दूसरी वस्तु को रखकर समानता दिखाना ।अतः जब दो भिन्न वस्तुओं मे समान धर्म के कारण समानता दिखाई जाती है, तब वहां उपमा अलंकार होता है।
सामान्यतः उपमा अलंकार के चार भेद है---
A- उपमेय
B- उपमान
C- साधारण धर्म
D- वाचक
उपमेय---- जिसकी उपमा दी जाए , अर्थात जिसकी समानता किसी दूसरे पदार्थ से दिखलाई जाए ।
उदाहरण-- कर कमल सा कोमल है ।
नोट--- इसमे कर उपमेय है।
उपमान--- जिससे उपमा दी जाय , यानी उपमेय को जिसके समान बताया जाए।
उक्त उदाहरण मे कमल उपमान है।
साधारण धर्म--- धर्म का अर्थ है प्रकृति या गुण । उपमेय और उपमान मे विद्यमान समान गुण को ही साधारण धर्म कहा जाता है।
उक्त उदाहरण मे कमल और कर दोनों के समान धर्म है---- कोमलता।
वाचक---- उपमेय और उपमान के बीच की समानता बताने के लिए जिन वाचक शब्दों का प्रयोग होता है, उन्हे हो वाचक कहा जाता है।
उक्त उदारण मे सा वाचक है।
नोट--- जहां उपमा के चारों अंग उपस्थित हो वहां पूर्णोपमा और जहां एक या एकाधिक अंग लुप्त हो वहां लुप्तोपमा होती है।
पूर्णोपमा अलंकार उदाहरण
पीपर पात सरिस मन डोला।
● पीपर पात ---- उपमान
● डोला ---- साधारण धर्म
● मन ------- उपमेय
● सरिस ------ वाचक
लुप्तोपमा अलंकार का उदाहरण
यह देखिए , अरविन्द-से शिशु वृन्द कैसे सो रहे ।
● शिशुवृन्द ---- उपमेय
● से ----------- वाचक
● अरविन्द -------- उपमान
● समान धर्म ------- लुप्त है।
7-- रूपक अलंकार
जब उपमेय पर उपमान का निषेध रहित करते है। तब रूपक अलंकार होता है।उपमेय मे उपमान के आरोप का अर्थ है ---- दोनों मे अभिन्नता या अभेद दिखाना । इस आरोप मे निषेध नही होता है।
उदाहरण--
बीती विभावरी जागरी !
अम्बर पनघट मे डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी ।
नोट--- यहां ऊषा मे नागरी का अम्बर मे पनघट के और तारा मे घट का निषेध रहित आरोप हुआ है ।
अतः यहां पर रूपक अलकार है।
8-- उत्प्रेक्षा अलंकार
जहां पर उपमेय मे उपमान की सम्भावना की सम्भावना की जाए वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।इसमे प्राय मनु,जनु,मानो,जानो, जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण
सखि सोहत गोपाल के उर गुंजन की माल ।
बाहर लसत मनो पिए दावानल की ज्वाला ।।
नोट--- यहां उपमेय गुंजन की माल मे उपमान ज्वाला की संभावना प्रकट की गयी है।
9-- अतिशयोक्ति अलंकार
जहां किसी बात का वर्णन काफी बढा-चढा कर किया जाये वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है।उदाहरण--
आगे नदिया पडी अपार ,
घोडा कैसे उतरे पार ।
राणा ने सोचा इस पार,
तब तक चेतक था उस पार ।।
नोट--- इन पंक्तियों मे चेतक की शक्ति और स्फूर्ति को काफी बढा-चढा कर बताया गया है।
10-- अन्योक्ति अलंकार
जहां उपमान के वर्णन के माध्यम से उपमेय का वर्णन हो,वहां अन्योक्ति अलंकार होता है।इस अलंकार मे कोई बात सीधे-सादे रूप मे न कहकर किसी के माध्यम से कही जाती है।उदाहरण--
नहिं पराग नहिं मधुर मधु,
नहिं विकास इहिकाल ।
अली कली ही सौं बंध्यों ,
आगे कौन हवाल ।।
नोट--- यहां पर उपमान कली और भौरे के वर्णन के बहाने उपमेय की ओर संकेत किया गया है।
11-- अपह्नुति अलंकार
उपमेय पर उपमान का निषेध-रहित आरोप अपह्नुति अलंकार है। इस अलंकार मे न ;नही आदि निषेधवाचक अव्ययों की सहायता से उपमेय का निषेध कर उसमे उपमान का आरोप करते है।उदाहरण--
बरजतशहूं बहुबार हरि ,
दियो चीर यह चीर ।
का मनमोहन को कहै,
नहिं बानर बेपीर ।।
नोट--- यहां कृष्ण द्वारा वस्त्र फाडे जाने को बन्दर द्वारा फारा फाडा जाना कहा गया है।
12-- व्यतिरेक अलंकार
इस अलंकार मे उपमान की अपेक्षा उपमेय को काफी बढा-चढाकर वर्णन किया जाता है।उदाहरण
जिनके जस प्रताप के आगे ।
ससि मलिन रवि शीतल आगे ।।
नोट-- यहां उपमेय यश और प्रताप को उपमान शशि एवं सूर्य से भी उत्कृष्ट कहा गया है।
13-- सन्देह अलंकार
उपमेय मे जब उपमान का शंशय हो तब संदेह अलंकार होता है।उदाहरण
कहुं मानवी यदि मै तुमको तो ऐसा संकोच कहां ?
कहूं दानवी तो उसमे है यह लावण्या की लोच कहां ?
वन देवी समझूं तो वह तोहोती है भोली भाली ।
14-- विरोधाभास अलंकार
जहां बाहर से तो विरोध जान पडे किन्तु यथार्थ मे विरोध न हो ।
उदाहरण
प्रियतम को समक्ष पा कामिनी ।
न जा सकी न ठहर सकी ।।
आई ऐसी अद्भुत बेला ।
ना रो सका न विह॔स सका।
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