Wednesday 2 October 2019

हिन्दी व्याकरण रस

हिन्दी व्याकरण

रस

Ras (रस) Notes, Explanation, Example, Question and Answers and Difficult word meaning

(परिभाषा,प्रकार,लक्षण,उदाहरण)परिभाषा--

1--""रस्यते आस्वाद्यते इति रसः ।""
अर्थात---- जिसका आस्वादन किया जाय,,सराहकर चखा जाय,वही रस कहा जाता है। जिस प्रकार लजीज भोजन  से जीभ और मन को तृप्ति मिलती है। ठीक उसी प्रकार से मधुर काव्य का रसास्वादन करने से हृदय को आनंद मिलता है।
यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है। इसी साहित्यिक आनंद का नाम रस है।
साहित्यदर्पण मे कहा गया है--
{वाक्य रसात्मकम्  काव्यम्}
अर्थात --रस ही  काव्य की आत्मा है।
2--  काव्य के अध्ययन से हमे आनंद की प्राप्ति होती है अर्थात् हृदय में एक अनिर्वचनीय भाव का संचार होता है जो आनंद स्वरूप है। यही अलौकिक आनंद रस कहलाता है।

रस के प्रकार
 रस के मुख्यतः चार (4)  अवयव यानी प्रकार माने गये है।
1-- स्थायीभाव
2-- विभाव
3-- अनुभाव
4-- संचारी भाव,व्यभिचारी भाव

1-- स्थायीभाव--   काव्य के द्वारा जिस रस या आनन्द का अनुभव होता है। उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप होते हृ। जिस समय आप कोई देशभक्ति ये वीरता -प्रधान फिल्म देखते है अथवा उसके डायलाॅग सुनते है, उस समय आपके मन मे एक विलक्षण उत्साह का अनुभव होता है। ऐसे ही भाव को स्थायीभाव कहते है।

2-- विभाव--   स्थाईभाव का जो कारण होते है, उसे ही विभाव कहते है। विभाव के दो अवांतर भेद होते है। {आलम्बन और उद्दीपन }
जैसे-- सांप को देखने मात्र से आपके मन मे भय का संचार होता है। आपके भय के आलंबन सांप है। आप कल्पना करे कि वह सांप आपके सामने विकराल रूप मे खडा है----यही उद्दीपन है।

3-- अनुभाव--    इस उदाहरण के माध्यम से आपको को भय का अनुभव किस प्रकार से होता है। आपकी दृष्टि रूक जाती है, आपका शरीर कांपनः लगता है, आपकी सांसे रूक जाती है। इसी चेष्टा को अनुभाव कहते है।
मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते हैं। अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है।
स्तंभ
स्वेद
रोमांच
स्वर-भंग
● कम्प
● विवर्णता (रंगहीनता)
● अश्रु
●  प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता)

4--  संचारी भाव व व्यविचारी भाव---   मानलिया जाय कि सांप को देखकर आप कुछ देर के लिए बेहोश जैसे हो गये। यह दशा आत्म-विस्मृति की होती है, जो कि अधिक देर तक नही रहती है, यही क्षणिक अवस्था केवल भय मे हो नही शोक,प्रेम,घृणा,आदि मे भी आती है। ऐसी ही वृत्ति को संचारीभाव अथवा व्यभिचारीभाव कहते है।

मन में संचरण करने वाले (आने-जाने वाले) भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं, ये भाव पानी के बुलबुलों के सामान उठते और विलीन हो जाने वाले भाव होते हैं।

संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
● हर्ष    ●  विषाद   ●  त्रास (भय/व्यग्रता) ● लज्जा             ● ग्लानि   ● चिंता    ● शंका      ●असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता)    ● अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख)     ●मोह       ●गर्व      ●उत्सुकता   ●उग्रता       ●चपलता       ●दीनता      ●जड़ता       ● आवेग        ●निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना)        ●घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव)         ●मति         ● बिबोध (चैतन्य लाभ)         ● वितर्क         ●श्रम           ●आलस्य        ●निद्रा     ●स्वप्न     ●स्मृति        ●मद            ●उन्माद       ●अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)        ● अपस्मार (मूर्च्छा)       ●व्याधि (रोग)        ●मरण

रस की उत्पत्ति
भरत मुनि के (नाट्यशास्त्र) सः प्राप्त "रसो वै सः " 
अर्थात---- रस ही ब्रह्म है। रस को उत्पत्ति के संबंध मे भरतमुनि ने लिखे है----- विभावानुभावव्भिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः
अर्थात--- विभाव नुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है।

--नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्य भरतमुनि ने रसों की संख्या 8 मानी थी ।
--आचार्य मम्मट और विश्वनाथ जी ने रसों को संख्या 9 मानी है।
आगे चलकर वात्सल्य और भक्ति की भो रस के रूप मे कल्पना को गयी। इस प्रकार रसों की संख्या 11 मानी गयी है।

विभिन्न सन्दर्भों में रस का अर्थ

 रसपूर्ण भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।

रस और उनके स्थायीभाव
क्रं.          रस         स्थायीभाव
1-       श्रृंगार रस          रति
2-       करूण रस         शोक
3-       शान्त रस           निर्वेद
4-       रौद्र रस              क्रोध
5-       वीर रस              उत्साह
6-       हास्य रस            हास
7-       भयानक रस        भय
8-       वीभत्स रस          जुगुप्सा
9-       अद्भुत रस            विस्मय 
10-      वात्सल्य रस        वत्सलता
11-      भक्ति रस             भगवद्विषयक अनुराग


श्रृंगार रस

नायक-नायिका के सौन्दर्य और प्रेम सम्बन्धी वर्णन की परिपक्व अवस्था को श्रृंगार रस कहते है।
श्रृगार रस के दो (2) भेद माने गये है।

1- संयोग श्रृगार
2- वियोग श्रृगार


1- संयोग-श्रृंगार 

नायक-नायिका के प्रसंग में संयोग-श्रृंगार होता है।

उदाहरण----

 बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय ।
सौंह करैं भौंहनु हंसै देन कहैं नटि जाय ।।


2-- वियोग श्रृंगार--- 

नायक-नायिका की विरहावस्था का वर्णन वियोग-श्रृगार मे होता है।

उदाहरण--- 

क्या पूजा क्या अर्चन रे ।
उस असीम को सुन्दर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे ।
मेरी श्वासे करती रहती नित प्रिय का अभिनंदन रे ।
पदरज को धोने उमडे आते लोचन जलकण रे।

2-- करूण रस

किसी प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति आदि के प्रति अनिष्ट  की आशंका या इनकेशविनाश से हृदय को जो क्षोभ होता है, वह करूण रस कहलाता है।
इसका स्थायी भाव शोक है।

उदाहरण-

राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम। 
तनु परिहरि रघुवर-विरह राउ गएउ सुरधाम ।।


शान्त रस 

संसार की असारता , सभी वस्तुओं की नश्वरता और ईश्वर की सत्ता का ज्ञान होने पर सांसारिक माया -मोह से जो वैराग्य की भावना उत्पन्न हो जाती है उसे निर्वेद कहते है। यहि निर्वेद विभाव , अनुभाव , स्थायी भाव तथा संचारी भावों मे संयुक्त होकर शान्त रस की उत्पत्ति होती है।

उदाहरण

एहि कलिकाल न साधन; ।
जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ।।
रामहिं सुमरिय गाइय रामहिं ।
संतत सुनिय राम गुण ग्रामहि 
।।

रौद्र रस

 शत्रु पक्ष या किसी अत्याचारी के अत्याचारों को देखकर अथवा गुरूजनों या आत्मीय जनों की निन्दा आदि को सुनकर चित्त मे जो क्षोभ उत्पन्न हो ता है उसे क्रोध कहते है। यही क्रोध नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव  एवं संचारी भावों से संयुक्त होता है। तो रौद्र रस की उत्पत्ति होती है।

उदाहरण
रे नृप बालक !कालबस बोलत तोहि न संभार  ।
धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल  संसार ।।

वीर रस

शत्रु का उत्कर्ष ; धर्म की हानि आदि को देखकर किसी कठिन कार्य ,युद्धादि करने के लिए हृदय मे जो उत्साह जागृत होता है ,वह विभाव , अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से  वीर रस मे परिवर्तित होता है।

उदाहरण
जौं राऊर अनु सासन पाऊं ।
कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊं ।।
कांचे घट जिमि डारऊं फोरी ।
सकऊं ।।

हास्य रस

किसी की विचित्र वेशभूषा , वाणी , चेष्टा आदि की विकृति को देखकर हृदय मे जो विनोद का भाव उत्पन्न होता है। उसे हास कहा जाता है। यही हास, विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव से पुष्ट होकर हास्य रस मे परिणत हो जाता है।

उदाहरण
सिव समाज सब देखन लागे ।
बिडरि चले बाहन सब भागे ।।
नींद टूट गई दोपहरि में ।
सुन तेरी मधुर पुकार गधे ।।
भयानक रस

भयानक रस

किसी भयानक वस्तु , प्राणी या दृश्य को देखने उसका वर्णन सुनने या स्मरण करने आदि से चित्त मे जो व्याकुलता उत्पन्न होती है, उसे भय कहते है। भय एक स्थायी भाव है जो विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव से संयोग होने पर भयानक रस की उत्पत्ति होती है।

उदाहरण

उधर गरजती सिन्धु लहरियां कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रही फेन उगलती फन फैलाए व्यालों सी।    ।।

बीभत्स रस


इस प्रकार के रस का स्थायी भाव घृणा होता है और यह रस घृणा को व्यक्त करता है। यह घृणा दो तत्वों के बीच की घृणा होती है। वही बीभत्स रस कहलाता है।

उदाहरण :-

“खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक

नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक


अद्भुत रस

विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तु या घटना को देखकर हृदय कौतुहल तथा आश्चर्य का भाव उत्पन्न होत, जिसे विस्मय कहते है। इसी के संयोग से अद्भुत रस मे परिणित हो जाता है।
इस प्रकार का रस आश्चर्य उत्पन्न करने के लिए होता है। इसका स्थायी भाव विस्मय है।

उदाहरण :-


“आज पवन शांत नहीं है श्यामा

देखो शांत खड़े उन आमों को

हिलाए दे रहा है

उस नीम को

झकझोर रहा है” (त्रिलोचन)


वात्सल्य रस

  बालक , शिष्य ,आदि के प्रति प्रकट किया जाने वाला भाव स्नेह यानी वात्सल्य कहा जाता है।  यह रस वात्सल्य यानी कि ममता व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका स्थायी भाव वात्सल्य रति है।

उदाहरण

“किलकत कान्ह, घुटरूवन आवत।

मनीमय कनक नन्द के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत” (सूरदास)


भक्ति रस

भगवद् , गुणगान  सुनकर उसमे लीन होने पर भगवद्विषयक अनुराग  उत्पन्न हो भक्ति रस कहलाता है।
यह रस भक्ति को व्यक्त करता है एवं इसका स्थायी भाव अनुराग है।

उदाहरण


“राम जपू, राम जपू, राम जपू बावरे,

घोर भव नीर – निधि, नाम निज भाव रे” (तुलसीदास) 

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