Saturday 18 January 2020

सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र (अर्थ सहित, महत्व, उद्देश्य,)

सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र 

(अर्थ सहित, महत्व, उद्देश्य,)
Siddha Kunjika Stotram lyrics in Hindi 



दोस्तों सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र माता दुर्गा का बहुत ही प्रभावशाली तथा कल्याणकारी स्तोत्र है। यह स्तोत्र रुद्रयामल तंत्र के गौरी तंत्र भाग से लिया गया है। सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ को करना यानी पूरी दुर्गा सप्तशती के पाठ को करने के बराबर है। इस सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र के मूल मन्त्र को नवाक्षरी मंत्र ( ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ) के साथ प्रारम्भ होते है, जोकि इस मंत्र को माता सर्व शक्तिशाली मंत्र कहा गया है। कुञ्जिका का शाब्दिक अर्थ होता है चाबी यानी (key) अर्थात कुञ्जिकास्तोत्र दुर्गा सप्तशती की शक्ति को जागृत करता है ,जो महेश्वर शिव के द्वारा गुप्त (lock) कर दी गयी है। यह मंत्र इतना प्रभावशाली है की आपको फिर किसी अन्य मंत्र को जपने की आवश्यकता नही पढेगी, इस कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ मात्र से सभी जाप सिद्ध हो जाते है,और सभी मनोकामना पूर्ण हो जाती है। इस कुञ्जिकास्तोत्र में आए बीजों (बीज मन्त्रो) का अर्थ जानना न संभव है और न ही अतिआवश्यक अर्थात केवल जप पर्याप्त है। अर्थात सच्चे मन से जाप करने पर आप स्वयं ही अनुभव करेंगे।

सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र का महत्व---

दोस्तों भगवान शिव कहते हैं कि सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र का पाठ करने वाले को पूरी दुर्गा सप्तशती यानी देवी कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास और यहां तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है। केवल कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ मात्र से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। इसको शिव ने परम कल्याण कारी माना है तथा भक्तों को अल्प समय मे अपने अपने पापों का प्रयाश्चित करने का अवसर दिया है।

कुञ्जिकास्तोत्र शक्तिशाली क्यों है ? 

हर किसी का अपना महत्व होता है, और उसी महत्व के कारण वह महान कहलाता है। इस कुञ्जिकास्तोत्र मंत्र की अपनी एक अलग पहचान है, जो कुञ्जिका में दिया हुआ है साथ ही बीजमंत्रों का वर्णन किया है, और बीज मंत्र बहुत ही शक्तिशाली होते है | इसको दुर्गा सप्तशति का सार भी कहा जाता है, यानी जितना फल दुर्गा शप्तशति पढने से प्राप्त होता है उतना इसी कुञ्जिकास्तोत्र के पाठ करने से मिलता है। बीजमंत्रों का बहुत ही चमत्कारिक परिणाम प्राप्त होता है तो इसलिए यह बहुत ही शक्तिशाली तथा शुभ मंगल स्तोत्र है |

कुञ्जिकास्तोत्र का उद्देश्य क्या है----

इसका प्रमुख उद्देश्य है मानव अनेकों कष्टों से छुटकारा पाकर सुखी जीवन जी सके।क्योंकि हर एक व्यक्ति के वस मे दुर्गा सप्तशती का पाठ कर पाना सम्भव नही हैं। क्योंकि हो सकता है समय और धन का अभाव हो,  भगवान् शिव ने इस कुञ्जिकास्त्रोत्र की उत्पत्ति की है। ताकि कोई भी माता के भक्त माता दुर्गा और नवरात्रों मे भक्तिभाव से वञ्चित न रहें और कोई भी दुर्गा भक्त इस स्तोत्र के पाठ मात्र से दुर्गा सप्तशती के पाठ का फल प्राप्त कर सके। उसके मन की दुविधा दूर हो सके |

सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र में सावधानी--- 


संक्षिप्त मंत्र

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥  ( सामान्य रूप से हम लोग इस मंत्र का पाठ करते हैं , जोकि हम अनजान होते है लेकिन संपूर्ण मंत्र केवल सिद्ध कुञ्जिकास्तोत्र में ही निहित है)

संपूर्ण मंत्र यह है

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ऊं ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।

 
                 ।। अथ शिव उवाच ।।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ।।१।।
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ।।२।।
कुञ्जिका पाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।
अति गुह्यतरं देवी देवनामपि दुर्लभम् ।।३।।
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ।।४।।

            ।। भावार्थ ।।

शिवजी बोले------
हे देवी ! सुनो । मैं उत्तम कञ्जिकास्तोत्र का उपदेश करंगा, जिसके मंत्र के प्रभाव से देवी का जप (पाठ) सफल माना जाता है।। १।।

कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त,ध्यान, न्यास यहां तक की अर्चन करना भी आवश्यक नही है।।२।।

केवल कुञ्जिका के पाठ से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है । यह कुञ्जिका स्तोत्र  अत्यन्त गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ मान् गया है।। ३।।

हे पार्वती ! इसे स्वयोनि की भांति प्रयत्न पूर्वक गुप्त रखना चाहिए । यह उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण,मोहन,वशीकरण,स्तम्भन और उच्चाटन आदि आभिचारिक उद्देश्यों को सिद्ध करता है।।४।।


               ।। अथ मन्त्रः।।

ॐऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।।
● ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।

         ।। भावार्थ ।।

मन्त्र--- 
ॐऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।
(मंत्र मे आये बीजों का अर्थ जानना न सम्भव है,और न ही आवश्यक है तथा न वाञ्छनीय है।केवल जप मात्र ही प्रयाप्त है।)

      ।। इति मन्त्रः ।।

नमस्ते रूद्रपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि ।
नभः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ।।१।।
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ।
जाग्रतम् हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे ।।२।।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ।।३।।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ।। ४।।
     

                      ।। भावार्थ ।।

हे रूद्र स्वरूपिणी ! तुम्हे नमस्कार । हे मधु दैत्य को मारने वाली ! तुम्हे नमस्कार है। कैटभ विनाशिनी को नमस्कार ।महिषासुर को मारने वाली तुमको नमस्कार है ।।१।।
शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मारने वाली  ! तुमको नमस्कार है । हे महादेवी ! मेरे जप को जाग्रत और सिद्ध करो ।।२।।
ऐंकार के रूप मे सृष्टि स्वरूपिणी, ह्रीं के रूप में सृष्टि पालन करने वाली, क्लीं के रूप में कामरूपिणि तथा समस्त ब्रह्माण्ड की बीजरूपिणी देवी तुमको प्रणाम है ।।३।।
चामुण्डा के रूप में चण्ड विनाशिनी और यैकार के रूप में तुम वरदान देने वाली हो । विच्चे के रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो तुम (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्च ) मंत्र का स्वरूप हो ।।४।।

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवी शां शीं शूं मे शुभं कुरू ।।५।।
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी ।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ।।६।।
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं ।
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ।।७।।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्र सिद्धि कुरुष्व मे ।।८।।
                 

                    (भावार्थ)

धां धीं धूं के रूप में धूर्जटी (शिव) की तुम पत्नी हो। वां वीं वूं के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो । क्रां क्रीं क्रूं के रूप में कालिका देवी हो । शां शीं शूं के रूप में मेरा कल्याण करो ।।५।।
हुं हुं हुंकार स्वरूपिणी , जं जं जं जम्भ नादिनी  , भ्रां भ्रीं भ्रूं के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी ! तुम्हें मै बार-बार प्रणाम ।।६।।
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं इन सबको तोडो और दीप्त करो, करो स्वाहा ।।७।।
पां पीं पूं के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो । खां खीं खूं के रूप मे तुम खेचरी हो। सां सीं सूं के रूप में तुम स्वरूपिणी सपूतशती देवी के मंत्र को मेरे लिए सिद्ध करो ।।८।।



इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे ।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वती ।।
यस्तु कुञ्जिकया देवी हीनां सप्शतीं पठेत ।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।।


                 (भावार्थ)

यह कुञ्जिकास्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिए है। इसे भक्तिहीन पुरूष को नहीं करना चाहिए । हे पार्वती ! इसे गुप्त रखो । हे देवी ! जो बिना कुञ्जिकास्तोत्र के सप्तशती का पाठ करता है,उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है।


 ● अथ सप्तश्लोकी दुर्गा


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