Saturday 22 February 2020

16 संस्कारों का विस्तृत वर्णन, (शुभ तिथि,वार,नक्षत्र,महत्व,विधि, लग्न-मुहूर्त)

16 संस्कारों का विस्तृत वर्णन,
(शुभ तिथि,वार,नक्षत्र,महत्व,विधि, लग्न-मुहूर्त)
Detailed description of 16 rites,
 (Auspicious date, war, constellation, significane, method, lagna-muhurta)



प्राचीन ऋषि मुनियों ने मानव जीवन को सुसंस्कारित बनाने के लिए जन्म से मृत्युपर्यन्त विधि पूर्वक (सोलह श्रृंगार) संस्कारों की व्यवस्था दी है।

महर्षि वेदव्यास जी ने कहा है--

ʼʼगर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। ʼʼ 

भारतीय संस्कारों की मान्यता प्राचीन है,जिसका पालन अतीत काल से अनवरत हो रहा है।(सोलह संस्कार श्लोक) संस्कार जीवन को परिष्कृत करते है,जीवन को नयी दिशा देकर दशा बदलते है। इसीलिए ऐसे संस्कारों को संपादित करने के लिए शुभ मुहूर्त और समय की आवश्यकता होती है। जिसके लिए ज्योतिष में मुहूर्त शास्त्र के अन्तर्गत प्रत्येक कार्य के लिए शुभ तिथी,वार,नक्षत्र बताए है।

16-संस्कारों का महत्व 
16-Importance of Rites


दोस्तों (सोलह श्रृंगार)संस्कारों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है,और इन्हीं संस्कारों से हमारी सभ्यता,संस्कृति,और आस्था बनी हुयी है। भले ही वर्तमान समय में लोगों की भावना विपरीत हो गयी है लेकिन ये संस्कार कभी लुप्त भी नही होने वाले है। प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था।(सोलह श्रृंगार का अर्थ) उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस (40) थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। लोगों की दिलचस्पी समाप्त होती गयी। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। महर्षि वेदव्यास जी ने स्मृति पुराण में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों (सोलह श्रृंगार) की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।हर संस्कारों की अपनी मान्यता है और शायद अब इससे कम होना सम्भव भी नहीं है।और अगर हो भी गये तो पूरे लुप्त हो जाएंगे।(सोलह श्रृंगार का अर्थ)
आइए जानते हैं अपने संस्कारों के बारे में विस्तार से, इन संस्कारों में जन्म से लेकर बाल्याकाल के (10)दश संस्कार तथा छः शैक्षणिक व अन्त्येष्टि पर्यन्त के संस्कार परिभाषित है। इस लेख का आधार वाणी भूषण पंचांग है।


16-संस्कारों की रूप-रेखा 
16-Rite Design

१- गर्भाधान             २- पुंसवन     
३- सीमान्तोन्नयन      ४- जातकर्म
५- नामकरण           ६- चूडाकर्म
७- निष्क्रमण           ८- अन्नप्राशन
९- कर्णवेध             १०- विद्यारम्भ
११- उपनयन          १२- वेदारम्भ
१३- केशान्त           १४- समावर्तन
१५- विवाह             १६- अन्त्येष्टि

1- गर्भाधान(Conception)

यह सबसे पहला संस्कार है,क्योंकि जीवन का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता है।

निषिक्तो यत्प्रयोगेण गर्भ संधार्यते स्त्रिया ।
तद्गर्भालम्भनं नामकर्म प्रोक्तं मनीषिभिः ।।

स्त्री पुरूष के संयोग रूपी इस संस्कार की विस्तृत विवेचना शास्त्रों में मिलती है। दिव्य संतति की प्राप्ति के लिए बनाये गये शास्त्रीय प्रयोग सफल होते है,व सन्तति निग्रह भी होता है। स्त्री रजोदर्शन होने के 16 दिन पर्यन्त गर्भधारण के योग्य रहती है।

रजोदर्शन से प्रथम चार दिनों को छोडकर सम दिनों में (६,८,१०,१२,१४,१६) में गर्भाधान पुत्रदायक व बिषम दिनों मे (५,७,९,११,१३,१५) कन्याप्रद होता है।

शुभ तिथि ----    १ (कृष्ण पक्ष)-२,३,५,७,१०,११,१२(दोनों पक्ष) १३ (शुक्ल पक्ष)

शुभ वार --- रवि,चन्द्र,बुध,गुरू,शुक्र

शुभ नक्षत्र---- ज्येष्ठ,मूल,मघा,रेवती को छोडकर शेष सभी नक्षत्र। 

लग्नशुद्धि ----   केन्द्र, त्रिकोण में शुभ ग्रह,३,६,११ मे पाप-ग्रह हों ।
लग्न पर पुरूष ग्रहों--- सूर्य,मंगल,गुरू,की दृष्टि हो। चन्द्रमा विषम राशि के नवांश में हों।


(2)-- पुंसवन( Pusvan)

गर्भाधारण का निश्चय हो जाने के बाद शिशु को पुंसवन नामक संस्कार के द्वारा अभिषिक्त किया जाता है। इसका अभिप्राय पुं-पुमान(पुरूष) का सवन (जन्म)हो।

पुमान प्रसूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम् ।
यह संस्कार तीसरे मास में किया जाता है।चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में स्थित होने पर करना चाहिए।  इस संस्कार में सामान्य गणेशार्चनादि करने के बाद गर्भिणी स्त्री की नासिका के दाहिने  छिद्र से गर्भ पोषण संरक्षण के लिए लक्ष्मणा ,वटशुंग,सहदेवी आदि औषधी का रस छोडा जाता है।

सुलक्षणा-वटशुङ्ग सहदेवी विश्वदेवानाभिमन्यनमय क्षीरेणाभिद्दुष्टय त्रिचतुरोवा विन्दून दद्यात दक्षिण नासापुटे ---सुश्रुत।

शुभ तिथि--- १(कृष्ण)२,३,५,७,१०,११,११ (दोनो पक्ष) १३(शुक्ल)

शुभवार--- रवि,मंगल,गुरू

ग्रह नक्षत्र--- पुरूष नक्षत्र (पुन.,पुष्य,हस्त,मृग,श्रवण)

लग्नशुद्धि---- पुरूष ग्रह का लग्न हो और शुभ ग्रह केन्द्र/त्रिकोण मेव पाप ग्रह  ३,६,११ में स्थित हो 


(3)--सीमन्तोन्नयन

( Marginal promotion)

गर्भ का तृतीय संस्कार सीमन्तोन्नयन है। इस संस्कार में गर्भिणी स्त्री के केशों को ऊपर करना होता है। यह संस्कार गर्भावस्था के छठे या आठवें मास में किया जाता है।जिसमें उस मास का स्वामी बली हो। यह संस्कार प्रथम गर्भ में किया जाता है,क्योंकि इसके बाद के गर्भों में इसके करने की आवश्यकता नहीं होती है।

           गर्भ मासों के स्वामी
 मास | १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० |
स्वामी | शुक्र | मंगल | गुरू | सूर्य | चंद्र | शनि | बुध | गर्भाधान लग्नेश | चन्द्र | सूर्य |

शुभ मास ---  गर्भाधान से छटा या आठवाँ मास ।

शुभ तिथि ---- १ (कृष्ण) २,३,५,७,१०,११(दोनों पक्ष)                            १३ (शुक्ल)

शुभ वार----
रवि,मंगल,गुरू ।

शुभ नक्षत्र--- पुन,पुष्य,हस्त,मृग,श्रवण ।

शुभ लग्न---- पुरूष ग्रह का लग्न हो और शुभ ग्रह केन्द्र/त्रिकोण में व पापग्रह ३,६,११ में स्थित हो।


4- जातकर्म
    Castration

यह संस्कार जातक के जन्म के तुरन्त बाद किया जाता है। इस संस्कार में पिता स्वर्णशलाका या अपनी अनामिका अंगुली से जातक की जीभ पर मधु व घृत महाव्याहृतियों के उच्चारण के साथ चढावे । गायत्री  मंत्र  के साथ ही घृत बिन्दु छोडा जाए । आयुर्वेद ग्रन्थों में जातकर्म विधि का विधान है। कि पिता बच्चे के मन में दीर्घायुष्य मंत्रों का जाप करें।
इस अवसर पर ही जन्मपत्री आदि बनवाकर बालक के ग्रह -नक्षत्रों के द्वारा उसके जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है। तदनुसार भावी संस्कारो को भी निश्चित किया जाता है।
यह संस्कार कहीं-कहीं ११ वें या १२ वें दिन भी किया जाता है।

शुभ तिथि---  १(कृष्ण) २,३,५७,१०,१११२(दोनों पक्ष)१३(शुक्ल)

शुभवार----  चन्द्र, बुध,शुक्र।

शुभ नक्षत्र---- अश्,रोह,मृग,पुन,पुष्य,तीनों उत्तरा,हस्त,चित्रा,स्वाति, अ,श्रवण,धनि,श,रेवती।

प्रसूता स्नान (बालक का स्नान)
Maternity bath

जातक की माता को प्रसव के सात दिन बाद स्नान करना चाहिए।

शुभ तिथि---- १(कृष्ण) २,३,५,७,१०,११,(दोनों पक्ष)

शुभ वार---सूर्य,मंगल,गुरू। 

शुभ नक्षत्र--- अ,रो,मग,तीनों उत्तरा-ह,स्वा,अनु,रेवती।


5- नामकरण संस्कार
Naming ceremony


नामकरण एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार है। जीवन में व्यहार का सम्पूर्ण आधार नाम पर ही निर्भर है।
कहा भी गया है----
नामखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः ।
नाम्नैव कीर्ति लभेत मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म ।।

व्यक्ति संज्ञा का जीवन में सर्वोपरि महत्व है।
प्रायः बालक का नाम सम अक्षरों में रखना चाहिए। व्यवहारिकषनाम दो ,चार,या छः अक्षर का उत्तम होता है। यश एवं मान प्रतिष्ठा के लिए दो,अक्षर,ब्रह्मचर्य तप- पुष्टि की कामना के लिए ४ अक्षर का नाम श्रेष्ठ होता है।
बालक का नाम बिषम अक्षर वाला न हो तो अच्छा है। किन्तु बालिकाओं का नाम बिषम अक्षर वाला श्रेष्ठ माना गया है। नक्षत्र, नदी,वृक्ष,सर्प ,पक्षी ,सेवक सम्बन्धि एवं भयभीत करने वाले नाम न रखे जाए तो अच्छा है। नामकरण पिता या कुलश्रेष्ठ व्यक्ति द्वारा ही होना चाहिए।

यह संस्कार ११ वें या १२ वें दिन पूर्वान्ह मे करने का शास्त्र  है।

 सूतक समाप्ति के बाद देशकाल के अनुसार १०,१२,१६,१९,२२वें दिन नामकरण करना चाहिए।

शुभ तिथि--- १,२,३,७,१०,११,१३

शुभ वार--- चन्द्र, बुद्ध,गुरू,शुक्र। 

शुभ नक्षत्र--- अश्विनी,,रो,मृ,पुन,ह,चि,स्वाति,अनु,श्र, ध,शत,रेवति

शुभ लग्न--- केन्द्र/त्रिकोण में शुभ ग्रह और ३,६,११स्थानों में पापग्रह होने चाहिए। 
लग्न ,अष्टम व द्वादश भाव शुद्ध हो।

नामकरण विधि--- 
Naming method

सामान्य गणेशादि पूजन संक्षिप्त व्याह्रतियों से हवन सम्पन्न करके कांस्य पात्र में चावल फैलाकर पांच पीपल के पत्तों पर पांच नामों का उल्लेख करते हुए उनका पंचोपचार पूजन करें माता की गोद में पूर्वाभिमुख बालक के दाहिने कान में घर के श्रेष्ठ पुरूष द्वारा पूजित नामों में से निर्धारित नाम सुनाएं।

6- वेदारम्भ
Altar


ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।


7- कर्ण-वेध मुहूर्त
वैज्ञानिक महत्व -- 

आभूषण धारण व वैज्ञानिक रूप कर्ण-छेदन का महत्व होने के कारण इस प्रक्रिया को संस्कार रूप में स्वीकारा गया होगा ।सुश्रुत ने कहा है कि कर्ण-छेद करने से अण्डकोश वृद्धि,अन्न वृद्धि आदि  होता है

कहा गया है कि---
शंङ्खोपरि च कर्णान्ते त्यक्त्वा यत्नेन सेवनीयम ।
त्यत्यासाद्वा शिरां विध्येद अन्नवृद्धि निवृतये ।।

शिशु के जन्म से १२ या १६ वें दिन  तथा ६,७,८ मास या विषम वर्षो में कर्णवेध करना चाहिए। चैत्र,पौष,हरिशयन काल तथा जन्ममास ,जन्मनक्षत्र ,जन्मतारा मे कर्णवेध निषिद्ध है।

शुभ तिथि---   २,३,५,७,१०,१२,१३,शुक्ल पक्ष

शुभ वार---    चन्द्र,बुध,गुरू,शुक्र,।

शुभ नक्षत्र--  अश्विन,मृग,पुन,पुष्य,हस्त,चित्रा, अनु,श्रव,धनि,रेवती।

शुभ लग्न---   शुभ ग्रह केन्द्र/त्रिकोण  मे व पाप ग्रह ३,६,११ स्थानों में हो। वृष,मिथुन,कर्क,कन्या,तुला,धनु,मीन,लग्न, श्रेष्ठशहै। लग्न में गुरू व अषाटम ग्रह रहित हो।


8- समावर्तन
Inclusion


गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।


9- चूडाकर्म मुहूर्त 

चूडा कर्म जातक की गर्भजन्य अशुद्धियों को दूर करने वाला संस्कार है। इस संस्कार को तीसरे या पांचवें वर्ष में करना श्रेष्ठ होता है। यह संस्कार बालक के जन्म से ३,५,७ वर्ष  में किया जाता है।
चैत्र को छोडकर शेष उत्तरायण के सूर्य में करना श्रेष्ठ है।

शुभ तिथि --- १(कृष्ण),२,३,५,७,१०,११,(दोनो पक्ष) १३(शुक्ल)

कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से तीन दिन १३,१४,३० त्याज्य है।

शुभ वार--- 
ब्रह्मणों के लिए रविवार
क्षत्रियों के लिए मंगलवार 
वैश्यों व शूद्रों के लिए शनिवार श्रेष्ठ है।

शुभ नक्षत्र--- अश्विन,मृग,पुन,पुष्य, हस्त ,चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठ,श्रव,धनि,शत,रेवती,।

शुभ लग्न--- शुभ ग्रह केन्द्र/त्रिकोण  मे व पाप ग्रह ३,६,११,स्थानों  में हो।
वृष,मिथुन, कर्क, कन्या, धनु, मीन, लग्न श्रेष्ठ है। 
लग्न मेगुरू व अष्टम भाव स्थान ग्रह रहित हो,जन्म लग्न व जन्म राशि से आठवीं राशि लग्न मे हो।

11- विवाहmarriage

प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।

11- अन्त्येष्टि
Funeral


अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।

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