Sunday 29 March 2020

श्रीमद्भगवद्गीता एवं उपनिषदों की शिक्षाप्रद महत्वपूर्ण सूक्तियां,सुविचार व अनमोल वचन

श्रीमद्भगवद्गीता एवं उपनिषदों की शिक्षाप्रद महत्वपूर्ण सूक्तियां,सुविचार व अनमोल वचन 
Shrimad Bhagavadgita and the teaching of the Upanishads, important points, good thoughts and precious words.


दोस्तों संस्कृत भाषा भारत ही नहीं  विश्व की प्राचीनतम भाषा होने के साथ ही सभी भाषाओं की जननी है।Sanskrit sloks with meaning in hindi  संस्कृत भाषा में पग-पग पर विश्व कल्याण और मानवता का पाठ पढ़ाने वाले श्रेष्ठ वाक्यांश समाहित है। व्यक्ति के मार्गदर्शन के लिए तथा सभी पक्षों के विकस के लिए (संस्कृत श्लोक,संस्कृत में सूक्तियां, संस्कृत में सुविचार,सुभाषितानी) आदि कयी ऐसे महान विचार हमारे ग्रंथों से लिये गये है। अत: इसी प्रकार संस्कृत श्लोक ज्ञानवर्धक और शिक्षा प्रद कथनों को इस "संस्कृत सुभाषितानि" में हिन्दी अर्थ, संस्कृत भावार्थ सहित समाहित करने का छोटा सा प्रयास किया गया है।Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।

good thoughts of Bhagavadgita

1- समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरं ॥  
अर्थ--  समस्त भूतों में समभाव से स्थित परमेश्वर को देखता

2- शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ 
अर्थ--  हे कौन्तेय ! वह शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है और न ही किसी कर्म से लिप्त होता है ।

3-  विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ 
अर्थ--  एक अंश द्वारा इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त कर मैं स्थित

4-  वासुदेवः सर्वमिति ॥ 
अर्थ--  यह सब वासुदेव ही है ।

5-  यं यं वाऽपि स्मरन्भावं तयजत्यन्ते कलेवरम् तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥ 
अर्थ--  हे कौन्तेय ! अन्त में मनुष्य जिस - जिस भाव को स्मरण करता हुआ देह त्यागता है , सदा उसी भाव से भावित होकर उस - उस को ही प्राप्त होता है ।

6-  यद्यविभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽश संभवम् ॥ 
अर्थ--  जो कुछ भी ऐश्वर्यशाली तथा कान्तियुक्त तथा उत्कृष्ट वस्तु है , उन सभी को तम मेरे तेजस अंश से ही उत्पन्न समझो ।

7-  यदादित्यगतं तेजो जगदभासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसियच्चाग्नौ तत्तोजोविद्धिमामकम् ॥ 

8-  यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतऽर्जुन । ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ 
अर्थ--  हे अर्जुन ! जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईंधन को जलाकर भस्म कर देती है , उसी तरह ज्ञान सम्पर्ण कर्मों को निर्बीज कर देता है ।

9-  यच्चन्द्रमसि यच्चग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ 
अर्थ-- जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है ; उसे तुम मेरा ही तेज समझो ।

10-  ममैवांशो जीवलोके जीवभूत : सनातनः ॥ 
अर्थ- इस जीवलोक में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है ।

11-  नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः । । 
अर्थ--  यह आत्मा नित्य , सर्वगत , स्थाणु , अचल और सनातन

12-  नहि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात गच्छति ॥ 
अर्थ--  हे तात ! कोई भी कल्याणकृत कुत्सित गति को नहीं प्राप्त होता है ।

13-  न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा

14-  क्षोत्रज्ञं चापि मां विद्धि ॥ 
अर्थ--  हे अर्जुन ! क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही समझो ।

15-  एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्थात् कृतकृत्यश्च भारत ॥ 
अर्थ-- हे अर्जुन ! इस गुह्यतम तत्व को जानकर ज्ञानीपुरुष कृतकृत्य हो जाता है ।

16-  अहमादिहि देवानों महर्षीणां च सर्वशः।।
अर्थ--  हे अर्जन ! मैं सब प्रकार से देवताओं तथा महर्षियों का आदि कारण हूँ ।

17- अहं कृत्सनस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्ता नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा । । 
अर्थ--  हे अर्जुन ! म सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति तथा प्रलय हूं ।

18-  अविकार्योऽयमुच्यते । ।
अर्थ-  यह आत्मा अविकार्य कहा जाता है ।

19-  अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम ।।
अर्थ--  प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी म करने वाला योगी पिछले अनेक जन्मों के संस्कार वश सम्पूर्ण पापों से रहित होकर तत्काल परमगति को प्राप्त हो जाता है।

अन्य उपनिषद की सूक्तियां मुण्डकोपनिषद्  

20- अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते ॥ 
अर्थ--  जिस परा विद्या से उस अक्षर अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान होता है । 

21-  अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रः ॥ 
अर्थ-  यह पुरुष प्राणरहित , मनरहित तथा शुद्ध है ।

22-  एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः ॥ 
अर्थ--  यह आत्मा अणु ( सूक्ष्म ) है , विशुद्ध है तथा ज्ञान द्वारा जानने योग्य है ।

23-  कर्तारमीरां पुरुषं ब्रह्मयोनिम् ॥ 
अर्थ--  ब्रह्म के भी उत्पतिस्थान उस जगत् के कारक ईश्वर पुरुष को देखता है ।

24-  ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निश्कलं ध्यायमानः ॥ 
अर्थ--  ज्ञानलाभ से पुरुष विशुद्धचित्त वाला हो जाता है , तभी वह ध्यान करते हुए उस निष्कल आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है ।

25-  क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ 
अर्थ-  उस परावर ब्रह्म से साक्षात्कार हो जाने पर इसके कर्म क्षीण हो जाते हैं ।

26-  तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ 
अर्थ-  उसी प्रकार विद्वान नामरूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है ।

27-  तमेवभान्तमनु सर्वं तस्य भाषा सर्वमिदं विभाति ।।
अर्थ--  उस ब्रह्म के प्रकाशित होने पर ही सभी प्रकाशित होते हैं । उसके प्रकाश से ये सब आदित्यादि प्रकाशित होते हैं ।

28- तयोरन्यः पिप्पलं स्वाइत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।।
अर्थ--  उसमें से एक तो स्वादिष्ट कर्मफल को भोगता है तथा दूसरा तटस्थभाव से साक्षीरूप से प्रकाशित होता है ।

29- तेषमेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवद्यैस्तु चीर्णम् ॥ 
अर्थ--  जिसने विधिवत् शिरोव्रत का अनुष्ठान किया है , उसे ही इस ब्रह्म विद्या का उपदेश देना चाहिए ।

30-  दिव्यो ह्यमूर्त पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरों ह्याजः । अप्राणो ह्यमना : शुभ्रः ॥ 
अर्थ--  वह अक्षर ब्रह्म निश्चय ही दिव्य , अमूर्त , पुरूष , बाहर अन्दर विद्यमान , अजन्मा , अप्राण , मनरहित , विशुद्ध तथा श्रेष्ठ अक्षर से भी उत्कृष्ट है ।

31- न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ 
अर्थ --  वहाँ उस आत्मस्वरूप ब्रह्म में न तो सूर्य प्रकाशमान होता है , न चन्द्रमा और तारे ही प्रकाशित होते हैं । वहाँ यह बिजली भी प्रकाशित नहीं होती , फिर यह लगातार दृष्टि में आनेवाली अग्नि किस गिनती में है ? उसके प्रकाशित होने से ही यह सब कुछ प्रकाशित होता है ।

32-  पुरुष एवेदं विश्वं कर्म ॥ 
अर्थ--  यह समाप्त कर्म एवं प्रपञ्च पुरुष ही है ।

33-  परात्परं पुरुष मुपैति दिव्यम् ॥ 
अर्थ--  परात्पर दिव्यपुरुष को प्राप्त हो जाता है ।

34-  पुण्य पापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति । । 
अर्थ--  विद्वान पुरुष पुण्य एवं पाप दोनों का परित्याग कर निर्मलचित्त होकर ब्रह्म के परमसाम्य को प्राप्त हो जाता है।

35-  प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ।।
अर्थात--  हृदय में स्थित प्राण अपने स्थान में सात - सात स्थापित है।

36-  ब्रह्मैवेदमृत पुरस्तात् । । 
अर्थ--  यह अमृत ब्रह्म ही अग्रणी है । ।

37- ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति ।।
अर्थात--  ब्रह्म का जानकार ब्रह्म ही होता है । ।

38-  यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति ।।
अर्थ--  जैसे पृथ्वी में औषधियाँ उत्पन्न होती हैं ।

39- यद्भूत योनि परिपश्यन्ति धीराः
अर्थ--  जो सम्पूर्ण भूतों का कारण है , उसे विवेकशील लोग सब ओर देखते है।

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