हिन्दी साहित्य लेखकों की महत्वपूर्ण (280) प्रसिद्ध पंक्तियाँ, सुविचार,अनमोल वचन व नारे
280- Important famous lines, good thoughts, precious words and slogans of Hindi literature writers
नमस्ते दोस्तों गर्व है हमें कि हम भारतीय है और गर्व है हमे अपनी मातृभाषा हिन्दी पर हिंदी के उन्नयन की दिशा में कार्य करने के लिए हम सभी को प्रयास करने की जरूरत है। हम सब जानते हैं कि हिंदी भाषा विश्व में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अंतर्गत 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी भाषा को भारत की राजभाषा घोषित किया गया है। अतः 14 सितम्बर प्रत्येक वर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हिन्दी साहित्य में अनेकों ऐसे कवि है जिनकी रचनाओं, लेखो,नाटकों, निबन्धो से इसकी गरिमा अत्यधिक शीर्ष चरम सीमा पर है, लेकिन विडंबना है कि स्वतंत्रता के 70 वर्षों पश्चात भी हिंदी का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। हिंदी जैसी प्रतिष्ठित और वैज्ञानिक भाषा को यथोचित सम्मान दिलाना समय की मांग है। जो ज्ञान हिन्दी मे नित है वह ज्ञान अन्य भाषाओं में शायद देखने को मुखातिब न हो।
अतएव हिंदी भाषा और साहित्य को रुचिकर बनाने, भारत की बोलियों, लोकप्रिय क्षेत्रीय भाषाओँ और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओँ से समन्वय स्थापित करने तथा वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषा को प्रतिष्ठित करने हेतु हिंदी विकास मंच की स्थापना की गयी है। और हमारा भी यही प्रयास है कि हम अपनी भाषा को प्रथम स्थान दिला सके।
हमारे हिन्दी साहित्य मे लेखकों के अनेकों ऐसे तथ्य,अनमोल वचन, सूक्तियां, लेख है जिनको पढने मात्र से हमारे विकाश मे सहायक होते है, और जो हमें कर्तव्य निष्ठ, संस्कारवान, तथा सभ्य बनाने मे मदत करती है। और यही हमारी मातृभाषा हिन्दी का उद्देश्य है। जिसे हमने साकार करना है।
आप के लिए हम लेकर आए है। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न, ctet,utet,upet,b.ed,ssc,ugc net.uset.समूह ग,आदि के अति महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर जो हर परीक्षाओं में सफलता दिलाने के लिए महत्वपूर्ण है हिन्दी वाले प्रश्न हिन्दी व्याकरण से सम्बन्धित अन्य भी लेख है, इस ब्लॉग पर हिन्दी व्याकरण रस,और सन्धि प्रकरण, तथा हिन्दी अलंकारMotivational Quotes, Best Shayari, WhatsApp Status in Hindi के साथ-साथ और भी कई प्रकार के Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानी, सफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ ।
महत्वपूर्ण नारे-(Important slogans
1- आराम हराम है-
पंण्डित जवाहर लाल नेहरू
2- करो या मरो- महात्मा गांधी
3- स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है-
बाल गंगाधर तिलक
4- सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है- राम प्रसाद बिस्मिल
5- जय जवान जय किसान-लाल बहादुर शास्त्री
6-वन्दे मातरम- बंकिमचंद्र चटर्जी
7- जन गण मन अधिनायक जय हे-रविंन्द्र नाथ टैगोर
8- विजयी विश्व तिरंगा प्यारा- श्याम लाल गुप्ता
9- वेदों के ओर लौटो- दयानंद सरस्वती
10- सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्ता हमारा- इकबाल
11- मारो फिरंगी को- मंगल पांडे
12- साइमन कमीशन वापस जाओ- लाला लाजपत राय
लेखकों की महत्वपूर्ण प्रसिद्ध पंक्तियां
Important well-known lines of authors
1- बड़ी कठिन है डगर पनघट की ( कव्वाली )
-- अमीर खुसरो
2- छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके ( पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली )
-- अमीर खुसरो
3- एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धरा / चारो ओर वह थाल फिरे , मोती उससे एक न गिरे ( पहेली )
-- अमीर खुसरो
4- नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है / फंसत अमावस गोरी के फंदा हे सखि साजन , ना सखि , चंदा ( मुकरी / कहमुकरनी )
-- अमीर खुसरो
5- खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय । । आया कुत्ता खा गया , तू बैठी ढोल बजाय । ला पानी पिला । ( ढकोसला )
-- अमीर खुसरो
6- जेहाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ ; के ताब - ए - हिज्रा न दारम - ए - जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।
अर्थ - प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह , नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते ( फारसी - हिन्दी मिश्रित गजल)
-- अमीर खुसरो
7- गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस / चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ( अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर )
--अमीर खुसरो
8- खुसरो दरिया प्रेम का , उल्टी वाकी धार । मनमा का जो उबरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार ।
-- अमीर खुसरो
9- खुसरो पाती प्रेम की , बिरला बांचे कोय । वेद करआन पोथी पढ़े , बिना प्रेम का होय ।
-- अमीर खुसरो
10- खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग । तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग ।
-- अमीर खुसरो
11- तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब ( अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ , हिन्दवी में जवाब देता हूँ । )
-- अमीर खुसरो
12- बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार / बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार ।
– जगनिक
13- भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु / लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु ।
भावार्थ- अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया ; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं ( सहेलियों ) के सम्मुख लज्जित होती । )
- हेमचंद्र
14- बालचंद विज्जवि भाषा / दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा ।
भावार्थ- जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा ; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते )
- विद्यापति
15- षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया ।
भावार्थ- मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है )
- चंदबरदाई
16- मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था ' ( संस्कृत साहित्य के संबंध में )
- अमीर खुसरो
17- पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ / देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ ।
भावार्थ- पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध ( ब्रह्म ) को नहीं जानते ।
- सरहपा
18- जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे ।
भावार्थ- जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है ।
- गोरखनाथ
19- गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा , वहाँ अमृत का बासा / सगुरा होइ सु भरि - भरि पीवै , निगुरा जाइ पियासा ।
-- गोरखनाथ
20- काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे ( गीत )
- अमीर खुसरो
21- प्राइव मुणिहै वि भंतडी ते मणिअडा गणंति / अखइ निरामइ परम - पइ अज्जवि लउ न लहंति ।
भावार्थ- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है , वे मनका गिनते हैं । अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते ।
-- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
22- पिय - संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम / मइँ विन्निवि विन्नासिया निद्द न एम्ब न तेम्ब ।
भावार्थ- प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में ( सामने न रहने पर ) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों , न त्यों ।
-- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
23- जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु / तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु ।
भावार्थ- जो अपना गुण छिपाए , दूसरे का प्रकट करे , कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ ।
-- हेमचन्द्र ( प्राकृत व्याकरण )
24- माधव हम परिनाम निरासा ।
-- विद्यापति
25- कनक कदलिं पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने ।
-- विद्यापति
26- जाहि मन पवन न संचरई ।
रवि ससि नहीं पवेस ।
-- सरहपा
27- अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया ।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया ।।
- गोरखनाथ
28- पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज ।
-- चंदबरदाई
29- मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय ।
-- चंदबरदाई
30- राम सो बड़ो है कौन , मोसो कौन छोटो ?
राम सो खरो है कौन , मोसो कौन खोटो ।
-- तुलसीदास
31- प्रभुजी तुम चंदन हम पानी ।
-- रैदास
32- सुखिया सब संसार है खावे अरु सोवे ,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै ।
-- कबीरदास
33- नारी नसावे तीन गुन , जो नर पासे होय ।
भक्ति मुक्ति नित ध्यान में , पैठि सकै नहीं कोय ।।
-- कबीरदास
34- ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , ये सब है तारन के आधिकारी ।
-- तुलसीदास
35-- पांणी ही तैं हिम भया , हिम हवै गया बिलाई ।
जो कुछ था सोई भया , अब कछू कह्या न जाइ ।।
-- कबीरदास
36- एक जोति थें सब उपजा , कौन ब्राह्मण कौन सूदा ।
— कबीरदास
37- एक कहै तो है नहीं , दोइ कहै तो गारी ।
है जैसा तैसा रहे कहे कबीर उचारि ।।
-- कबीरदास
38 - सतगुरु है रंगरेज मन की चुनरी रंग डारी ।
-- कबीरदास
39 - संसकिरत ( संस्कृत ) है कूप जल भाषा बहता नीर ।
— कबीरदास
40- अवधु मेरा मन मतवारा ।
गुड़ करि ज्ञान , ध्यान करि महुआ , पीवै पीवनहारा ।।
-- कबीरदास
41- पंडित मुल्ला जो कह दिया । झाड़ि चले हम कुछ नहीं लिया ।।
-- कबीरदास
42- पंडित वाद वदन्ते झूठा ।
-- कबीरदास
43- पठत - पठत किते दिन बीते गति एको नहीं जानि ।
— कबीरदास
44- मैं कहता हूँ आँखिन देखी / तू कहता है कागद लेखी ।
-- कबीरदास
45-- गंगा में नहाये कहो को नर तरिए ।
मछिरी न तरि जाको पानी में घर है ।।
-- कबीरदास
46- कंकड़ पाथड़ जोड़ि के मस्जिद लिये बनाय ।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय । ।
-- कबीरदास
47-- जो तू बाभन बाभनि जाया तो आन बाट काहे न आया ।
जो तू तुरक तुरकनि जाया तो भीतर खतना क्यों न कराया ।।
-- कबीरदास
48 - हिन्दु तुरक का कर्ता एके , ता गति लखि न जाय ।
-- कबीरदास
49 - हिन्दुअन की हिन्दुआइ देखी , तुरकन की तुरकाइ अरे इन दोऊ कहीं राह न पाई ।
-- कबीरदास
50- जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का , पड़ा रहने दो म्यान ।।
-- कबीरदास
51 - जात भी ओछी , करम भी ओछा , ओछा करब करम हमारा । नीचे से फिर ऊंचा कीन्हा , कह रैदास खलास चमारा ।।
-- रैदास
52- झिलमिल झगरा झूलते बाकी रहु न काहु ।
गोरख अटके कालपुर कौन कहाचे साधु ।।
-- कबीरदास
53-- दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना , राम नाम का मरम है आना ।
--कबीरदास
54 - शूरा सोइ ( सती ) सराहिए जो लड़े धनी के हेत ।
पुर्जा - पुर्जा कटि पडै तौ ना छाड़े खेत ।।
--कबीरदास
55 - आगा जो लागा नीर में कादो जरिया झारि ।
उत्तर दक्षिण के पंडिता , मुए विचारि विचारि ।।
--कबीरदास
56- संतन को कहा सीकरी सो काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी , बिसरि गयो हरिनाम ।
जिनको मुख देखे दुख उपजत , तिनको करिबे परी सलाम ।
-- कुंभनदास
57- नाहिन रहियो मन में ठौर नंद नंदन अक्षत कैसे आनिअ उर और ।
-- सूरदास
58- हऊं तो चाकर राम के पटी लिखौ दरबार ,
अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसबदार ।
-- तुलसीदास
59- आँखड़ियाँ झाँई पड़ी , पंथ निहारि - निहारि जीभड़ियाँ झाला पड़याँ , राम पुकारि पुकारि ।
-- कबीरदास
60- तीरथ बरत न करौ अंदेशा । तुम्हारे चरन कमल मतेसा ।।
जह तह जाओ तुम्हारी पूजा । तुमसा देव और नहीं दूजा ।।
-- जायसी
61- तलफत रहति मीन चातक ज्यों , जल बिनु तृषानु छीजे अँखियां हरि दर्शन की भूखी ।
-- सूरदास
62- हेरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोई ।
-- मीरा
63- एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास ।
एक राम घनश्याम हित , चातक तुलसीदास ।
-- तुलसीदास
64- गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाई ।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताई ।।
-- कबीरदास
65- पाँड़े कौन कुमति तोहि लागे , कसरे मुल्ला बाँग नेवाजा ।
-- कबीरदास
66- बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर ।।
-- तुलसीदास
67- राम नांव ततसार है ।।
-- कबीरदास
68- कबीर सुमिरण सार है और सकल जंजाल ।
-- कबीरदास
69-- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई ।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई ।।
--कबीरदास
70- आयो घोष बड़ो व्यापारी ।
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी ।
-- सरदास
71- मूक होई वाचाल , पंगु चढई गिरिवर गहन ।
जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कली मल दहन ।।
-- तुलसीदास
72- सिया राममय सब जग जानी , करऊ प्रणाम जोरि जुग पानि ।
-- तुलसीदास
73- जांति - पांति पूछ नहीं कोई , हरि को भजै सो हरि का होई ।
-- रामानंद
74-- साईं के सब जीव है कीरी कुंजर दोय ।
सब घाट साईयां सूनी सेज न कोय ।
-- कबीरदास
75- मैं राम का कुता मोतिया मेरा नाम ।
-- कबीरदास
76- जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज कवि शेली की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का ।
-- आचार्य राम चन्द्र शुक्ल
77- गोपियों का वियोग - वर्णन , वर्णन के लिए ही है उसमें रिस्थितियों का अनुरोध नहीं है । राधा या गोपियों के विरह वह तीव्रता और गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक जन में बैठी सीता के विरह में है ।
--- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
78- अति मलीन वृषभानु कुमारी ।
छूटे चिहुर वदन कुभिलाने , ज्यों नलिनी हिमकर की मारी ।
-- सूरदास
79- सास कहे ननद खिजाये राणा रह्यो रिसाय पहरा राखियो ,
चौकी बिठायो , तालो दियो जराय ।
-- मीरा
80-- संतन ठीग बैठि-बैठि लोक लाज खोई ।
-- मीरा
81- या लकुटि अरु कंवरिया पर ।
राज तिहु पुर का ताज डारा ।
-- रसखान
82- काग के भाग को का कहिये , हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी ।
- रसखान
83- मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के ग्वारन ।
-- रसखान
84- ' जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का । वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र हैं ।
- आचार्य शुक्ल
85- रचि महेश निज मानस राखा पाई सुसमय शिवासन भाखा ।
-- तुलसीदास
86- मंगल भवन अमंगल हारी द्रवहु सुदशरथ अजिर बिहारी ।
- तुलसीदास
87- सबहिं नचावत राम गोसाईं हि नचावत तुलसी गोसाई ।
-- फादर कामिल बुल्के
88- हे खग, हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तुने देखी सीता मृगनयनी ।
-- तुलसीदास
89- पूजिए विप्र शील गण हीना . शूद्र न गण गन ज्ञान प्रवीना ।
-- तुलसीदास
90- छिति,जल , पावक , गगन , समीरा ।
-- तुलसीदास
91- कत विधि सृजी नारी जग माहीं , पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ।
-- तुलसीदास
92- गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग । ( कवितावली )
-- तुलसीदास
93- गुपुत रहहु , कोऊ लखय न पावे , परगट भये कछ हाथ आवे ।
गुपुत रहे तेई जाई पहुँचे , परगट नीचे गए विगुचे ।।
- उसमान
94- पहले प्रीत गुरु से कीजै , प्रेम बाट में तब पग दीजै ।
--उसमान
95- रवि ससि नखत दियहि ओहि जोती . रतन पदारथ माणिक मोती । जहँ तहँ विहसि सुभावहि हँसी ।
तहँ जहँ छिटकी जोति परगसी ॥
- जायसी
96- बसहि पक्षी बोलहि बहुभाखा , करहि हुलास देखिके शाखा ।
- जायसी
97- तन चितउर , मन राजा कीन्हा ।
हिय सिंघल , बुधि पदमिनी चीन्हा । ।
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा ।
बिनु गुरु जगत को निरगुण पावा ।।
नागमती यह दुनिया धंधा ।
बांचा सोई न एहि चित्त बंधा ।।
राघव दूत सोई सैतान ।
माया अलाउदी सुल्तान ।।
-- जायसी
98- जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न घरानि ।
तेहि वन होई सुअरा बसा , को रे मिलावे आनि ।।
- जायसी
99- मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी नाहि त काह छार भरि मूठि
भावार्थ
प्रेम ही मनुष्य के जीवन का चरम मूल्य है , जिसे पाकर मनुष्य बैकुंठी हो जाता है , अन्यथा वह एक मुट्ठी राख नहीं तो और क्या है ? )
— जायसी
100- छार उठाइ लीन्हि एक मुठी . दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी ।
- जायसी
101- सोलह सहस्त्र पीर तनु एकै , राधा जीव सब देह ।
-- सूरदास
102- पुख नछत्र सिर ऊपर आवा ।
हौं बिनु नाँह मंदिर को छावा ।
बरिसै मघा अँकोरि सँकोरि ।
मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी ।
-- जायसी
103- पिउ सो कहहू संदेसड़ा हे भौंरा हे काग ।
सो धनि बिरहें जरि मुई तेहिक धुंआ हम लाग ।।
— जायसी
104- जसोदा हरि पालने झुलावे / सोवत जानि मौन है रहि करि करि सैन बतावे / इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि , जसुमती मधुरै गावे ।
-- सूरदास
105- सिखवत चलत जसोदा मैया अरबराय करि पानि गहावत डगमगाय धरनी धरि पैंया ।
-- सूरदास
106- मैया हौं न चरैहों गाय ।
-- सूरदास
107- मैया री मोहिं माखन भावे ।
-- सूरदास
108- मैया कबहि बढेगी चोटी।
-- सूरदास
109- अखिल विश्व यह मोर उपाया सब पर मोहि बराबर माया ।
-- तुलसीदास
110- काह कहीं छवि आजुकि भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक तव नवै धरो धनुष शर हाथ ।।
-- तुलसीदास
111- सब मम प्रिय सब मम उपजायेगा सबते अधिक मनुज मोहिं भावे ।
-- तुलसीदास
112- मेरी न जात पाँत , न चहौ काहू की जात - पाँत ।
--- तुलसीदास
113- सुन रे मानुष भाई ,
सबार ऊपर मानुष सत्य ताहार ऊपर किछ नाई ।
-- चण्डी दास
114- बड़ा भाग मानुष तन पावा ,
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा ।
-- तुलसीदास ।
115- हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है । यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं ।
--- रामचन्द्र शुक्ल
116- जनकसुता , जगजननि जानकी । अतिसय प्रिय करुणानिधान की ।
-- तुलसीदास
117- तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही ।
-- तुलसीदास
118- अंसुवन जल सींचि - सींचि , प्रेम बेल बोई ।
-- मीरा
119- सावन माँ उमग्यो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री ।
-- मीरा
120- घायलं की गति घायल जानै और न जानै कोई ।
-- मीरा
121- मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं ,
गुंज की माल गरे पहिरौंगी ।
ओढ़ि पिताबंर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी ।
भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी ।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी ।
-- रसखान
122- जब जब होइ धरम की हानी ।
बढहिं असुर महा अभिमानी ।।
तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा ।
हरहिं सकल सज्जन भवपीरा ।।
-- तुलसीदास
123- समूचे भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है । इसी का नाम भक्ति साहित्य है । यह एक नई दुनिया है ।
-- हजारी प्रसाद द्विवेदी
124- जब मैं था तब हरि नहीं ,
अब हरि हैं मैं नाहिं ।
प्रेम गली अती सांकरी ,
ता में दो न समाहि ।।
-- कबीरदास
125- मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
--सूरदास
126- भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो ।
-- सूरदास
127- धुनि ग्रमे उत्पन्नो , दादू योगेंद्रा महामुनि ।
-- रज्जब
128- सब ते भले विमूढ़ जन , जिन्हें न व्यापै जगत गति ।
-- तुलसीदास
129- संत हृदय नवनीत समाना ।
-- तुलसीदास
130- रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा देख ।
— कबीरदास
131- निर्गुण रूप सुलभ अति , सगुन जान नहिं कोई ।
सुगम अगम नाना चरित , सुनि मुनि - मन भ्रम होई ।।
--- तुलसीदास
132- स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ।।
-- तुलसीदास
133- दीरघ दोहा अरथ के , आखर थोरे मांहि ।
ज्यों रहीम नटकुंडली , सिमिट कूदि चलि जांहि ।।
-- रहीम
134- प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइए ।
-- सूरदास
135- तब लग ही जीबो भला देबौ होय न धीम ।
जन में रहिबो कुंचित गति उचित न होय रहीम ।।
-- रहीम
136- सेस महेस गनेस दिनेस ,
सुरेसहुँ जाहि निरंतर गावैं ।
जाहिं अनादि अनन्त अखंड ,
अछेद अभेद सुबेद बतावैं ।।
-- रसखान
137- बहु बीती थोरी रही , सोऊ बीती जाय ।
हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि बृंदावन आय ।।
-- ध्रुवदास
138- वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत ।
भावार्थ
जिस तरह दिन में उल्लू संपत्ति की ओर नहीं ताकते उसी तरह राम अन्य स्त्रियों की तरफ नहीं देखते ।
--केशवदास
139- आगे के कवि रीझिहें , तो कविताई ,
न तौ राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है ।
भावार्थ आगे के कवि रीझें तो कविता है अन्यथा राधा - कृष्ण क स्मरण का बहाना ही सही ।
-- भिखारी दास
140- जान्यौ चहै जु थोरे ही , रस कविता को बंस ।
तिन्ह रसिकन के हेतु यह , कान्हों रस सारंस । ।
-- भिखारी दास
141- काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों ।
मैने काव्य की रीति कवियों से ही सीखी है । )
--भिखारीदास
142- तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार ।
--भिखारीदास
143- रीति सुभाषा कवित की बरनत बुधि अनुसार ।
-- चिंतामणि
144- अपनी - अपनी रीति के काव्य और कवि - रीति ।
-- देव
145- पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना लेउ ।
-- विट्ठलदास
146- हरि है राजनीति पढि आए ।
-- सूरदास
147- अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए , सबके दाता राम ।।
-- मलूकदास
148- हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी , केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जलता देख , भया कबीर उदास ।।
-- कबीरदास
149- विक्रम धंसा प्रेम का बारा , सपनावती कहँ गयऊ पतारा ।
-- मंझन
150- कब घर में बैठे रहे , नाहिंन हाट बाजार ,
मधुमालती , मृगावती पोथी दोउ उचार ।
-- बनारसी दास
151- मुझको क्या तू ढूँढे बंदे , मैं तो तेरे पास रे ।
-- कबीरदास
152- रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई, कुलवंती सत सो सति भई ।
-- कुतबन
153- बलंदीप देखा अँगरेजा , तहाँजाई जेहि कठिन करेजा ।
-- उसमान
154- यह सिर नवे न राम कू , नाहीं गिरियो टूट ।
आन देव नहिं परसिये , यह तन जायो छूट ।।
-- चरनदास
155- सुरतिय , नरतिय , नागतिय , सब चाहत अस होय ।
गोद लिए हुलसी फिरै , तुलसी सो सुत होय ।।
-- रहीम
156- मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो / ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै , चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।
-- कृष्णदास
157- कहा करौ बैकुंठहि जाय जहाँ नहिं नंद , जहाँ न जसोदा , नहिं जहँ गोपी , ग्वाल न गाय ।
-- परमानंद दास
158- बसो मेरे नैनन में नंदलाल,
मोहनि मूरत , साँवरि सूरत , नैना बने रसाल ।
-- मीरा
159- लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल ।
-- होलराय
160- साखी सबद दोहरा , कहि कहिनी उपखान ।
भगति निरूपहिं निंदहि बेद पुरान ।।
-- तुलसीदास
161- माता पिता जग जाइ तज्यो ।
विधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई ।
-- तुलसीदास
162- निर्गुण ब्रह्म को कियो समाधु तब ही चले कबीरा साधु ।
-- दादू
163- अपना मस्तक काटिकै बीर हुआ कबीर ।
-- दादू
164- सो जागी जाके मन में मुद्रा / रात - दिवस ना करई निद्रा ।
-- कबीरदास
165- काहे री नलिनी तू कुम्हलानी / तेरे ही नालि सरोवर पानी ।
-- कबीरदास
166- कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो ।
-- नाभादास
167- युक्ति सराही मुक्ति हेतु , मुक्ति भुक्ति को धाम ।
युक्ति, मक्ति और भुक्ति को मूल सो कहिये काम ।।
-- देव
168- दृग अरूझत ,टूटत कुटुम्ब ,जुरत चतुर चित प्रीति ।
पडति गांठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति ।।
-- बिहारी लाल
169- फागु के भीर अभीरन में गहि,
गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाई करी मन की पद्माकर ,
ऊपर नाहिं अबीर की झोरी ।
छीनी पितंबर कम्मर ते सु,
विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी,
नैन नचाय कही मुसकाय ,
लला फिर आइयो खेलन होरी ' ।
-- पद्माकर
170- आँखिन मूंदिबै के मिस ,
आनि अचानक पीठि उरोज लगावै ।
-- चिंतामणि
171- मानस की जात सभै एकै पहिचानबो ।
-- गुरु गोविंद सिंह
172- अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन अधम व्यंजना रस विरस , उलटी कहत प्रवीन ।
-- देव
173-- अमिय , हलाहल , मदभरे , सेत , स्याम , रतनार ।
जियत , मरत , झुकि - झुकि परत , जेहि चितवत एक बार ।।
-- रसलीन
174- भले बुरे सम , जौ लौ बोलत नाहिं जानि परत है काक पिक , ऋत बसंत के माहि ।
-- वृन्द
175- कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन ।
-- आलम
176- नेहीं महा ब्रजभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै ।
-- ब्रजनाथ
177- एक सुभान कै आनन पै करबान जहाँ लगि रूप जहाँ को ।
-- बोधा
178- आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के,
गाज ते दराज कौन नजर तिहारी है ।
-- चन्द्रशेखर
179- देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद ति मुख मुरझे कमला न चंद ।
-- केशवदास
180- रोवहु सब मिलि , आवहु ' भारत भाई ।
पानी हा ! हा ! भारत - दुर्दशा न देखी जाई ।।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
181- कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बल नासी ।
जिन भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी ।।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
182- यह जीय धरकत यह न होई कहूं कोउ सुनि लेई ।
कछु दोष दै मारहिं और रोवन न दइहिं ।।
--प्रताप नारायण मिश्र
183- अमिय की कटोरिया सी चिरजीवी रहो विक्टोरिया रानी ।
-- अंबिका दत्त व्यास
184- अँगरेज - राज सुख साज सजे सब भारी ।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी ।।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
185- भीतर - भीतर सब रस चसै, हँसि - हँसि के तन - मन - धन मूसै । जाहिर बातन में अति तेज,
क्यों सखि सज्जन ! नही अंगरेज ।
--भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
186- सब गुरुजन को बुरा बतावै ,
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।
भीतर तत्व न , झूठी तेजी ,
क्यों सखि साजन नहिं अंगरेजी ।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
187- सर्वसु लिए जात अँगरेज ,
हम केवल लेक्चर के तेज ।
-- प्रताप नारायण मिश्र
188- अभी देखिये क्या दशा देश की हो ,
बदलता है रंग आसमां कैसे - कैसे ।
-- प्रताप नारायण मिश्र
189- हाँ , वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है ,
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है ?
भारत - भारती '
-- मैथिली शरण गुप्त
190- देशभक्त वीरों , मरने से नेक नहीं डरना होगा ।
पर प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा ।
-- नाथूराम शर्मा शंकर
191- धरती हिलाकर नींद भगा दे ।
वज्रनाद से व्योम जगा दे ।
दैव , और कुछ लाग लगा दे ।
( स्वदेश - संगीत )
-- मैथिली शरण गुप्त
192- जिसको नहीं गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं नरपशु निरा है , और मृतक समान है ।।
-- मैथिलीशरण गुप्त
193- वन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज अभिमानी हों ।
बांधवता में बँधे परस्पर परता के अज्ञानी हों ।।
-- श्रीधर पाठक
194- पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता है
यह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है ।।
-- राम नरेश त्रिपाठी
195- सखि , वे मुझसे कहकर जाते । ( ' यशोधरा ' )
-- मैथिली शरण गुप्त
196- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी । ( ' यशोधरा ' )
-- मैथिली शरण गुप्त
197- नारी पर नर का कितना अत्याचार है ।
लगता है विद्रोह मात्र ही अब उसका प्रतिकार है ।।
-- मैथिली शरण गुप्त
198 - राम तुम मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए सब कहीं नहीं हो क्या ?
-- मैथिलीशरण गुप्त
199- साहित्य समाज का दर्पण है ।
-- महावीर प्रसाद द्विवेदी
200- केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए । उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए ।
-- मैथिली शरण गुप्त
201- अधिकार खोकर बैठना यह महा दुष्कर्म है ।
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है ।
-- मैथिली शरण गुप्त
202- अन्न नहीं है वस्त्र नहीं है रहने का न ठिकाना ,
कोई नहीं किसी का साथी अपना और बिगाना ।
-- रामनरेश त्रिपाठी
203- हिन्दू मुस्लिम जैन पारसी इसाई सब जात ।
सुखी होय भरे प्रेमधन सकल ' भारती भ्रात ' ।
-- बदरी नारायण चौधरी ' प्रेमघन '
204- कौन करेजो नहिं कसकत ,
विपत्ति बाल विधवन की ।
-- प्रताप नारायण मिश्र
205- बहुत फैलाये धर्म , बढाया छुआछूत का कर्म ।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
206- सभी धर्म में वही सत्य , सिद्धांत न और विचारो ।
-- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
207- परदेसी की बुद्धि और वस्तुन की कर आस ।
परवस कै कबलौ कहौं रहिहों तुम वै दास ।।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
208- तबहि लख्यौ जहँ रहयो एक दिन कंचन बरसत ।
तहँ चौथाई जन रुखी रोटिहुँ को तरसत ।।
-- प्रताप नारायण मिश्र
209- - सखा पियारे कृष्ण के गुलाम राधा रानी के ।
-- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
210- साँझ सवेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है ।
हम सब इक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है ।
-- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
211- समस्या -- आँखियाँ दुखिया नहीं मानति है ।
समस्या पूर्ति -- यह संग में लागिये डोले सदा बिन देखे न धीरज आनति प्रिय प्यारे तिहारे बिना आँखियाँ दुखिया नहीं मानति है ।
-- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
212- निज भाषा उन्नति अहै . सब उन्नति को मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के , मिटत न हिय को शूल ।।
-- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
213- पढेि कमाय कीन्हों कहा , हरे देश कलेस ।
जैसे कन्ता घर रहै , तैसे रहे विदेस ।।
-- प्रताप नारायण मिश्र
214- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को एक नये मार्ग पर खड़ा किया ।के नये युग के प्रवर्तक हुए ।
-- रामचन्द्र शुक्ल
215- इन मुसलमान जनन पर कोटिन हिंदू बारहि ।
-- भारतेन्दु हरिश्चंद्र
216- अहा , ग्राम्य जीवन भी क्या है , क्यों न इसे सबका मन चाहे ।
-- मैथिली शरण गुप्त
217- खरीफ के खेतों में जब सुनसान है ,
रब्बी के ऊपर किसान का ध्यान है ।
-- श्रीधर पाठक
218- विजन वन - प्रांत था , प्रकृति मुख शांत था ,
अटन का समय था , रजनि का उदय था ।
-- श्रीधर पाठक
219- लख अपार - प्रसार गिरीन्द में ।
ब्रज धराधिप के प्रिय - पुत्र का ।
सकल लोग लगे कहने ,
उसे रख लिया है उँगली पर श्याम ने । ( ' प्रियप्रवास ' )
– ' हरिऔध '
220- संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया ,
इस धरती को ही स्वर्ग बनाने आया ।
इसके ( ' साकेत ' )
-- मैथिली शरण गुप्त
221- मैं आया उनके हेतु कि जो शापित हैं ,
जो विवश , बलहीन दीन शापित है। ( ' साकेत ' में राम की उक्ति )
-- मैथिलीशरण गुप्त
223- हम राज्य लिये मरते हैं ।
-- मैथिलीशरण गुप्त
224- मैंने मैं शैली अपनाई देखा एक दुःखी निज भाई ।
-- निराला
225- व्यर्थ हो गया जीवन मैं रण में गया हार ।
--निराला
226- धन्ये , मैं पिता निरर्थक था ,
कुछ भी तेरे हित न कर सका ।
जाना तो अर्थागमोपाय ,
पर रहा सदा संकुचित काय,
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर,
हारता रहा मैं स्वार्थ समर ।
-- निराला
227- छोटे से घर की लघु सीमा में,
बंधे है क्षुद्र भाव ,
यह सच है प्रिय,
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है ,
सदा ही निःसीम भू पर ।
-- निराला
228- ताल - ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय कपाट खोल दे कर - कर कठिन प्रहार आए अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य विराट करे दर्शन पाये आभार ।
-- निराला
229- हाँ सखि ! आओ बाँह खोलकर हम,
लगकर गले जुड़ा ले प्राण फिर तुम तम में , मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्धान ।
-- सुमित्रानंदन पंत
230- बीती विभावरी जाग री !
अम्बर - पनघट में डूबो रही,
तारा - घट - ऊषा - नागरी ।
-- जयशंकर प्रसाद
231- दिवसावसान का समय ,
मेघमय आसमान से उतर रही है ।
वह संध्या सुंदरी परी - सी धीरे - धीरे- धीरे ।
-- निराला
232- छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया ,
बाले तेरे बाल - जाल में।
-- सुमित्रानंदन पंत
233-विजन - वन - वल्लरी पर ,
सोती थी सुहाग भरी,
स्नेह - स्वप्न - मग्न - अमल-कोमल तन तरूणी,
-- निराला
234- खुल गये छंद के बंध प्रास के रजत पाश ।
-- सुमित्रानंदन पंत
235- मुक्त छंद महज प्रकाशन वह मन का सिर निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र ।
-- निराला
236- तमूल कोलाहल में मिला _ _ _ मैं हृदय की बात रे मन ।
-- जयशंकर प्रसाद
237- प्रथम रश्मि का आना रंगिणि ! तूने कैसे पहचाना ?
-- सुमित्रानंदन पंत
238- जो घनीभूत पीड़ा थी की हर किया मस्तक में स्मृति - सी छाई , दुर्दिन में आँसू बनकर तालाब के मन वह आज बरसने आई ।
-- जयशंकर प्रसाद
239- बाँधो न नाव इस ठाँव , बधु पूछेगा सारा गाँव , बंधु !
-- निराला
240- हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन ।
जब विषण्ण निर्जीव पडा हो जग का जीवन ।
-- सुमित्रानंदन पंत
241- प्रसाद पढाने योग्य है निराला पढे जाने योग्य है और पतजी से काव्यभाषा सीखने योग्य है ।
--- अज्ञेय
242- छायावादी कविता का गौरव अक्षय है उसकी समृद्धि की । कवल भक्ति काव्य ही कर सकता है ' ।
- - डॉ० नगेन्द्र
243- निराला से बढकर स्वच्छंदतावादी कवि हिन्दी में नहीं है ।
-- हजारी प्रसाद द्विवेदी
244- मै मजदूर हूँ , मजदरी किए बिना मुझे भोजन करने का अधिकार नहीं।
-- प्रेमचंद
245- नील परिधान बीच सुकुमारास खुल रहा मृदुल अधखुला अंग भक खिला हो ज्यों बिजली का फूल माला मेघ बीच गुलाबी रंग ।
-- जयशंकर प्रसाद
246- तोड़ दो यह झितिज , मैं भी देख लूं उस ओर क्या है ?
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प , उसका छोर क्या है ?
-- महादेवी वर्मा
247- स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिश सा नादान ,
विश्व के पलकों पर सुकुमार,
विचरते हैं स्वप्न अजान !
न जाने , नक्षत्रों से कौन ?
निमंत्रण देता मुझको मौन ! ! ( ' मौन निमंत्रण '
-- सुमित्रानंदन पंत
248- हिमालय के आंगन में जिसे प्रथम किरणों का दे उपहार ।
-- जयशंकर प्रसाद
249- राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सम्मुख एक वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित।
-- सुमित्रानंदन पंत
250- छोड़ो मत ये सुख का कण है ।
-- जयशंकर प्रसाद
251- आह ! वेदना मिली विदाई ।
– जयशंकर प्रसाद
252- अरुण यह मधुमय देश हमारा । जहाँ पहुँच अनजान झितिज को मिलता एक सहारा ।
-- जयशंकर प्रसाद
253- हिमाद्रि तुंग शृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती - स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती,
अमर्त्य वीर पुत्र हो ,
दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो ,
प्रशस्त पुण्य पंथ है -
बढ़े चलो , बढ़े चलो ।
-- सुमित्रानंदन पंत
254- भारत माता ग्रामवासिनी ।
--- सुमित्रानंदन पंत
255- मार हथौड़ा कर - कर चोट ,
लाल हुए काले लोहे को ,
जैसा चाहे वैसा मोड़ ।
-- केदार नाथ अग्रवाल
256- घुन खाए शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचे,
फटी भीत है , छत चूती है , आले पर विसतुइया नाचे ,
बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट - मिनट में पाँच तमाचे,
दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम के साँचे ।
-- नागार्जुन
257- बापू के भी ताऊ निकले,
तीनों बंदर बापू के,
सरल सूत्र उलझाऊ निकले
तीनों बंदर बापू के ।
-- नागाजुन
258- काटो - काटो - काटो करवीर,
साइत और कुसाइत क्या है ?
मारो- मारो - मारो - हंसिया,
हिंसा और अहिंसा क्या है ?
जीवन से बढ़ हिंसा क्या है ।
-- केदार नाथ अग्रवाल
259- भारत माता ग्रामवासिनी ।
-- सुमित्रानंदन पंत
260- एक बीते के बराबर यह हरा ठिंगना चना ,
बाँधे मुरैठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल,
सजकर खड़ा है ।
-- केदार नाथ अग्रवाल
261- हवा हूँ , हवा हूँ मैं वसंती हवा हूँ ।
-- केदार नाथ अग्रवाल
262- तेज धार का कर्मठ पानी ,
चट्टानों के ऊपर चढ़कर ,
मार रहा है चूंसे कसकर तोड़ रहा है तट चट्टानी ।
-- केदार नाथ अग्रवाल
264- मझे जगत जीवन का प्रेमी लाट बना रहा है प्यार तुम्हारा ।
-- त्रिलोचन
265- खेत हमारे , भूमि हमारी सारा देश हमारा है बाजार इसलिए तो हमको इसका म चप्पा - चप्पा प्यारा है ।
-- नागार्जुन
266- झुका यूनियन जैक,
तिरंगा फिर ऊँचा लहरायाला ,
बांध तोड़ कर देखो कैसे जन समूह लहराया ।
-- राम विलास शर्मा
267- कन्हाई ने प्यार किया ,
कितनी गोपियों को कितनी बार ,
पर उड़ेलते रहे अपना सदा एक रूप पर ,
जिसे कभी पाया नहीं ।
जो किसी रूप में समाया नहीं ,
का यदि किसी प्रेयसी में उसे पा लिया होता , तो फिर दूसरे को प्यार क्यों करता ।
-- अज्ञेय
268- किन्तु हम है द्वीप हम धारा नहीं हैं ।
स्थिर समर्पण है हमारा ।
द्वीप हैं हम ।
-- अजेय
269- हम तो ' सारा - का - सारा ' लेंगे जीवन ' कम - से - कम ' वाली बात न हमसे कहिए ।
-- रघुवीर सहाय
270- मौन भी अभिव्यंजना है . . . जितना तुम्हारा सच है ,
उतना ही कहो मिति तम व्याप नहीं सकते महामारी तुममें जो व्यापा है उसे ही निबाहो ।
-- अज्ञेय
271- जी हाँ , हुजूर , मैं गीत बेचता हूँ । म पनि तिल मैं तरह - तरह के गीत बेचता हूँ मैं किसिम - किसिम के मालिक गीत बेचता हूँ ।
--भवानी प्रसाद मिश्र
272- हम सब बौने हैं ,
मन से , मस्तिष्क से गिर भावना से , चेतना से भी बुद्धि से
विवेक से भी क्योकि हम जन हाफोर - साधारण हैं हम नहीं विशिष्ट ।
-- गिरजा कुमार माथुर
273- मैं प्रस्तुत हूँ . - एक यह क्षण भी कहीं न खो जाय । अभिमान नाम का , पद का भी तो होता है ।
-- कीर्ति चौधरी
274- कुछ होगा , कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा ज ल न टूटे , न टूटे तिलिस्म सत्ता काम मेरे अंदर एक कायर टूटेगा , टूट् ।
-- रघुवीर सहाय
275- जो कुछ है , उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए जो मैं हो नहीं सकता ।
-- मुक्तिबोध
276- भागता मैं दम छोड़ ,
घूम गया कयी मोड ।
-- मुक्तिबोध
277- दुखों के दागों को तमगा सा पहना।
-- मुक्तिबोध
278- कहीं आग लग गयी ,
कहीं गोली चल गयी ।
-- मुक्तिबोध
279- मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेक मतदार इतिहासों की सामूहिक गतिमा कामही सहसा झूठी पड़ जाने पर क्या जाने सच्चाई टूटे हुए पहिये का आश्रय ले ।
- धर्मवीर भारती
280- जिंदगी , दो उंगलियों में दबी सस्ती सिगरेट के जलते हुए टुकड़े की तरह है । जिसे कुछ लम्हों में पीकर गली में फेंक दूंगा ।
-- नरेश मेहता
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बहुत-बढिया बढिया पंक्तिया है
ReplyDeleteमजा आ गया 👍👍👍🙏
बहुत शानदार और उपयोगी जानकारी उपलब्ध है, बहुत -बहुत धन्यवाद।
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