Tuesday 7 April 2020

सफलता व लक्ष्य प्राप्त करने के लिए (पञ्चकोष) 5 महत्वपूर्ण आयाम

सफलता व लक्ष्य प्राप्त करने के लिए (पञ्चकोष) 5 महत्वपूर्ण आयाम
Five Important Dimensions for Success and Achievement (Pentagon
पाञ्च महाकोष

पञ्चकोष -
पञ्चकोष के अध्ययन से स्पष्ट होता है, कि आत्मा के आच्छादक तत्त्वों में प्रमुखरूप से अज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है , उसी से ईश्वर , जीव , जगत् आदि की सृष्टि होती है । तीनों प्रकार के शरीरों के निर्माण एवं विकास में कोशों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है ।

इनकी संख्या कुल मिलाकर पाँच मानी गई है---
( 1 ) आनन्दमयकोष 
( 2 ) विज्ञानमयकोष 
( 3 ) मनोमयकोष 
( 4 ) प्राणमयकोष 
( 5 ) अन्नमयकोष 

1- आनन्दमयकोष
आत्मा के आच्छादक होने के कारण अथवा समूह में स्थित होने के कारण ही इन्हें कोष की संज्ञा प्रदान की गई है । इन पञ्चकोषों में प्रथम आनन्दमयकोष की स्थिति सृष्टि के विकास की प्रथम कारणावस्था में विद्यमान होती है । निर्गुणब्रह्म जब शुद्धसत्त्वप्रधान अज्ञान से आच्छादित होता है तो वही कारणशरीर , ईश्वर तथा आनन्द की प्रचुरता के कारण आनन्दमय कोष कहलाता है । प्रलय की अवस्था में भी यह विद्यमान रहता है । यही सूक्ष्मशरीर का लयस्थान भी है । इसीलिए इस अवस्था को सुषुप्ति कहा गया है । ये ही सब स्थितियाँ ब्रह्म के मलिन सत्त्वप्रधान अज्ञान से आच्छादित होने पर ' जीव ' . पक्ष में भी होती हैं ।

2-- विज्ञानमयकोष --
जीव की स्वप्नावस्था में स्थित ' सूक्ष्मशरीर ' में । तीन कोषों की स्थिति को स्वीकार किया गया है , विज्ञानमय , मनोमय तथा प्राणमय । इन तीन कोशों के मिलने पर ही सूक्ष्मशरीर का निर्माण होता है । इनमें विज्ञानमयकोष के अन्तर्गत आकाशादि अपञ्चीकृत सूक्ष्मभूतों के सात्त्विक अंशों से उत्पन्न श्रोत्र , त्वक् , चक्षुः , रसना और घ्राण इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के साथ बुद्धितत्त्व विद्यमान रहता है । अन्त : करण की निश्चयात्मक वृत्ति ' बुद्धि ' द्वारा ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ नियन्त्रित होती हैं । अतः इस कोष का कार्य ' निश्चय ' करना है ।

3-- मनोमयकोष --
सूक्ष्मशरीर में स्थित तीन कोषों में से इसका द्वितीय स्थान है । इसके अन्तर्गत आकाशादि अपञ्चीकृत सूक्ष्मभूतों के रजोगुणप्रधान अंशों से उत्पन्न वाक् , पाणि , पाद , पायु और उपस्थ इन पञ्चकर्मेन्द्रियों के साथ मन की स्थिति विद्यमान रहती है । मन के संकल्प - विकल्पात्मक होने के कारण मनोमयकोष का कार्य संकल्पविकल्प माना गया है । दूसरे शब्दों में यह कोष इच्छाशक्ति से युक्त होता है ।

4-- प्राणमयकोष --
यह सूक्ष्मशरीर में ही स्थित तृतीयकोष है । शरीर के विभिन्नस्थानों पर रहने वाले प्राण , अपान , व्यान , समान और उदान नाम पञ्चवायु एवं वाक् , पाणि , पाद , पायु और उपस्थ इना पञ्चकर्मेन्द्रियों के साथ मिलकर इस कोष का निर्माण होता है । क्रियाशीलता प्राण का धर्म है अतः इनके प्रभाव से ही कर्मेन्द्रियाँ अपने - अपने कार्यों को सम्पादित करती हैं । इस दृष्टि से इस कोष में क्रियाशीलता का प्राधान्य कहा जा सकता है । वैसे भी पञ्चप्राणों की उत्पत्ति अपञ्चीकृत सूक्ष्मभूतों के रजोंऽशों से मानी गई है । चञ्चलता , गति रजोगुण की विशेषता है । इसीलिए प्राणों में गतिशीलता देखी जाती है तथा प्राणों के सान्निध्य से कर्मेन्द्रियाँ गतिशील होती हैं । इसीकारण प्राणमयकोष को गतिशील अथवा क्रियाशीलकोष माना गया है । विज्ञानमय तथा मनोमयकोष की क्रियाशीलता केवल अनुभव का विषय होती है , अतः अप्रत्यक्ष होती है । जबकि इसकी क्रियाशीलता को . . प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । विज्ञानमय , मनोमय , प्राणमय ये तीनों कोष जीव  की स्वप्नावस्था में विद्यमान होते हैं ।

5-- अन्नमयकोष -- 
पञ्चम एवं अन्तिम अन्नमयकोष होता है । यह जीव की जाग्रत अवस्था में विद्यमान रहता है । अतः इसीको जाग्रत भी कहते हैं । अन्न के विकार का बाहुल्य होने से इसे अन्नमय कहा गया है तथा आत्मा का आच्छादक होने से इसे कोष संज्ञा प्रदान की गई है । जीव इसी कोष के माध्यम से विषयों का उपभोग करता है । भोगों के उपभोग में सभीप्रकार की इन्द्रियाँ भी सहायक होती हैं । इस कोष का निर्माण पञ्चीकृत महाभूतों से होता है ।

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