Wednesday 8 April 2020

शास्त्रों के (65) संस्कृत सुभाषितानी एवं सूक्तियां और शिक्षाप्रद सुविचार तथा अनमोल वचन,Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

शास्त्रों के (65) संस्कृत सुभाषितानी एवं सूक्तियां और शिक्षाप्रद सुविचार तथा अनमोल वचन 
(65) Sanskrit Subhashthani and Suktias of the Scriptures and instructive thought and precious words
50 संस्कृत सुभाषितानी 


Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi 

दोस्तों भारतीय संस्कृति में श्लोकों का बहुत महत्त्व है। यही हमें सुसाध्य और संस्कारित जीवन प्रदान करते है। sanskrit shlok in hindi हमारे वेद-पुराणों, शास्त्रों,व असंख्य धार्मिक ग्रंथों में ऋषि-मुनियों व प्रभुद्ध व्यक्तियों ने ढेरों ज्ञान की बातें संस्कृत श्लोकों, सुभाषितानी पाठ, सुभाषितानी श्लोक, ध्येयवाक्यानि, सुविचार,अनमोलवचन आदि के रूप में लिखी हैं। Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।gyansadhna.com
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विद्यार्थी विशेष रूप से इन श्लोकों को कंठस्त कर सकते हैं और उन्हें अपने जीवन में उतार कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं, विना ज्ञान के मनुष्य पशु है लेकिन विना संस्कारवान शिक्षा के मनुष्य का जीवन शून्य है।sanskrit shlok in hindi

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Great Inspirational and Motivational Quotes about life हमारा मकसद यही है कि हम सबको सही राह दिखा सकें,इसके साथ-साथ और भी कई प्रकार के Hindi Quotes संस्कृत के श्लोकों का भावार्थ gyansadhna.com लिखे गये है।

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi 

श्लोक-१- तारयेद् वृक्षरोपि तु तस्माद् वृक्षान् प्ररोपयेत्। 
              तस्य पुत्रा भवन्त्येव पादपा नात्र संशयः ।।

भावार्थ- वृर्क्षारोपण करनेवाला तो उन वृक्षों से तार देता है ,क्योंकि यहाँ उसके पुत्र वृक्ष होते ही है,इसमें कोई संदेह नहीं है।

श्लोक-२- दशकूपसमा वापी दशवापीसमा हृदः। 
              दशहृसमः पुत्रों दशपुत्रसमो द्रुमः ।।

भावार्थ- दश कुओं के समान एक बावडी होती है,दश बावडियों के समान एक तालाब होता है, दस तालाबों के समान एक पुत्र होता है,और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है।

श्लोक-३- कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति ।
               उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ।।

भावार्थ- जिस तरह नदी पार करने के बाद लोग नाव को भूल जाते है ठीक उसी तरह से लोग अपने काम पूरा होने तक दूसरो की प्रसंशा करते है और काम पूरा हो जाने के बाद दूसरे व्यक्ति को भूल जाते है।

श्नलोक-४-  चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च                             भारकारि ।
                 व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं                                 सर्वधनप्रधानम् ।।

भावार्थ- इसे न ही कोई चोर चुरा सकता है, न ही राजा छीन सकता हैऑ, न ही इसको संभालना मुश्किल है और न ही इसका भाइयो में बंटवारा होता है. यहखर्च करने से बढ़ने वाला धन हमारी विद्या है जो सभी धनो से श्रेष्ठ है।

श्लोक-५- पीतो मरीचिचूर्णेन तुलसीपत्रजो रसः ।
              द्रोणपुष्परसोप्येवं निहन्ति विषमं ज्वरम्। ।

भावार्थ- तुलसी का रस विषमज्वर को नष्ट करता है,सूर्य की धूपसुखाए तुलसी के पत्तों से बने चूर्ण का रस और द्रोण पुष्प रस भी इसी प्रकार विषमज्वर को मारता है।

श्लोक-६- अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
              अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ।।

भावार्थ-किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है।

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi 

श्लोक-७- आत्मनः प्रतिकूलानि न परेषां न समाचरेत्  ।।

भावार्थ-अपने प्रतिकूल (विपरीत) व्यवहार को दूसरों के प्रति नहीँ करना चाहिए।

श्लोक-८- न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः ।
               व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि  रिपवस्तथा ।।

 भावार्थ-इस संसार में न कोई किसी का मित्र (दोस्त) है, न कोई किसी का शत्रु है। व्यवहार के द्वारा ही मित्र और शत्रु बनते है।

श्लोक-९- यत्र देशोऽथवा स्थाने भोगा भुक्ताः स्ववीर्यतः ।
              तस्मिन् विभवहीनो यो वसेत् स पुरुषाधमः ।।

भावार्थ-जिस देश अथवा स्थान में अपने पराक्रम से सुख-साधन और भोज्य पदार्थ का अभाव हो, उस धनहीन (स्थान में) जो निवास करता है, वह नीच पुरूष है।

श्लोक-१०- यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
                तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ।।

भावार्थ-वह व्यक्ति जो अलग – अलग जगहों या देशो में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है उसकी बुद्धि उसी तरह से बढती है जैसे तेल का बूंद पानी में गिरने के बाद फ़ैल जाता है।

श्लोक-११- प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
                 तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।

भावार्थ-चाहे पशु पक्षी हो या मानव सभी मधुर वाणी से सन्तुष्ट होते है, इसीलिए व्यक्ति को हमेशा ही प्रिय अर्थात मधुर वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए।  ऐसे वचन कहने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi 

श्लोक-१२- येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
     ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

भावार्थ- जिन लोगो के पास विद्या, तप, दान, शील, गुण और धर्म नहीं होता. ऐसे लोग इस धरती के लिए भार है और मनुष्य के रूप में जानवर बनकर घूमते है।

श्लोक-१३- आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण,
                 लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
                 दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध भिन्ना ,
                 छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।।

भावार्थ-हमेशा दुष्टों और सज्जनों की मित्रता दिन की छाया की तरह होती है,जिस प्रकार मध्यान्ह से पूर्व की छाया आरम्भ में बडी होती दिखती है,और बाद में क्रमशः कम अर्थात छोटी होती हुई मध्यान्ह में समाप्त हो जाती है,उसी प्रकार दुष्टों की मित्रता आरम्भ में अत्यन्त प्रगाढ और फिर धीरे-धीरे कम होकर समाप्त हो जाती है।

श्लोक-१४- चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।
                चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।

भावार्थ-इस दुनिया में चन्दन को सबसे अधिक शीतल माना जाता है पर चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होती है लेकिन एक अच्छे दोस्त चन्द्रमा और चन्दन से शीतल होते है।

श्लोक-१५-  अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

भावार्थ-यह मेरा है और यह तेरा है, ऐसी सोच छोटे विचारो वाले लोगो की होती है. इसके विपरीत उदार रहने वाले व्यक्ति के लिए यह पूरी धरती एक परिवार की तरह होता है।

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi 

श्लोक-१६- गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति,
                ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।
                आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः ,
                समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया  ।।

भावार्थ-गुण गुणियों में रहकर ही गुण होते है ,निर्गुण को प्राप्त करके वह दोषयुक्त हो जाते है। नदियों के जल तभी तक स्वादिष्ट (पीने योग्य) होते है। गबतक बहते रहते है,समुद्र को प्राप्त करके वे अपेय (न पीने योग्य) हो जाते है।

श्लोक-१७-  माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
                 न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ।।

भावार्थ-जो माता – पिता अपने बच्चो को पढ़ाते नहीं है ऐसे माँ – बाप बच्चो के शत्रु के समान है. विद्वानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी सम्मान नहीं पा सकता वह वहां हंसो के बीच एक बगुले की तरह होता है।

श्लोक-१८- सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
               सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्                     सुखम् ।।

भावार्थ-सुख चाहने वाले को विद्या नहीं मिल सकती है वही विद्यार्थी को सुख नहीं मिल सकता. इसलिए सुख चाहने वालो को विद्या का और विद्या चाहने वालो को सुख का त्याग कर देना चाहिए।

श्लोक-१९- यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु,
                हंसा महीमण्डलमण्डनाय ।
                हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां ,
                येषां  मरालैः सह विप्रयोग ।।

भावार्थ-पृथ्वी की शोभा बढाने के लिए हंस जहां कहीं भी चले गए हों, किसी की कोई हानी नही होती , हानी तो उस तालाब की होती है, हंसो के साथ जिनका वियोग होता है।

श्लोक-२०- क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत् ।
                क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ।।

भावार्थ-प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए, क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।

श्लोक-२१- अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
                 चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥

भावार्थ-तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।

श्लोक-२२- वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च ।
                अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ।।

भावार्थ-चरित्र को बढे प्रयत्न से सम्भालना चाहिए,धन तो आता है और जाता है। धन के नष्ट होने से कुछ नष्ट नही होता है,चरित्र से नष्ट हुआ तो मर जाता है।

श्लोक-२३- आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्                               पशुभिर्नराणाम्।
                 धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः                         पशुभिः समानाः॥

भावार्थ-आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।

श्लोक-२४- सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
                यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥

भावार्थ-यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।

श्लोक-२५- श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
                आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।

भावार्थ-धर्म के सार को सुनो और सुनकर ही धारण करो, अपने विपरीत को दूसरों के साथ व्यवहार मे नहीं लाना चाहिए। अर्थात वैसा आचरण दूसरों के साथ करना चाहिए जिसे आप अपने लिए भी अच्छा समझते हो ।

श्लोक-२६- विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन्।
                स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते॥

भावार्थ-राजत्व प्राप्ति और विद्वत्व प्राप्ति की किंचित मात्र भी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा की पूजा केवल उसके अपने देश में ही होती है जबकि विद्वान की पूजा सर्वत्र (पूरे विश्व में) होती है।

श्लोक-२७- दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
                उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम॥

भावार्थ-दुर्जन, जो कि कोयले के समान होते हैं, से प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है।

श्लोक-२८- पिबन्ति नद्याः स्वयमेव नाम्भः,
                स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा ।
                नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः ,
                परोपकाराय सतां विभूतयः ।।

भावार्थ-नदियां अपना जल स्वयं ही नहीं पीती है, वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते है।बादल अपने द्वारा उगाए गए अन्न को नही खाते है।निश्चित ही सज्जनों की सम्पत्तियां परोपकार के लिए होती है।

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi 

श्लोक-२९- शान्तितुल्यं तपो नास्ति तोषान्न परमं सुखम्।
                नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥

भावार्थ-शान्ति जैसा कोई तप (यहाँ तप का अर्थ उपलब्धि समझना चाहिए) नहीं है, सन्तोष जैसा कोई सुख नहीं है (कहा भी गया है "संतोषी सदा सुखी), कामना जैसी कोई ब्याधि नहीं है और दया जैसा कोई धर्म नहीं है।

श्लोक-३०- सर्वोपनिषदो गावः दोग्धाः गोपालनन्दनः।
              पार्थो वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥

भावार्थ-समस्त उपनिषद गाय हैं, श्री कृष्ण उन गायों के रखवाले हैं, पार्थ (अर्जुन) बछड़ा है जो उनके दूध का पान करता है और गीतामृत ही उनका दूध है। (अर्थात् समस्त उपनिषदों का सार गीता ही है)।

श्लोक-३१- क्षणे क्षणे प्रवर्धते धनाय हिंस्त्रता खलै,
                विलोप्यतेऽतिनिर्दयं च जन्तुभिर्मनुष्यता ।
                विभाजितं जगद्द्विधां निहन्यते च घातकै,
                रतीव दैन्यंमागतास्ति साधुता मनुष्यता। ।

भावार्थ-दुष्टों के द्वारा धन के लिए प्रतिपल हिंसा की भावना बढ रही है,अत्यधिक निर्दयी प्राणियों द्वारा मनुष्यता लुप्त की जा रही है। क्रूर मारने वाले लोगों द्वारा दो विधांए -- साधुता और मनुष्यता मारी जाती हुयी संसार सेअलग की जा रही है।अत्यधिक दैन्यता आ चुकी है।

श्लोक-३२- शतेषु जायते शूरः सहस्त्रेषु च पण्डितः।
                वक्ता दशसहस्त्रेष दाता भवति वान वा॥

भावार्थ-सौ लोगों में एक शूर पैदा होता है, हजार लोगों में एक पण्डित पैदा होता है, दस हजार लोगों में एक वक्ता पैदा होता है और दाता कोई बिरला ही पैदा होता है।

श्लोक-३२- अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम्।
               अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥

भावार्थ-अन्न का दान परम दान है और विद्या का दान भी परम दान दान है किन्तु दान में अन्न प्राप्त करने वाली कुछ क्षणों के लिए ही तृप्ति प्राप्त होती है जबकि दान में विद्या प्राप्त करने वाला (अपनी विद्या से आजीविका कमा कर) जीवनपर्यन्त तृप्ति प्राप्त करता है।

श्लोक-३३- गुणवन्तः क्लिश्यन्ते प्रायेण भवन्ति निर्गुणाः                    सुखिनः।
              बन्धनमायान्ति शुकाः यथेष्टसंचारिणः काकाः॥

भावार्थ-गुणवान को क्लेश भोगना पड़ता है और निर्गुण सुखी रहता है जैसे कि तोता अपनी सुन्दरता के गुण के कारण पिंजरे में डाल दिया जाता है किन्तु कौवा आकाश में स्वच्छन्द विचरण करता है।

श्लोक--३४- नास्ति विद्यासमं चक्षुः नास्ति सत्यसमं तपः।
                 नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्॥

भावार्थ-विद्या के समान कोई चक्षु (आँख) नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग (वासना, कामना) के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है।

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श्लोक-३५- गर्वाय परपीड़ाय दुर्जस्य धनं बलम्।
                सज्जनस्य दानाय रक्षणाय च ते सदा॥

भावार्थ-दुर्जन (दुष्ट) का धन और बल गर्व (घमण्ड) तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाना होता है और दान एवं (निर्बलों की) रक्षा करना सज्जन का।

श्लोक-३६- लोभ-क्लिश्यन्ते लोभमोहित मुद्रण
                 क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः ।

भावार्थ- जो लोभ की वजह से मोहित (आकर्षित) हुए हैं वे हमेशा दुःखी होते है।

श्लोक-३७- लोभ-लोभः प्रज्ञानमाहन्ति मुद्रण
                लोभः प्रज्ञानमाहन्ति ।

भावार्थ-जो लोभ (लालच) करता है उसके विवेक का नाश होता है ।

 श्लोक-३८- लोभ-लोभात् प्रमादात् मुद्रण
                लोभात् प्रमादात् विश्रम्भात् त्रिभिर्नाशो                            भवेन्नृणाम् ।

भावार्थ-लालच आने से हमेशा व्यक्ति के अन्दर लोभ, प्रमाद और विश्र्वास – इन तीन कारणों से मनुष्य का नाश होता  है ।

३९- आपत्तियां मनुष्यता की कसौटी हैं । इन पर खरा उतरे बिना कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता ।  

40- कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं । जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं , वे विजयी होते हैं । 

४१-  प्रकृति , समय और धैर्य ये तीन हर दर्द की दवा हैं ।

४२-  जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिये | 

४३-  जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं । 

४४- वही उन्नति करता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है ।

४५- अपने विषय में कुछ कहना प्राय : बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को ।इसलिए दोषो को मिटाने का प्रयास कीजिए। 

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४६- जैसे अंधे के लिये जगत अंधकारमय है और आंखों वाले के लिये प्रकाशमय है वैसे ही अज्ञानी के लिये जगत दुखदायक है और ज्ञानी के लिये आनंदमय ।

४७- बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं । उनसे उत्साह बढ़ना चाहिये , मंद नहीं पड़ना चाहिये, गतिशील ही उसे महान बना सकती है।

४८- कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढाती है । यही उसे धीरवान और शक्तिशाली बनाता है।

४९- जिसके पास न विद्या है , न तप है , न दान है , न ज्ञान है , न शील है , न गुण है और न धर्म है , वे मृत्युलोक पृथ्वी पर भार होते है और मनुष्य रूप तो हैं पर पशु की तरह चरते हैं (वे हमेशा नर्क सा जीवन व्यतीत करते हैं ) 

५०- मनुष्य कुछ और नहीं , भटका हुआ देवता है । जिसे सथिरता पाना अति आवश्यक है।

५१- ऐसे देश को छोड़ देना चाहिये जहां न आदर है , न जीविका , न मित्र , न परिवार और न ही ज्ञान की आशा । उसे त्यागने मे ही भलाई समझो।

५२- मानव का विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है ।

५३- आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें,और जीवन को सफर कर सके।

५४- उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं तब विवेक के अधिक निकट होते हैं । और हमारी स्मरणीय शक्ति का भी विकास होता है।

५५- विश्वास हृदय की वह कलम है जो स्वर्गीय वस्तुओं को चित्रित करती है । 

५६-  गरीबों के समान विनम्र अमीर और अमीरों के समान उदार गरीब ईश्वर के प्रिय पात्र होते हैं । 

५७-  जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत : करण में ईश्वर के प्रकाश का पतिबिम्ब नहीं पड़ सकता । 

५८-  मित्र के मिलने पर पूर्ण सम्मान सहित आदर करो , मित्र के पीठ पीछे प्रशंसा करो और आवश्यकता के समय उसकी मदद अवश्य करो ।

५९-  जैसे छोटा सा तिनका हवा का सूख बताता है वैसे ही मामूली घटनाएं मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं ।

६०- देश - प्रेम के दो शब्दों के सामंजस्य में वशीकरण मंत्र है , जादू का सम्मिश्रण है । यह वह कसौटी है जिसपर देश भक्तों की परख होती है ।

६२- दरिद्र व्यक्ति कुछ वस्तुएं चाहता है , विलासी बहुत सी और लालची सभी वस्तुएं चाहता है । 

६३-  चंद्रमा अपना प्रकाश संपूर्ण आकाश में फैलाता है परंतु अपना कलंक अपने ही पास रखता है ।

६४ - जीवन में कोई भी कार्य असम्भव नही होता है हमारा नजरिया उसे कठिन बना देता है।

६५- 
तबतक सोचो जब तक कोई हल न निकल जाये और हल अवश्य ही निकलेगा।

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