Monday 13 April 2020

महा योद्धा दुष्यंत पुत्र भरत का जीवन परिचय व वीर गाथाओं का वर्णन ,भरत की जीवनी

महा योद्धा दुष्यंत पुत्र भरत का जीवन परिचय व वीर गाथाओं का वर्णन An introduction to the life of the great warrior Dushyant son Bharat and a description of heroic stories
भरत की जीवनी 

भरत प्राचीन भारत के एक पराक्रमी  सम्राट थे जो कि राजा दुष्यन्त तथा रानी शकुंतला के पुत्र थे अतः एक बलसाली राजा थे।भरत के बल के बारे में ऐसा माना जाता है कि वह बाल्यकाल में वन में खेल ही खेल में अनेक जंगली जानवरों को पकड़कर या तो उन्हें पेड़ों से बाँध देते थे या फिर उनकी सवारी करने लगते थे। इसी कारण ऋषि कण्व के आश्रम के निवासियों ने उनका नाम सर्वदमन रख दिया।
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दुष्यत पुत्र भरत हमारे देश के प्रसिद्ध पराक्रमी भरत पुरु वंश के विस्तारक महाराजा दुष्यन्त के पुत्र थे । राजा दुष्यंत हस्तिनापुर के प्रतापी सम्राट थे और पृथ्वी के चारों भागों का तथा समुद्र से आवृत सम्पूर्ण देशों का भी पूर्ण रूप से पालन करते थे । एक बार राजा दुष्यंत आखेट के लिए वन गए । वहाँ वे रास्ता भटक कर महर्षि कण्व के आश्रम में जा पहुँचे । महर्षि कण्व की अनुपस्थिति में उनकी पालिता पुत्री शकुन्तला ने उनका स्वागत सत्कार किया ।

सम्राट दुष्यंत शकुन्तला की सुंदरता पर मोहित हो गए । अत : ऋषि कन्याओं और ऋषि किशोरों तथा आश्रम के अन्य ऋषियों की उपस्थिति में दुष्यन्त एवं शकुन्तला का गंधर्व विवाह संपन्न हो गया । विवाह के अवसर पर दुष्यन्त की ओर से शकुन्तला को मुद्रिका अर्थात अंगूठी भेंट की गई ।

कुछ समयावधि के उपरान्त जब महर्षि कण्व अपने आश्रम में पहुँचे तब उन्ह इस विवाह का वृतान्त सुनाया गया । इसे सुनकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई । शकुन्तला को पति गृह भेजने की व्यवस्था की गई । ऋषि कुमारों के साथ जब शकुन्तला राजदरबार में पहुँची तब तक किसी ऋषि के शाप के कारण दुष्यन्त महर्षि कण्व क आश्रम में हुए विवाह एवं शकुन्तला दोनों को भूल गए थे । अत : उन्होंने शकुन्तला का पहचानने से साफ इंकार कर दिया । दुष्यन्त की दी हई मद्रिका भी पानी पीते समय सरोवर में गिर जाने से शकुन्तला आश्रम में सम्पन्न हए गंधर्व विवाह का काइ प्रमा प्रस्तुत नहीं कर सकी ।

 फलत : हताश होकर वह पिततल्य महर्षि कण्व के आश्रम ही वापिस आ गई , वहीं कुमार भरत का जन्म हुआ । - कुमार भरत बचपन से ही स्वछन्द रूप से आश्रम एवं अरण्य क " वातावरण में पले बढ़े । वन्य पशुओं के साथ खेलने में उन्हें बड़ी आभार निडरता , साहस एवं पराक्रम के गुण , उनमें इतने कूट - कूट कर भरे हुए थे ।

शावकों के समीप जाने में भी उन्हें बिल्कुल भी हिचक नहीं होती थी ।
किसी कवि ने बालक भरत की इस वीरता एवं निडरता का वर्णन करते हुए लिखा है ---
" घुटनों चलने लगे भरत तब रेंग निकल जाते थे , बाघ सिंह के पास पहुँच मुख उनका खुलवाते थे , जब वे चलने लगे , पकड लाते सिंहनी के बच्चे । गुर्राने से धमकाते थे , नहीं तनिक थे कच्चे , " रह , मैं तेरे दाँत गिगूंगा " बड़े सिंह से कहते , उसके मुँह में हाथ डालकर , सचमुच गिनते रहते , चार बरस के भरत खींचते , कान बाघ का जाकर , हँसते बैठे पीठ पर उसकी , ताली बजा - बजा कर ,छड़ी दिखाते सिंह - रीछ को - बैठ , नहीं मारुंगा , लड़ले कुश्ती अभी पटक दूँ , क्या तुझसे हारूँगा । 

शैशवावस्था से अरण्य के वातावरण में पलने तथा वन पशुओं के साथ खेलने से भरत में साहस , पराक्रम तथा निडरता के गुण सहज रूप से विकसित हो गए थे । महर्षि कण्व के निर्देशन में उन्होंने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा पाई थी । माता शकुन्तला उन्हें  वीर पुरुषों की कहानियाँ सुनाकर उनमें वीरता , साहस , निडरता आदि गुणों का संचार किया करती थी ।

 बहुत दिनों बाद , एक दिन एक मछुआरे को मछली का पेट चीरते समय दुष्यन्त के द्वारा दी गई शकुन्तला की मुद्रिका मिल गई जिसे दुष्यन्त ने विवाह के समय शकुन्तला को दिया था । मछुआरे ने बहुमूल्य जानकर , वह मुद्रिका राज दरबार में प्रस्तुत की । उसे देखते ही सम्राट दुष्यन्त को शकुन्तला के साथ हुए गंधर्व विवाह का स्मरण हो आया । उन्होंने तुरन्त शकुन्तला की खोज करने कण्व आश्रम की ओर प्रस्थान किया ।

महर्षि कण्व के आश्रम में पहुँच कर महाराज दुष्यन्त को न केवल पत्नी शकुन्तला मिली अपितु भरत जैसा वीर , सुसंस्कारित पुत्र भी प्राप्त हुआ । अपनी भूल के लिए क्षमा माँगकर वे पत्नी और पुत्र को ससम्मान अपने साथ राजधानी लेकर आए ।

 कालान्तर में सम्राट दुष्यन्त के उपरान्त , वीर भरत ही भारत के चक्रवर्ती सम्राट  हुए । उन्होंने भारत को एकता के सूत्र में बाँधा और सुशासन की स्थापना की । एक परम्परा के अनुसार महाराजा भरत की वीरता , पराक्रम एवं प्रजावत्सलता के कारण हमारे देश का नाम भारत वर्ष कहलाने लगा । उनके वंश में उत्पन्न भरतवंशी कहलाए । इन भरतवंशी सम्राटों ने भी भारतवर्ष की ख्याति विश्व में स्थापित की ।

शतपथ ब्राह्मण में अश्वमेध यज्ञकर्ता के रूप में भरत दौष्यन्ति का वर्णन मिलता है । भरत को विदर्भराज की तीन कन्याएँ ब्याही थीं । ये सार्वभौम राजा थे और किरात , हूण , यवन , आंध्र और सब मलेच्छ इनके आधीन थे ।

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