Friday 17 April 2020

गुरू गोविन्द सिंह का व्यक्तित्व, जीवन परिचय एवं जीवनोपयोगी सुविचार,Guru Govind Singh's personality,

गुरू गोविन्द सिंह का व्यक्तित्व, जीवन परिचय एवं जीवनोपयोगी सुविचार 
Guru Govind Singh's personality, life introduction and life-long thought
Guru Govinda sing

 गुरु गोबिन्द सिंह हिन्दू धर्म की सुरक्षा तथा सामाजिक जागरण के लिए गुरु नानक देव ने सिक्ख पंथ की स्थापना की थी । उनकी परम्परा में दशम और अन्तिम गुरु हुए गुरु गोबिन्द सिंह । 

हिन्दी अर्थ, संस्कृत भावार्थ सहित समाहित करने का छोटा सा प्रयास किया गया है।Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।gyansadhna.com

उनका जन्म पौष सुदी सप्तमी संवत् 1723 अर्थात 22 दिसंबर 1666 को पटना साहेब बिहार में हुआ था । उनके पिता अमर बलिदानी गुरु तेग बहादुर थे । उनकी माता का नाम माता गुजरी था ।

सन् 1672 में पिता के साथ यात्रा करते हुए गोबिन्द सिंह आसाम से लौटकर पंजाब पहुँचे । इस समय उनकी अवस्था केवल 9 वर्ष की थी । गुरु तेग बहादुर दिन - रात देश की परिस्थिति पर चिंतित रहते थे , जैसे ही उन्होंने कश्मीरी पंडितों पर अमानवीय अत्याचार की कहानी सुनी तो कहने लगे ---
 " इस समय धर्म रक्षा का एक ही उपाय है कि कोई बड़ा धर्मात्मा पुरुष अपना बलिदान दे " , 

नौ वर्ष के बालक गोबिन्द , जो पास ही बैठे थे , कहने लगे पिताजी आज के समय में आप से बढ़कर दूसरा धर्मात्मा पुरुष कौन है , गुरु तेग बहादुर इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए । गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपनी रचना विचित्र नाटक में अपने पिता के इस बलिदान का बड़े गौरवपूर्ण ढंग से वर्णन किया है ।

17 नवम्बर 1675 के दिन चाँदनी चौक में गुरु तेग बहादुर को , इस्लाम स्वीकार न करने के कारण सरे आम वध करवा दिया । आज वहाँ शीशगंज गुरुद्वारा है । बलिदान के पूर्व गुरु तेग बहादुर ने 11 नवम्बर 1675 को आनन्दपुर में गुरु गद्दी प्रदान करते हुए आशीर्वाद दिया कि तू इस देश , धर्म और दु : खी जनता का उद्धार करना । पिता के बलिदान के बाद वह आठ वर्ष आनन्दपुर में रहे और अपने भावी जीवन के निर्माण की योजना यहीं बनाई और अपनी शक्तियों का केन्द्रीयकरण किया ।

इस अवस्था में दूर - दूर तक फैले हुए अपने सिक्ख समुदाय को हुक्मनामे भेज - भेज कर उनसे अस्त्र - शस्त्र और धन का संग्रह किया और एक छोटी सी सेना भी एकत्रित क ली और कई युद्धों में अपनी शक्ति का अच्छा परिचय दिया । इस प्रकार गुरु नानक द्वारा स्थापित सिक्ख सम्प्रदाय की सामाजिक धारा को गुरु गोबिन्द सिंह ने क्रान्तिकारी मोड दिया । गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य खालसा पंथ निर्माणि का है ।

1699 ई . को वैशाखी पर्व के दिन अपने अनुयायियों की विशाल सभा बुलवाई और उसे संबोधित कर पराक्रमी सिंह बनने के लिए आह्वान किया । वैशाखी के उस ऐतिहासिक अवसर पर सहस्रों शिष्यों के समुदाय के सम्मुख हाथ में नंगी तलवार लेकर गुरु ने प्रश्न किया - है कोई ऐसा जो धर्म के लिए अपने प्राण दे सके । बार - बार उनकी प्रेरणाप्रद ललकार सुनकर बारी - बारी से दयाराम खत्री , धर्मदास जाट , मोहकम चन्द धोबी , हिम्मत राय रसोइया तथा साहबचन्द नाई उठ खड़े हुए और उनके पश्चात् सारा निस्तेज समाज जोश के साथ खड़ा हो गया ।

मरी हुई जाति में इन पांच बलिदान दन वाले शिष्यों ने जान डाल दी । गरु ने सारी जातियों का समन्वित रूप खालसा के रूप में खड़ा कर दिया । जात - पात का सब भेद नष्ट कर दिया । इसी दिन खालसा पन्थ की स्थापना भी हुई । खालसा पन्थ का अर्थ है शुद्ध पन्थ । गुरुजी एक समाज सुधारक भी थे । उन्होंने सती प्रथा , कन्या हत्या , अस्पृश्यता , छुआ - छूत आदि कुप्रथाओं को समाप्त कर समानता के आधार पर सामाजिक संगठन किया ।

उनका विश्वास था कि जब तक राष्ट्रभक्ति की भावना जागृत नहीं । तब तक केवल धार्मिक होने का कोई अर्थ नहीं है । हिन्दुओं में 7 जागृत करने तथा उनको राष्ट्र धर्म में प्रेरित करने के लिए उन्होंने का स्थापना की थी । इस उद्देश्य के लिए गरु स्वयं भगवती से प्रार्थना सकल जगत में खालसा पंथ गाजै - जगै धर्म हिन्दुन सकल भंड भाजे ।
" समान डरपोक भारतीय युवकों को वीरता एवं पराक्रम की ओर करते थे - " 

सवा लाख से एक लड़ाऊँ , चिड़ियों से मैं आत्मविश्वास जागृत करन खालसा पंथ की स्थापना का था करते हैं ---
" सकल जगत में ख _ चिड़ियों के समान डरपोक प्रेरित करने के मज तुड़ाऊँ , तबै गोविन्दसिंह नाम कहाऊँ " । 

महान सन्त , धर्मगुरु , समाज भी थे । उन्होंने औरंगजेब कर पराजित किया । 1703 ई . में से उन्होंने मुगलों की विशाल र बड़े पुत्र अजीतसिंह तथा जुझारा इन पाँच प्यारों के नाम थे इन पंच प्यारों का चयन शीश पथ में सभी जातियों को समानत बनाने के लिए उन्होंने पाँच प्रता धर्म  समाज - सुधारक होने के साथ - साथ वे एक अप्रतिम याद्धा गजब के समर्थक पंजाब के पर्वतीय नरेशों को , भंगाणी के युद्ध में 103 ई . में चमकौर के यद्ध में केवल चालीस सिक्खों की सहायता विशाल सेना के छक्के छडा दिए थे । इस युद्ध में गुरुजी के दो था

जुझारसिंह मारे गए तथा पाँच प्यारों में से तीन प्यारे शहीद हुए । मथ - दयाराम , धर्मदास . मोहकमचंद , हिम्मतराय तथा साहेबचद । शशि भेंट करने की परीक्षा दारा करवाया गया था । इन्होंने सिक्ख समानता का स्थान दिया । सिक्खों को चरित्रवान तथा पराक्रमा च प्रतीक चिह्नों को धारण करना आवश्यक किया ।

ये पांच प्रतीक हैं - 
1- कृपाण 
2- पाण 
3- केश 
4-  कंघा 
5-  कच्छा 
6- कड़ा 

1703 ई० में सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने उनके दो छोटे पुत्रों जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह को इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवार में जीवित चिनवा दिया । पर चारों पुत्रों के शहीद हो जाने तथा माता गजरी देवी की कर हत्या करने के बावजूद भी गुरुजी एक महान योगी की तरह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए । 1706ई. मे उन्होंने खिदराना का युद्ध लड़ा ।

वे एक महान योद्धा तो थे ही , संगीत , साहित्य तथा कला के क्षेत्र मे भी उनकी गहरी अभिरुचि थी ।

 वे रचनाकार कवि भी थे । 
उनके द्वारा रचित दशम ग्रन्थ है--- 
जाप साहब , 
अकाल उसतित ( स्तुति ) , 
विचित्र नाटक 
चण्डी चरित्र , 
चण्डा पा जफरनामा ( औरंगजेब को लिखा गया ओजस्वी पत्र) चौबीस अवतार , 

ज्ञान प्रभाव उनके दरबार में 52 कवि थे । 
इनमें है----
दयासिंह , 
नन्दलाल , 
सेनापति चंदन , 
खानख का नाम प्रमुख है । 

उनकी रचनाओं में वीर रस की प्रधानता थी । उन्होने श्रीगरुग्रन्थ साहेब को गरु मानने का आदेश देकर गरु गददी पर आसान का 1765 अर्थात ईसवी सन 1708 में नांदेड में गोदावरी के तट पर गरुजी ने १९बार प्रस्थान किया । उनके द्वारा जलाई गई स्वतंत्रता ज्योति तथा अन्य _ विरुद्ध लड़ने की भावना आज भी सब भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत है ।

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