Thursday 23 April 2020

भारतीय संस्कृति का महत्व व विशेषताएँ तथा संस्कार-सभ्यता का विस्तृत वर्णन ,Importance and characteristics of Indian culture and detailed description of culture and culture

भारतीय संस्कृति का महत्व व विशेषताएँ तथा संस्कार-सभ्यता का विस्तृत वर्णन 
Importance and characteristics of Indian culture and detailed description of culture and culture
Bhartiy Sanskriti

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भारतीय संस्कृति का महत्व
Importance of Indian culture

दोस्तों भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है,जो पूरे विश्व में प्रचलित है, अन्य देश चाहे किसी भी क्षेत्र में आगे क्यों न हो लेकिन कभी भी अन्य देश भारतीय संस्कृति की बराबरी नही कर सकते। क्योंकि यहाँ इस भारत धरती माता में जो संस्कार, सभ्यता, संस्कृति, विश्वास छिपा हुआ है शायद ही और कहीँ देखने को मिलेगा।

आज पूरा विश्व जिस ज्ञान से ओत-प्रोत है वो कहीँ न कहीं हमारे ऋषि-मुनियों ने, शास्त्रों ने, वेदों  ने, धर्म ग्रंथों ने दिया है। चाहे किसी भी क्षेत्र की बात करें चाहे शिक्षा व्यवस्था और गुरु शिष्य संबंध। सभी धर्मों में समानता और सम्भाव हो। जो कभी विश्व गुरू के नाम से विख्यात था,आज इसका महत्त्व इसीलिए और है कि आज पाश्चात्य शिक्षा की आड़ में गुरु शिष्य संबंध खत्म होते जा रहे हैं और शिक्षा का पूरी तरह व्यावसायीकरण हो चुका है। हमें अपनी संस्कृति के महत्त्व को समझना होगा और अपनी सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को अपनाकर फिर से शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाना पड़ेगा। प्राचीन काल में शिक्षा ऐसी दी जाती थी कि आने वाले जीवन में उसका अधिक से अधिक सदुपयोग हो सके और मनुष्य के जीवन को एक सकारात्मक दिशा दे सके। हमें यही तो चाहिए आज भी हमारा भारत उसी स्थान पर आए जिसे हमारे पूर्वजों ने सपने बुने थे।
उनके प्रसिद्ध वाक्य थे--- 
मेरे सपनों का भारत, 

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं --
Salient features of Indian culture

1- आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय, 
2- सम्मानता- सम्भाव का होना,
3- अनेकता में एकता की शक्ति , 
4- भारत माता का हित एवं उन्नति-तरक्की की सोच,
5- ग्रहणशीलता- उत्सवों की प्रांगणता ,
6- शास्त्रों की महानता, व उपयोगिता, 
7- विविधता- प्राचीनता, 
8-भावनाएँ-विश्वास-परम्पराएं,  
9- गतिशीलता- निरंतरता, 
10- लचीलापन एवं सहिष्णुता, 
11- वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना,
12- जीवों का संरक्षण, सभी प्राणियों के हितैषी, 
13- लोकहित और विश्व-कल्याण, 14- पर्यावरण संरक्षण,
15- नारियों का सम्मान व उत्थान।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएं व विस्तृत वर्णन
Features and detailed description of Indian culture

भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ यह है कि भौतिक रूप में जो वस्तु , पदार्थ , प्राणी अथवा मानव जिस रूप में सहज प्राप्त होता है वह उसका प्राकृतिक स्वरूप होता है । किसी भी सजीव व निर्जीव वस्तु को उसके मूल अथवा प्राकृतिक रूप में ही उपयोग में नहीं लाया जाता । प्रकृति से मिलने वाले अनाज , दाल - शाकादि खनिजादि , हीरे , मोती , मणि माणिक्यादि को जिस रूप में प्राप्त किया जाता है । उन्हें विविध भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं से शोधित किया जाता है तब उपयोग में लाया जाता है ।

सोने जैसी बहुमूल्य धातु भी संस्कारित करके ही आभूषण के उपयोग में आने योग्य हो पाती है । उसी प्रकार मानव शिशु भी विविध संस्कारों द्वारा ही सुसभ्य एवं सुसंस्कृत बनाया जाता है । तब ही वह एक आदर्श समाजोपयोगी नागरिक बन पाता है । सामान्य मानव को संस्कृति के सांचे मे ढालकर ही आदर्श एवं उपयोगी रूप प्रदान किया जाता है । प्रकृति से प्राप्त सामान्य मानव को यदि संस्कृति से समुन्नत नहीं बनाया जा सका तो वह विकृति युक्त होकर समाज के लिए समस्या भी बन सकता है । विश्व में इतिहास के अति पुरातन काल से ही अनेकानेक संस्कृतियाँ आईं और गईं किन्तु भारतीय संस्कृति एक ऐसी अक्षुण्ण संस्कृति के रूप में उभर कर आगे आई कि उसका आदर्श स्वरूप आज भी विश्व के समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर रहा है ।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्रथम संस्कृति है देव संस्कृति है -- 
"जगे हम , लगे जगाने विश्व , लोक में फैला फिर आलोक । 
दूर कर विकृति तम की कारा , सकल संस्कृति फिर हुई अशोक ॥ "

भारतीय संस्कृति - 

भारतीय संस्कृति मात्र भारत के लिए ही नही वरन् समग्र विश्व कल्याण के लिए है -
(' भ्रातरा : मनुजाः सर्वे , स्वदेशो भुवनत्रयम् ') कहने वाला भारतवासी विश्व हित को दृष्टिपथ में रख कर ही कार्य करता रहा है । भारत - भूमि सदा से ही विश्व के सभी क्षेत्रों से आने वाले मानव समुदाय को आलिंगन करने के लिए बाहें फैलाए सन्नद्ध रही है , विश्व में कहीं भी जो भद्र है । श्रेष्ठ है वह मुझमें आ जाय यही यहाँ के वैदिक ऋषि उद्घोष करते रहें है -
(' आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः ' ' )
(माता भूमि पुत्रोऽहं पृथीव्या ')

सारी धरती मेरी माता है और मै इस पृथ्वी का पुत्र हूँ । यहाँ की मान्यता रही है कि यह मेरा है यह पराया है ऐसी सोच तो छोटे लोगों की होती है , उदारचरित्र वाले लोगों के लिए तो यह सारी वसुधा एक छोटा परिवार जैसा ही है । अपने में सबको तथा सबमें अपने को समाने का कौशल भारतीय मनीषियों को सहज प्राप्त था इसीलिए यह ' जगदगुरु ' के गरिमामय पद को प्राप्त कर सका । बाह्य दृष्टि से भारत भूमि पर कष्ट अनेकों बार आते गये किन्तु इसकी मूर्धन्य मनीषा को कभी कोई आक्रान्त नहीं कर पाया । इसकी आध्यात्मिक विरासत --
(‘ एकोऽहं बहुस्याम ') की धुन पर पल्लवित और पुष्पित होती रही ।

भारतीय संस्कृति और सभ्यता -
Indian Culture and Civilization

सभ्यता के दौर में भारत में भी पाश्चात्य सभ्यता ने पैर पसारे । यहाँ की मूल संस्कृति को निर्मूल करने का साहस किसी भी इतर सभ्यता या संस्कृति को कभी नहीं हो सका । हमने सबको पचाया किन्तु कोई हमें ध्वस्त नहीं कर सका । भारतीय विद्या के स्थान पर शिक्षा का वर्तमान स्वरूप और ढांचा उभरा । उदर पूर्ति के निमित्त दी जाने वाली शिक्षा में वास्तविक विमुक्ति दिलाने वाली विद्या का समावेश करना आज की आवश्यकता हो गई है ।

भौतिक ज्ञान विषयक सामान्य सूचनाओं की जानकारी तो वर्तमान शिक्षा पद्धति द्वारा बहुत दी जा सकती है , किन्तु उसमें संस्कृति का तत्त्व भरने पर ही वह सर्वांगीण विकास का माध्यम बन सकेगी । इसलिए आज तथाकथित सभ्यता के साथ शद्ध सांस्कतिक चेतना को भी जागृत करना होगा । ताकि मानव जाति को अन्तः - बाह्य दोनों रूपों से समुन्नत किया जा सके ।

सभ्यता जहाँ व्यक्ति के बाह्य कलचर तथा बाह्यचार को प्रशिक्षित क र सभ्य बनाती है वहीं सच्ची संस्कृति व्यक्ति के भावनात्मक करके उसको सुसंस्कृत एवं परिशुद्ध करके आदर्श स्वका है । संस्कति ही व्यक्ति को यह बता सकेगी कि जो चीन है वह दूसरे को भी प्रतिकूल होगी । अब उसका दोन किया जाय ।
(" आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । " )

संस्कति से ही उसे यह भी बोध हो पाएगा कि दूसरे के व्यवहार ही पुण्य है तथा दूसरे को कष्ट पहुँचाना ही पापी नहि भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई ' । सब चराचर संस्कृति व्यक्ति के भावनात्मक स्तर को विकसित रिशद्ध करके आदर्श स्वरूप प्रदान कर सकती सकेगी, कि जो चीज मेरे लिए प्रतिकूल पतिकल होगी । अब उसका दूसरे के साथ प्रयोग न कि दूसरे के साथ भलाई का ही पाप है ।
 (परहित सरिस धर्म नहि भाई)

सब चराचर जगत में एक ईश्वर का दर्शन करने की क्षमता संस्कृति से ही आती है ।
भारतीय संस्कृति का प्रसिद्ध वाक्य--
"ईश का आवास यह सारा जगत । 
जीवन यहाँ जो कुछ उसी से व्याप्त है। 
अतएव करके त्याग उसके नाम से, 
तू भोग कर उसका तुझे जो प्राप्त है । 
धन की किसी के भी न रख तू आसनाक्त,"

भावार्थ- चिन्तन , ऐसी विधेयक सोच हमें संस्कृति से ही प्राप्त होती है , विद्या - विनय से सम्पन्न ब्राह्मण में , गाय में , हाथी में , एक तुच्छ कुत्ते में तथा एक नीच माने जाने वाले चाण्डाल में एक सच्चा विद्वान समता रखता है । गीता की यह समदृष्टि हमें हमारी संस्कृति ही सिखाती है ।

भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशिष्टता
Major feature of Indian culture

1-आध्यात्मिकता - 
भारतीय संस्कृति मूलतः आध्यात्मिक संस्कृति है । भौतिकता के वहिरंग आवरण को यहाँ अधिक महत्व नहीं दिया जाता । यहाँ शरीर और शारीरिक भोगों की तुलना में आत्मा तथा आत्मिक आनन्द को प्रधानता दी जाती रही है । आध्यात्मिक दृष्टि से समुन्नत होने पर आधिदैविक एवं आधिभौतिक कष्टों से सहज निवृत्ति प्राप्त की जा सकती है । भौतिक समृद्धि ही सुख आ आधार नहीं है । सुख और दुःख तो मन के स्तर पर निर्भर करता है । मन की उच्चता एवं उदात्तता से बड़े से बड़े कांटो में धैर्य बनाए रखा जा सकता है । जब से हमने अपनी आध्यात्मिक वृत्ति की उपेक्षा की तभी से हमने दिव्य संस्कृति के उस सच्चे , सुख के स्थान पर विपन्नता और दीनता को गले लगाया

2- सौम्यता एवं शिष्टता : - 
भारतीय संस्कृति की दूसरी प्रमुख विशेषता इसकी सौम्यता एवं शिष्टता है । एक आचरण प्रधान संस्कृति होने के कारण इसमें व्यवहार की शिष्टता एवं मिष्टता पर अधिक बल दिया जाता रहा है । शिष्टाचार को प्रथम वरीयता देते हुए यहाँ घोषणा की गई है कि चरित्र की प्रयत्न पूर्वक रक्षा की जानी चाहिए । वित्त या धन तो आता - जाता रहता है इसके पीछे चरित्र को कदापि न बिगाड़ा जाय ।

"वृतं यत्नेन संरक्षेत् वित्तमायाति याति च । 
अर्थात-नित्य अभिवादनशील एवं वृद्धों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु , विद्या , यश और बल ये चारों चीजें बढ़ती हैं ऐसी उद्घोषणा करने वाली संस्कृति व्यवहार की मार्यादाओं को मानकी कृत करती रही है ।

3- समन्वय प्रधान - 
भारतीय संस्कृति की विशेषताओं में एक प्रमुख उसका लचीलापन भी है । इसमें कट्टरता का सर्वथा अभाव है । अपने आपको सर्वथा शुद्ध - संयत रखते हुए भी दूसरे से घृणा एवं उपेक्षा का भाव यहाँ नहीं रहा है । दूसरे के अच्छे विचारों को ग्रहण करके अशुभ व अमंगल से दूर रहना यहाँ की मूल प्रवृत्ति रहीं । बाहर से आनेवाले विविध धर्मों तथा मतन्मतान्तरों के साथ भारतीय संस्कृति में टकराव नहीं रहा है ।

सभी अच्छी बातों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति यहाँ पुरातन काल में ही विद्यमान रही है । भारत - भूमि पर इसी समन्वय प्रधान संस्कृति के प्रकाश में नाना धर्म , विचार , पंथ , विश्वास मत तथा उपासना पद्धतियाँ फलती - फूलती रहीं है । ' एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति ' एक ही सत्य तत्व को विद्वान विभिन्न तरीकों से कहते हैं । इसलिए सत्य सब के साथ है । उसी परम सत्य को सदैव ग्रहण किया जाना चाहिए । आपसी भेद - भाव व टकराव मिथ्या है । 

यही कारण है कि भारतीय धार्मिक विश्वास के अन्तर्गत कोई एक विशिष्ट देवी - देवता अथवा कोई एक ही ग्रंथ विशेष उपासना का आधार कभी नहीं रहा है । सभी की समान रूप से भारतवासी अपनी - अपनी रूचि के अनुरुप उपासना करते रहे हैं । तो यही मान्यता रही है कि जिस प्रकार सभी नदियों एवं छोटी - छोटी सरिताओं न अलग - अलग दिशाओं में आकर एक ही समुद्र में समा जाता है , उसी वभिन्न मत - मतान्तरों एवं धर्म - पंथों के अनुयायियों द्वारा की गई अलग कार की उपासनाएँ सभी उस एक परमात्मा को ही प्राप्त होती रहती है ।

4- लोक मंगल प्रधान - 
भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत समस्त विश्व के प्राणिमात्र की कामना की गई है । सब सुखी हो । सब नीरोग हों , सभी अच्छाई का आचरण करें , कहीं भी कोई दुखी न रहे - ऐसी कामना यहाँका करता है । यह सारा ससार सुखी रहे । " लोका समस्ता सखिनो भवन संगल ही भारतीय संस्कृति का चरम लक्ष्य है । व्यक्ति निर्माण से विश्व निर्माण यह परिपाटी भारतीय संस्कृति की मूल परिपाटी रही है । भू लोक से अन्तरिक्ष लोग तक की शान्ति की कामना करने वाला भारतीय पृथ्वी , जल , वनस्पति और व्यक्ति , देश सभी की शान्ति सौख्य की कामना करता है । सबके मंगल के मंगल सबके हित में अपना हित , सबके सुख में अपना सुख यही विश्वास अनादिकाल से इस भारत - भूमि के सामान्य साधक का । यह सारी पर माता है ।

परमपिता परमात्मा हमारा पिता , हम हमेशा माँ की गोद में । ख यही विश्वास रहा है ह सारी धरती हमारी गोद में है , प्रभु का साया हम सबके ऊपर है , फिर हमें डर किस बात का , ऐसी निर्भयता हमारी सांस्कृतिक विरासत है ।
' धरती माता सबकी माता परम पिता परमेश्वर है । 
माँ की गोद , पिता की छाया , बोलो फिर किसका डर है । '

हमारे ऋषियों हमेशा - हमेशा यही कामना की है ---
"क्षीरण्य सन्तु गावो भवत् , वसुमती सर्वसम्पन्नशस्याः । "

हमारी गायें दूध देने वाली हों , हमारी यह पृथ्वी धन - धान्य से पूर्ण हो । यही हमारी प्रार्थना रही है ।

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