Monday 13 April 2020

महर्षि वाल्मीकि जी का जीवन परिचय एवं प्रेरणादायक विचार और वाल्मीकि जयन्ती विशेष, Valmiki jubilee

महर्षि वाल्मीकि जी का जीवन परिचय एवं प्रेरणादायक विचार और 

वाल्मीकि जयन्ती विशेष

Introduction and inspirational thoughts of Maharishi Valmiki ji and special 

Valmiki jubilee
Maharshi Valmeeki

हिन्दी अर्थ, संस्कृत भावार्थ सहित समाहित करने का छोटा सा प्रयास किया गया है।Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।gyansadhna.com

महर्षि वाल्मीकि एक ऐसी ऋषि है जिन्होंने भारत वर्ष ही नही समस्त विश्व को अपने ज्ञान से प्रेरित किया।
आइए जानते है, महर्षि वाल्मीकि जी का जीवन चरित्र  व वाल्मीकि जयंती कब मनाई जाती है, और वाल्मीकि रचित रामायण के बारे में, 

आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के जन्म दिवस पर मनाये जाने वाले त्यौहार को वाल्मीकि जयंती कहा जाता है।भारत के सभी समुदाय के लोग इनके जन्मोत्सव को बढे प्रेम पूर्वक मनाते है।
इसी दिन तीन अन्य प्रसिद्ध त्यौहार भी आते है----
1- शरद पूर्णिमा, 
2- टेसु पुणे
3- कोजागरी लक्ष्मी पूजा 

भारत देश के विभिन्न जगहों पर मनाए जाते हैं।

महर्षि वाल्मीकि को संस्कृत भाषा के महानतम महाकाव्य रामायण के लेखक के रूप में जाना जाता है। देवी सीता ने उनके द्वारा दिए आश्रय के दौरान जुड़वां बेटे कुश और लव को आश्रम में ही जन्म दिया था। शुरुआत में वह रत्नाकर नामक एक राजमार्ग डाकू थे। जिनके भय से लोग कांपा करते थे।

महर्षि वाल्मीकि जीवन परिचय 
(Maharshi Valmiki Jeevan parichay )
Maharshi Valmeeki

1- नाम               = महर्षि वाल्मीकि
2- वास्तविक नाम = रत्नाकर
3- पिता का नाम   = प्रचेता
4- जन्म दिवस   = आश्विन पूर्णिमा
5- पेशावर डाकू  =  महाकवि
6= प्रसिद्ध रचना  = महा काव्यरामायण

वाल्मीकि जी के जीवन से जुड़ी प्रेरणादायक बातें--
महर्षि वाल्मीकि का नाम रत्नाकर था और उनका पालन जंगल में रहने वाली भील जाति में हुआ था, जिस कारण उन्होंने भीलों की परंपरा को अपनाया और आजीविका के लिए डाकू बन गए, अपने परिवार के पालन पोषण के लिए वे राहगीरों को लुटते थे, एवम जरुरत होने पर मार भी देते थे. इस प्रकार वे दिन प्रतिदिन अपने पापो का घड़ा भर रहे थे।

एक दिन उनके जंगल से नारद मुनि निकल रहे थे।उन्हें देख रत्नाकर ने उन्हें बंधी बना लिया, नारद मुनि ने उनसे सवाल किया कि तुम ऐसे पाप क्यूँ कर रहे हो ? रत्नाकर ने जवाब दिया अपने एवम परिवार के जीवनव्यापन के लिए तब नारद मुनि ने पूछा जिस परिवार के लिए तुम ये पाप कर रहे हो, क्या वह परिवार तुम्हारे पापो के फल का भी वहन करेगा ?

इस पर रत्नाकर ने जोश के साथ कहा हाँ बिलकुल करेगा. मेरा परिवार सदैव मेरे साथ खड़ा रहेगा, नारद मुनि ने कहा एक बार उनसे पूछ लो, अगर वे हाँ कहेंगे तो मैं तुम्हे अपना सारा धन दे दूंगा. रत्नाकर ने अपने सभी परिवार जनों एवम मित्र जनों से पूछा, लेकिन किसी ने भी इस बात की हामी नहीं भरी इस बात का रत्नाकर पर गहरा आधात पहुँचा और उन्होंने दुराचारी के उस मार्ग को छोड़ तप का मार्ग चुना एवम कई वर्षो तक ध्यान एवम तपस्या की, जिसके फलस्वरूप उन्हें महर्षि वाल्मीकि नाम एवम ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने संस्कृत भाषा में महा काव्य रामायण महा ग्रन्थ की रचना की है जो विश्व मे प्रसिद्ध है।

आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी के बचपन की घटनाएं--
Childhood events of Adi poet Maharshi Valmiki ji

प्राचीन, व पौराणिक कथाओं में वर्णित है कि महर्षि वाल्मीकि का मूल नाम रत्नाकर था और इनके पिता परमेश्वर ब्रह्माजी के मानस पुत्र प्रचेता थे। एक भीलनी ने बचपन में इनका अपहरण कर लिया था और फिर भील समाज में इनका लालन पालन हुआ। भील परिवार के लोग जंगल के रास्ते से गुजरने वालों को लूट लिया करते थे।

आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी का जीवन परिचय 
Introduction of the life of Adi poet Maharshi Valmiki ji
Maharshi Valmeeki

महर्षि वाल्मीकि रसायन भृगुवंशोत्पन्न एक मुनि जो जगत् विख्यात रामायण के रचयिता कहे जाते हैं । व्यासदेव ने वृहद्धर्म पुराण में इनकी तथा इनके रामायण की प्रशंसा की है । वाल्मीकि रामायण पर अगणित प्राचीन टीकाएँ लिखी गई हैं । 

महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण से इनका जन्म हुआ । इनकी माता चर्षणी और भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे । वरुण का एक नाम प्रचेता भी है । इसलिए वाल्मीकि प्राचेतस नाम से विख्यात हैं । तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णित ब्रह्मविद्या वरुण और भृगु के संवाद के रूप में है । इससे स्पष्ट है कि भृगु के अनुज वाल्मीकि भी परम ज्ञानी और तपस्वी ऋषि थे ।

मत्स्यपुराण में इन्हें भार्गवसत्तमं से स्मरण करते हैं तथा भागवत में इन्हें महायोगी कहा गया है । मनु स्मृति  में इनके पिता प्रचेता को वसिष्ठ , नारद , पुलस्त्य आदि का भाई लिखा है । - दशमेश गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दशमग्रन्थ में वल्मीक को ब्रह्मा का प्रथम अवतार कहा गया है । उग्र तपस्या तथा ब्रह्मचिन्तन में इनको देहाभास भी नहीं रहा । इसी कारण इनके सार शरीर को दीमक ने ढक लिया । तपस्या पूर्ण होने पर यह दीमक के वाल्मीकि में से बाहर निकले , तभी से इनका नाम वाल्मीकि हो गया । इनका आश्रम तमसा नदी के तट पर था । महर्षि की अद्भुत कविता एवं अन्यान्य महत्ता में इनकी तपस्या ही हेतु है । चिरकाल से आस्तिकों की ऐसी मान्यता है कि वेदवर्णित परम पुरुषोत्तम के राम रूप में अवतीर्ण होने पर साक्षात वेद ही श्री वाल्मीकि जी के मुख से श्री रामायण रूप में प्रकट हुए ।

 इसीलिए श्रीमद् वाल्मीकिय रामायण की वेद तुल्य ही प्रतिष्ठा । 

वाल्मीकि आदि कवि हैं और इस दृष्टि से विश्व के समस्त कवियों के गुरु ह । उनका आदि काव्य भूतल का प्रथम काव्य है । यह समस्त काव्यों का बीज है ( काम बीजं सनातनम् - वृहद्धर्मपुराण कवि कुल तिलक कालिदास ने रघुवश , आदि कवि को दो बार स्मरण किया है । भवभूति को यद्यपि करुणा रस का आचा माना जाता है किन्तु उन्होंने भी इसकी शिक्षा आदि - कवि से ही ली , ऐसा उन्होंने अपन उत्तर रामचरित के दूसरे अंक में ( प्राचेतसमर्षि उपासते ) स्वीकार किया है । सुभाष पद्धति के निर्माता शार्ङ्गधर , महाकवि भास , आचार्य शंकर , रामानुजाचार्य और राजाना आदि परवर्ती विद्वान , इनका बार - बार श्रद्धा पूर्वक स्मरण करके इनके प्रति अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते हैं ।

हिन्दी साहित्य के प्राण गोस्वामी तुलसीदास जी तो
 " वंदौमुनिपदकंज रामयन जेहि निर्मएउए " 

वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना आदि बहुत से पदों में बार - बार इनको नमन करते हैं । तपस्वी वाल्मीकि जी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारद से पूछा कि इस समय संसार में गुणवान , वीर्यवान , धर्मज्ञ , उपकार मानने वाला , सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है , नारद जी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा कि इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न एक ऐसे पुरुष हैं जो लोगों में राम नाम से विख्यात हैं ।

उनका चरित्र आपकी लेखनी से संसार के समक्ष आए तो जो उस रामचरित को पढ़ेगा वह सब पापों से मुक्त हो जाएगा । देवर्षि नारद के उपर्युक्त वचन सुनकर वाणी विशारद धर्मात्मा ऋषि वाल्मीकि जी ने अपने शिष्यों सहित सबको प्रणाम करके विदा किया । उनके पधारने के दो ही घड़ी बाद वे यज्ञादि की समिधा लेने तमसा नदी के तट पर गए । वहाँ नियम परायण उनके शिष्य भारद्वाज ऋषि ने उनको वल्कल वस्त्र दिए । नदी के किनारे एक क्रौञ्च पक्षियों का जोड़ा विचर रहा था , उसी समय एक निषाद ने आकर उस जोड़े में से एक को अपने बाण से मार डाला ।

व्याध के तीर से बिंधे क्रौञ्च के लिए विलाप करने वाली क्रोञ्ची का करुणाद्र स्वर सुनकर , ध्यानस्थ ऋषि के मुँह से अनायास ही वेदना का स्रोत निम्नांकित श्लोक के माध्यम से फूट पड़ा था -
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समा : । 
यत् क्रौचमिथुनादेकभवधीः काम मोहितम । । 

आश्रम में लौटने पर महर्षि इसी श्लोक पर विचार कर रहे थे तभी अखिल विश्व की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी उनके आश्रम पर आए और उनकी मन : स्थिति को समझकर इस प्रकार बोले , हे ब्रह्मन ! तुम्हारे मुँह से निकला हुआ यह छन्दोबद्ध वाक्य श्लोक रूप होगा - मुनिश्रेष्ठ अब तुम इसी छन्द में श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो ।

 इस प्रकार शाप के रूप में उद्घोषित यह शोकयुक्त श्लोक ही विश्व साहित्य की प्रथम कविता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ ।

काव्य शास्त्र के प्रसिद्ध प्रणेता आनन्दवर्धन ने रस को काव्य की आत्मा निरूपित करते हुए लिखा है--

काव्यस्यात्मा स स्वार्थस्तथा चादि कवेः पुरा । 
क्रोंच द्वन्द्व वियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागत ।। 

इसका अर्थ है - काव्य की आत्मा रस ही है जो आदि कवि के महाकाव्य रामायण में समग्रता से विद्यमान है । क्रौञ्च पक्षी के जोडे में से एक के वियोग से उत्पन्न , जिनका शोक ही श्लोक बन गया था । भगवान राम द्वारा सीता जी को निर्वासित करने के उपरान्त वाल्मीकि ने ही उन्हें अपने आश्रम में शरण दी ।

" उत्तर रामचरित " काव्य के अनुसार सीता को निर्वासन देने के लिए आए लक्ष्मण जी से महर्षि वाल्मीकि कहते हैं ---
 " मैं प्राचेतस का दसवाँ पुत्र हूँ । तुम तथा राम लोकनिन्दा से डरते हो । सीता यहाँ गर्भवती आई हैं । वह सर्वथा निर्दोष हैं । इसे मैं प्रमाणित करूँगा "

इससे सिद्ध होता है कि वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे । तुलसीदास जी ने भी उल्लेख किया है कि वन गमन के समय राम महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम में जाकर रुके थे और उन्होंने राम को रहने का स्थान बताया था ।

महर्षि वाल्मीकि के निर्देशन में ही लव - कुश की शिक्षा - दीक्षा हुई । ऋषि ने उन दोनों बालकों को शस्त्र - शास्त्र के साथ संगीत की भी शिक्षा दी थी । उन्हें पूरी रामायण कण्ठस्थ भी करा दी गई थी । किशोरावस्था में राम कथा का गायन करते हुए दोनों . किशोर राजदरबार में पहुँचे थे और वहाँ उन्होंने श्रीराम को इसे सुनाया था ।

वाल्मीकि कृत रामायण में चौबीस हजार श्लोक और पाँच सौ अध्याय हैं । यह सात काण्डों में विभाजित है । इसे चतुर्विशति साहस्त्री भी कहा जाता है । महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण जीवन के शाश्वत मूल्यों पर आधारित महाकाव्य है , इसलिए यह शाश्वत महत्व का काव्य है । इसमें मानव मूल्यों की पुनर्स्थापना की क्षमता है जो भटकी हुई पीढ़ी को नई राह दिखा सकता है ।

महर्षि वाल्मीकि ने ही सर्वप्रथम मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था । इसी को भगवान गौतम बुद्ध ने मझ्झिम - प्रतिपदा कहकर उसे स्वर्णिम मार्ग के रूप में निरूपित किया था । महर्षि वाल्मीकि ने रामकथा की अजस्र धारा प्रवाहित कर भारतीय संस्कृति को अजर - अमर कर दिया । भारतीय संस्कृति के आधारभूत सभी गुणों का समावेश होने के कारण इनका यह काव्य सर्वाधिक लोकप्रिय अजर - अमर , दिव्य तथा कल्याणकारी है ।

श्री ब्रह्माजी स्वयं कहते हैं---- यावत्स्थास्यन्ति गिरयः महीतले । तावत् रामायण कथा , लोकेषु प्रचरिष्वति । । 

जब तक पृथ्वी पर नदियाँ और पहाड़ हैं , तब तक रामायण कथा का लोक में प्रचार रहेगा ।
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