Tuesday 28 April 2020

महात्मा संत कबीरदास जी का जीवन परिचय व व्यक्तित्व तथा विस्तृत जीवन चरित्र का वर्णन

महात्मा संत कबीरदास जी का जीवन परिचय व व्यक्तित्व तथा विस्तृत जीवन चरित्र का वर्णन 
Life introduction and personality and detailed life character of Mahatma Sant Kabirdas ji
Kaveer das

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महात्मा संत कबीर दास जी  का जन्मस्थान एवं जन्म दिनांक विवादास्पद है । यह केवल एक किंवदंती है जिसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि एक विधवा ब्राह्मणी ने अपने नवजात शिशु को सामाजिक लांछना के डर से काशी में लहरतारा सरोवर के तट पर छोड़ा था । वहाँ से नीरू और नीमा नामक जुलाहे दम्पत्ति ने इस नवजात शिशु को पालपोसकर बड़ा किया ।

श्री रामकुमार वर्मा ने कबीर का जन्म सम्वत् 1455 में ज्येष्ठ शुक्ला 15 को माना है । कबीर बचपन से ही विलक्षण बुद्धि एवं प्रतिभा के धनी थे किन्तु पारिवारिक अर्थाभाव के कारण ये विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके । दूसरा कारण उन दिनों के रूढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था में जुलाहा जाति के लिए सार्वजनिक शिक्षा का क्षेत्र वर्जित था । पर इन्हें सत्संग द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में गहरी अभिरुचि थी ।

वयस्क होकर कबीर ने आजीविका के लिए पारम्परिक जुलाहा व्यवसाय को ही कायम रखा । इनकी पत्नी का नाम लुई तथा पुत्र का नाम कमाल था । कबीर बचपन से ही सद्गुरु की खोज में प्रयत्नरत थे । अन्ततः उन्होंने स्वामी रामानन्द से कण्ठी व माला धारण की तथा राम मंत्र की दीक्षा लेकर वैष्णव भक्त बने ।

कबीर ईसवीं 14 वीं शताब्दी के अन्त के समय पैदा हुए थे । इन दिनों भारत की राजनैतिक , सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ बड़ी विपदाग्रस्त थीं । रूढ़िवादिता के कारण जातिगत मनोमालिन्य बढ़ता जा रहा था । धर्म का आधार कर्मकाण्ड बनता जा रहा था , नैतिकता का स्थान पाखंडता ने ले लिया था तथा बाहरी वेश तथा आचार की विविधता ही सामाजिक स्तर का मूल्यांकन कर रही थी । कट्टर एकेश्वरवादी मुसलमानों ने धर्मसहिष्णु हिन्दुओं के बहुदेव वाद के विरुद्ध , मूर्ति भंजक का क्रूर रूप धारण कर , उनका कत्लेआम मचा रखा था । ऐसे समय महात्मा कबीर ने निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के माध्यम से भारतीय एवं सूफी परम्पराओं का समन्वय किया तथा सामाजिक एकता स्थापित की ।

कबीर ने सार्वजनिक जीवन की शुद्धि के लिए वर्ण - भेद , जातिभेद , संकीर्ण साम्प्रदायिकता तथा पाखण्ड का विरोध कर सार्वभौम मानव प्रेम को ही धर्म का सच्चा स्वरूप बताया । उन्होंने ईश्वर की सर्व व्यापकता तथा राम रहीम की एकता का प्रतिपादन कर , हिन्दू मुसलमानों में सद्भाव स्थापित करने का प्रयास किया । वे निर्गुण एवं निराकार ईश्वर के उपासक थे । उनके भक्ति मार्ग में रहस्यवाद की स्पष्ट झलक दिखाई देती है ।

कबीर स्वयं तो पढ़े लिखे नहीं थे इसीलिए उन्होंने अपने विषय में कहा है --
"मासि कागद छुयो नहिं , 
कलम गयो नहीं हाथ । "

- उनके शिष्यों ने ही उनके उपदेशों तथा रचित पदों का संग्रह किया जो बीजक के नाम से प्रसिद्ध है । 

बीजक के ही तीन भाग हैं - सा
खी , सबद और रमैनी । 

कबीर बड़े फक्कड़ एवं स्पष्ट वक्ता थे । उन्होंने निर्भय होकर हिन्दू और मुसलमान दोनों के पाखंडी स्वरूप पर क्रूरता से प्रहार किया । परिणाम यह हुआ कि स्वार्थी पंडित एवं मौलवी इनके विरोधी बन गए ।

संवत् 1553 में सिकन्दर लोदी ने इन्हें दिल्ली बुलवाकर अनेक यातनाएँ दीं । कहा जाता है कि सिकन्दर लोदी ने उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए विवश किया । जब वे नहीं माने तब उनके हाथ , पैर बांधकर लोहे की जंजीरों में जकड़कर नदी में डाल दिया । पर कबीर को कोई डुबा न सका । फिर उन्हें खुले मैदान में खड़ाकर क्रूर हाथियों को उन पर छोड़ा गया किन्तु ज्यों ही हाथी कबीर के पास पहुँचे राम - राम का स्वर सुनकर सूंड उठाकर कबीर को प्रणाम करने लगे ।

अन्तत : कबीर के चमत्कारी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सिकन्दर लोदी ने भी न्हें मुक्त कर दिया ।

पंडितों के विरोध के कारण अन्त समय कबीर का काशी में रहना असंभव हो या । अंत में मृत्यु के समय वे मगहर चले गए । सामाजिक दुर्गुणों का बहिष्कार करने के साथ , कबीर ईश्वर चिन्तन के पथ से कभी विमुख नहीं हुए । उन्होंने ईश्वर के सर्व व्याप्त रूप का दर्शन किया और उसी स्वानुभव को जन साधारण तक पहुँचाया ।

उस निराकारी ईश्वर की असीम शक्ति एवं सर्वत्र प्रवास को कबीर ने इस प्रकार व्यक्त किया है--- 
"लाली मेरे लाल की , 
जित देखऊँ तित लाल , 
लाली देखन मैं गई , 
मैं भी हो गई लाल ।"

कबीर ने राम के रूप में ऐसे ईश्वर की कल्पना की जो सबके लिए थी ---
" कहै कबीर एक राम जपहु रे , 
हिन्दू तुरकन दोई " 

उन्होंने कहीं - कहीं विरोधात्मक रूप से भी अपने दर्शन का प्रचार किया है जो " उल्ट वासियाँ " के नाम से प्रसिद्ध है । इन रचनाओं में कबीर ने स्थूल भाषा के माध्यम से सूक्ष्म तत्व की ओर इंगित किया है ।
जैसे ---
"बरसे कम्बल , भीजे पानी ।
अथवा - नाव बिच नदिया डूबी जाय । 

इस तरह इस महान सन्त कवि ने अपनी प्रखर रचनाओं द्वारा सामाजिक जागरण का महान कार्य सम्पन्न किया तथा 119 वर्ष की आयु पूर्ण कर संवत् 1574 में काशी के समीप स्थित मगहर में अपनी इहलीला समाप्त की ।

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