Thursday 16 April 2020

महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व ,जीवन परिचय, वीरता तथा रोचकव ज्ञानवर्धक तथ्य और हल्दीघाटी युद्ध के ऐतिहासिक तथ्य,Haldighati war

महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व ,जीवन परिचय, वीरता तथा रोचकव ज्ञानवर्धक तथ्य और हल्दीघाटी युद्ध के ऐतिहासिक तथ्य Maharana Pratap's personality, life introduction, valor and interesting informative facts and historical facts of Haldighati war
Maharana prtap

महाराणा प्रताप की संक्षिप्त जीवनी 
Brief biography of Maharana Pratap
पूरा नाम  = ‌‌‌‌‌‌‌महाराणा प्रताप
जन्म तिथि  =  9 मई, 1540 ई.
जन्म स्थान  = कुम्भलगढ़, राजस्थान
मृत्यु तारीख  29 जनवरी, 1597 ई.
माता पिता     = महाराणा उदयसिंह,(पिता),  रानी जीवत कुंवर ( माता)
राज्य की सीमा  =  मेवाड़
शासन काल   = 1568-1597 ई.
शासन अवधि    = 29 वर्ष
धार्म  = हिंदू धर्म
युद्ध   = हल्दीघाटी का 
राजधानी  =  उदयपुर
पूर्वाधिकारी   = महाराणा उदयसिंह
राजघराना   = राजपूताना
वंशज  = सिसोदिया राजवंश

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महाराणा प्रताप के(13) ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायक व हैरान करने वाले रोचक तथ्य --

1- 16 बच्चों के पिता थे महाराणा प्रताप ।

2- महाराणा प्रताप की वीरता देखो अपने सीने पर लेकर चलते थे 72 किलो का कवच

3- संसाधन कम होने के बावजूद भी मुगलों को नाकों चने चबवाने वाले महान योद्धा थे महाराणा प्रताप ।

4- महाविनाश वाला (महाभारत) जैसा हल्दीघाटी युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को हुआ था।

5- हल्दीघाटी युद्ध ऐतिहासिक बना इसका रहस्य यह है कि इसमें न तो अकबर जीत सका और न ही महाराणा हारे ।

6- वीर योद्धा महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो का था ।

7- महाराणा प्रताप के भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन कुल मिलाकर 208 किलो था ।

8- हल्दी घाटी युद्ध के समय महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20000 सैनिक  और अकबर के पास 85000 सैनिक थे ।

9- एक युद्ध के दौरान मानसिंह के साथ 10 हजार घुड़सवार और हजारों पैदल सैनिक थे, किन्तु महाराणा प्रताप के साथ केवल 3 हजार घुड़सवारों और मुट्ठी भर पैदल सैनिक थे।


10-   रास्ते में एक पहाड़ी नाला बहता था,चेतक भी घायल हो चुका था पर चेतक छलांग मार नाला फांद गया, महाराणा की जान बचाकर चेतक खुद शहीद हो गया।

11- घास की रोटियां महाराणा प्रताप  की पत्नी और उनकी पुत्रवधू ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियां बनाईं,उनमें से आधी रोटियां बच्चों को दे दी गईं और बची हुई आधी रोटियां दूसरे दिन के लिए रख दी गईं।

12- महाराणा प्रताप की अकबर भी तारीफ किए बिना नहीं रह सका
यह देखकर कि वे जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें खा रहे थे, और महाराणा ने धन और भूमि को छोड़ दिया, पर उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया ।

13- महाराणा प्रताप कुल 11 बीवियां थीं और महाराणा की मृत्यु के बाद सबसे बड़ी रानी महारानी अजाब्दे का बेटा अमर सिंह प्रथम राजा बना।

महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व व जीवन परिचय
Maharana Pratap's personality and life introduction
Maharaprtap ka ghora

महाराणा प्रताप स्वतंत्रता के अप्रतिम पुजारी महाराणा प्रताप मेवाड़ के सिसोदिया वंश में उत्पन्न हुए थे । उनके पिता महाराणा उदयसिंह थे , बनवीर के षड्यंत्र से सुप्रसिद्ध स्वामिभक्त दासी पन्ना धाय ने अपने पुत्र चन्दन की बलि देकर उनकी जीवन रक्षा की थी ।

महाराणा प्रताप का जन्म विक्रमी संवत् 1597 ज्येष्ठ सुदी तृतीया रविवार सन् 1540 ई . में हुआ था । उनका माता जयवन्ती बाई पाली के प्रतिष्ठित सरदार अरखयराज सोनगरा की पुत्री . जयवन्ती बाई थीं । राणा उदयसिंह के पुत्रों में प्रताप ज्येष्ठ थे ।

महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद शौर्य की मूर्ति महाराणा प्रताप ने विक्रमी संवत् 1628 फाल्गुन शुक्ल तदनुसार 3 मार्च 1572 को चित्तौड से 19 मील उत्तर पश्चिम में म का अपनी राजधानी बनाकर मेवाड का शासन संभाला । महाराणा उदयसिंह ने धन से पूर्व जगमल्ल को उत्तराधिकारी चुना था पर मेवाड़ के तत्कालीन मंत्री त सरदार कृष्ण सिंह तथा प्रमुख सेनापति झालाराव के उद्योग से फाल्गुन सुदी 15 विक्रमी सवत् 1628 को गोगुन्दा में प्रताप का राजतिलक किया गया ।

महाराणा प्रताप सिसोदिया वंश के थे , जो अपने आपको सूर्यवंशी मानते हैं । उनके कुल काति इस बात से प्रमाणित होती है कि वह सदैव कहा करते थे कि यदि मरे मध्य में मेरे पिता न आए होते , तो दिल्ली चित्तौड़ की चरणों में होती ।

महाराणा उदयसिंह के समय दिल्ली में मुगल बादशाह अकबर का शासन था । अकबर ने येन - केन प्रकारेण राजपूत राजाओं से मित्रता स्थापित कर भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनने का सपना संजोया था । राजपूताने के राजा मानसिंह जैसे अनेक राजाओं ने अकबर के झांसे में आकर अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली । केवल मेवाड का सिसोदिया राजकुल ही ऐसा था , जिसने मुगलों से हमेशा लोहा लिया था ।

1567 - 69 में राणा उदय सिंह के शासन काल में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था । यद्ध में मूर्छित राणा को बन्दी बनाकर मुगल अपने शिविर में ले गए थे । तब उनकी पत्नी वीरांगना वीरा ने दल बल सहित शत्रु शिविर पर धावा बोलकर राणा को मुक्त कराया था ।

उसके बाद राणा प्रताप , चित्तौड़ के किले से निकलकर जंगलों में चले गए थे । - सिंहासन पर आसीन होते ही राणा प्रताप ने मातृ भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए यह दृढ़संकल्प लेते हुए कहा था - " चित्तौड़ को स्वतंत्र करने तक मैं सोने - चाँदी की थाली में भोजन नहीं करूँगा । मुलायम गद्दी पर नहीं सोऊंगा , राज - प्रासाद में वास्तव्य नहीं करूंगा । इनके स्थान पर मैं पत्तल में भोजन करूँगा , जमीन पर सोऊंगा , झोपड़ी में वास करूंगा और चित्तौड़ को जब तक स्वाधीन नहीं करा लेता , तब तक दाढ़ी नहीं कटवाऊँगा ।

" महाराणा का यह दृढ़ निश्चय देखकर अब्दुलरहीम खानखाना ने कहा था " ध्रमरहसी , रहसीधए खिसजासे खुरसाणा , अमर विसंभर ऊपर रखियो नहचो राणा " अर्थात धर्म रहेगा , पृथ्वी भी रहेगी , पर मुगल - साम्राज्य एक दिन नष्ट को जाएगा - हे राणा विशम्भर भगवान का भरोसा करके अपने निश्चय को अटल रखना ।

उन्होंने जीवनभर इस प्रतिज्ञा का निर्वाह किया । उन्हें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा पर वे कभी विचलित नहीं हुए । वे अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ दर - दर जंगलों में भटकते रहे पर उन्होंने हार नहीं मानी ।

अकबर को मेवाड की स्वाधीनता गले में कांटे की तरह खटकती थी । अत : उसने महाराणा प्रताप को उनकी आधीनता स्वीकार कराने के लिए तरह - तरह से अनेक प्रलोभन दिए । राजा मानसिंह को उन्हें मनाने भेजा पर महाराणा प्रताप अपने संकल्प पर अडिग रहे ।

अत : अकबर ने राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में 18 जून 1576 का मेवाड पर आक्रमण कर दिया । हल्दी घाटी नामक स्थान पर श्रावण बदी7 संवत 1633 को भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध में अकबर की सेना में 80 हजार सैनिक थे जबकि महाराणा प्रताप के पास कुल 22 हजार योद्धा थे । जीतते जीतते राणा प्रताप पराजित होने लगे तब . वीर झाला सरदार ने , राणा का ध्वज मुकुट अपने सिर पर रखकर , स्वयं को राणा प्रताप घोषित कर युद्ध किया ।

महाराणा प्रताप चेतक नामक घोड़े पर सवार होकर रणक्षेत्र से बाहर आए किन्तु हल्दी घाटी से दो मील दूर बलिया नामक गाँव के पास एक घाटी को पार करते हुए चेतक ने भी वीरगति पाई । - इस भयंकर हार के बाद भी राणाप्रताप निराश नहीं हुए । भामाशाह की सहायता से उन्होंने पुनः सेना संगठित की । दानवीर भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण सम्पति उन्हें दान में दे दी थी ।

इस नवगठित सेना की सहायता से महाराणा प्रताप ने मुगलों के साथ फिर अनेक युद्ध किए और चित्तौड़ , अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सारे मेवाड़ पर पुनः अधिकार कर लिया ।

संभवतः वे भारतमाता को स्वतंत्र कराने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते पर सन् 1597 ई . की 19 जनवरी को उनका शरीरान्त हो गया परन्तु अरावली के कण कण में महाराणा का जीवन चरित्र अंकित है जो शताब्दियों तक पतितों , पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिए प्रकाश का काम देगा । उस समय उनकी आयु मात्र 57 वर्ष की थी । इस महान सेनानायक की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसने ऐसे समय स्वतंत्रता की लौ जगाए रखी जब अधिकांश भारतीय वीर आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान त्यागकर मुगल सम्राट अकबर की मीठी , पर जहर भरी नीति के कारण अपनी स्वतंत्रता को उसके पास गिरवी रखते चले जा रहे थे । उन्होंने अपने दृढ़ चरित्र बल स यह सिद्ध कर दिया कि मातभमि की स्वतंत्रता के समक्ष कोई भी कष्ट या दुख बड़ा नहीं हैं ।

राणा प्रताप के इस बेसमय अवसान पर सम्पूर्ण भारत विहवल हो उठा ।

उनकी गौरवगाथा का वर्णन श्याम नारायण पाण्डेय ने इन शब्दों में किया है---
" भरा हुआ था उर प्रताप का गौरव की चाहों से । 
फूक दिया अपना शरीर हम द : खियों की आहों से । 
जग - वैभव - उत्सर्ग किया भारत का वीर कहाकर । 
माता - मुख लाली प्रताप ने रख ली लहू बहाकर । 
कल रही जिसकी समाधि से स्वतन्त्रता की आगी । 
यही कहीं पर छिपा हुआ है वह स्वतन्त्र - वैरागी ।

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