Tuesday 28 April 2020

संत रविदास जयंती, रविदास जी रचनाएँ व व्यक्तित्व तथा विस्तृत जीवन चरित्र का वर्णन,Sant Ravidas Jayanti, description of Ravidas ji

संत रविदास जयंती, रविदास जी रचनाएँ व व्यक्तित्व तथा विस्तृत जीवन चरित्र का वर्णन
 
Sant Ravidas Jayanti, description of Ravidas ji compositions and personality and detailed life character
Raidas Jayanti 

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संत रविदास का जन्म संवत् 1456 वि . के आस - पास अनुमानित किया जाता है । यद्यपि इतिहासज्ञ इनका जन्म संवत् 1470 मानते हैं । उनका जन्मदिन रविवार को था तथा उस दिन माघी पूर्णिमा थी । वे बनारस के निकट मंडुआ डीह के रहने वाले थे तथा महाकवि कबीर के समकालीन थे ।

वे अपने विषय में स्वयं लिखते हैं-- 
"काशी ढिग मांडुर स्थाना ,
शूद्र वरण करत गुमराना ,
नगर लीन अवतारात ,
रविदास शुभ नाम हमारा ।

कुछ लोगों द्वारा काशी स्थित गोपाल मंदिर को रैदास जी का जन्म स्थल माना जाता है । उनके पिता का नाम मानदास था । वे जाति से चर्मकार थे । रैदास पुराण में उनकी माता का नाम भगवती और रैदास रामायण में उनके पिता का नाम रघ्प्पु ( राघव ) और माता का नाम कर्मा बतलाया गया है । उनकी पत्नी का नाम लौणा या लोना था ।

संत रविदास बचपन से ही संत प्रकृति के थे , 12 वर्ष की अवस्था में ही है सीताराम की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा किया करते थे । उन्हें किसी पाठशाला या विद्यालय में औपचारिक शिक्षा कभी प्राप्त नहीं हुई । उन्होंने समूचा ज्ञान गुरु कृपा , सत्संग , पर्यटन , वातावरण और अन्तरज्ञान से प्राप्त किया वे एक पद में अपने मन को हरि की पाठशाला में पढ़ने का आदेश देते हुए कहते हैं --
(चलि मन हरि चरताल पढ़ाऊँ)

उनके गुरु स्वामी रामानन्द थे । महात्मा कबीर इनके बड़े गुरु भाई थे । संत रविदास के जीवन से प्रभावित होकर मीरा बाई ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया था । वे एक बार चित्तौड़ भी गए थे । उनके सम्मान में ही श्याम जी का मन्दिर तथा तालाब बनवाया गया । उस स्थान पर आज भी रैदास की छत्तरी बनी हुई है । उसमें रैदास के चरण चिह्न अंकित हैं । चित्तौड़ की रानी मीरा की सास रानी झाली ने भी इन्हीं से दीक्षा ली थी ।

संत रविदास चर्मकार थे पर इस व्यवसाय में उनकी कोई रुचि नहीं थी । वे व्यवसाय करते हुए भी उससे निस्पृह रहते थे । उनका अधिकांश समय और धन साधू सेवा में व्यय होता था । वे कभी किसी पशु को मारकर उसका जूता नहीं बनाते थे बल्कि वे मरे हुए जानवरों का चमड़ा खरीदकर जूते बनाते थे तथा साधू संतों से जूते के पैसे नहीं लेते थे ।

 अपने आरम्भिक जीवन में उन्होंने तीर्थाटन एवं यात्राएँ की । हरिद्वार , मथुरा और वृन्दावन उनके प्रिय तीर्थ थे । एक बार वे तिरूपति में भी दर्शनाथ गए थे । प्रत्येक कुम्भ मेले के अवसर पर जाना और सत्संग करना उनका नियम सा बन गया था ।

 संत रविदास के समय भारतीय समाज का ढाँचा जर्जर रूढ़ियों के कारण चरमरा रहा था । सामाजिक अन्याय और अन्त : संघर्ष हिन्दू समाज को खोखला कर रहे थे । मुस्लिम बादशाहों द्वारा भारतीय संस्कृति को नष्ट - भ्रष्ट करने का उपक्रम अपनी चरम सीमा पर था ।

अंत्यज्य जातियों पर दोहरे अत्याचार हो रहे थे । सवर्ण हिन्दू उन्हें नीच मानकर अपमानित करते और मुसलमान सैनिक उन्हें हिन्दू मानकर उनका कत्लेआम करते । अन्धविश्वासों , कुरीतियों और कुप्रथाओं के कारण हिन्दू समाज टूटता और बिखरता जा रहा था । हिन्दुओं की न तो कोई संगठित संस्था थी और न इस ओर किसी प्रकार का प्रयास ही किया जा रहा था ।

संत रविदास ने जनता में आत्म - विश्वास जगाने तथा हिन्दू संस्कृति के मूल्यों के जागरण का प्रयास किया । उन्होंने बड़े साहस के साथ सामाजिक बुराइयों तथा असमानता का खुलकर विरोध किया ।

भारतीय दर्शन को सरल भाषा में प्रस्तुत कर सर्वसाधारण के लिए सुलभ करवाया ।

संत रविदास के विचार में साधु वह जो केवल आत्म कल्याण न कर , लोक कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित करे ।

वे लिखते हैं ---
"सब दु : ख पावे जासु ते ,
सो हरि जू के दास ।
न कोऊ दु : ख पावै जासु ते ,
सो न दास हरिदास । ।

सामाजिक जड़ता के कारण , उन्हें भी अपने जीवन में बारम्बार अपमानित और लांछित होना पड़ता था । अतः उनकी रचनाओं में जड़ परम्पराओं के प्रति विद्रोह स्वाभाविक था । बावन सोने के दीपक जलाकर आरती करने वाले ढोंगी पाखण्डी व्यक्तियों का उपहास उड़ाते हुए लिखते हैं ---

"बावन कंचन दीप घड़ावै ,
जड़ वैराग्य रे दृष्टि न आवै ,
कोटि भाग जाकी सोभा रो मैं ,
कहा भारती अग्निरू होमैं ।

गुरु कपा के महत्व का प्रतिपादन करते हुए वे लिखते हैं---

" गुरु को सबद अरु सुरति कुदाली , 
खोदन कोउ लहै रे ।
राम काह के बारें न आयो ,
सोने कूलु बहै रे ।

सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्ति मार्ग का अवलम्बन लिया तथा उसका प्रचार - प्रसार किया ।
निम्नांकित पद उसका उदाहरण है---

" भगति न मुंड मुंडाए ,
भगति न माला दिखाई ,
भगति न चरण धोवाए ,
ऐ सब गुनी जन गाई ,
कहे रैदास हुरीसव त्रास ,
तब हरि ताही के पास ।
आत्मा थिर गई तब ,
सब ही निधि पाई । "

राम नाम की महिमा स्थापित करते हुए वे कहते हैं - -

"कहै रैदास सभे तब , सभे जुगू लुटिया ,
हम तऊ एक राम कहि छुटिया । । 

उन दिनों हिन्दू समाज में शैव , वैष्णव , शाक्त आदि अनेक सम्प्रदायों में आपस में बड़ा वैमनस्य था । रैदास ने उनका विरोध न करके उनकी मूल भावना ग्रहण की तथा उसकी एकता सबके सामने प्रतिपादित की । नाभदास के अनुसार कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि वह पिछले जन्म में । ब्राह्मण थे ।

मीरा स्मृति ग्रन्थ के अनुसार इस महान सन्त ने संवत् 1584 में ( ई . सन् 1527 ) जर में निर्वाण प्राप्त किया । उनकी रचित बानियाँ आज भी लाखों अनुयायियों को सद्मार्ग _ में प्रवृत्त होने की प्रेरणा प्रदान करती हैं । रैदास रामायण उनकी प्रसिद्ध कृति है । गुरु = ग्रन्थ साहिब में भी उनकी लगभग 40 बाणियाँ संकलित हैं ।

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