सूरदास जी का जीवन परिचय व व्यक्तित्व चित्रण एवं सूर के प्रेरणा स्रोत पद
Surdas ji's life introduction and personality depiction and Surya's source of inspiration

Soordas
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सूरदास भक्ति काव्य के सुप्रसिद्ध सन्त कवियों के विषय में कहा जाता है ---
"सूर-सूर तुलसी शशि ,
उडगन केशव दास ।
अबके कवि खद्योत सम ,
अँह तँह करहिं प्रकास ।।"
साहित्य रूपी गगन के सूर्य महाकवि सूरदास का जन्म वैसाख सुदी पाँच , संवत् पन्द्रह सौ पैंतीस को रुनकता नामक ग्राम में हुआ था । यह ग्राम उत्तरप्रदेश में आगरा - मथुरा सड़क मार्ग पर स्थित है । बहुत से विद्वान बल्लभगढ़ ( फरीदाबाद ) के निकट सीही ग्राम को इनका जन्मस्थल मानते हैं ।
इनके पिताश्री सारस्वत कल उत्पन्न पंडित रामदास थे । बहुत से विद्वान उन्हें जन्माँध मानते हैं जिनके लिए अन्त : साक्षी और बाह्यसाक्षी उपलब्ध हैं । प्रारंभ से श्री सूरदास भक्ति और विनय के पद , रच - रच कर लोगों को सुनाया करते थे । भगवान कृपा से महाप्रभु वल्लभाचार्य जी से उनकी भेंट हुई ।
अधिकांश विद्वानों के अनुसार यह घटना वि . सं . 1567 या 1568 की है ।
उन्होंने सूरदास के विनय पद सुनकर कहा -
" अरे सूर है के ऐसे पद काहै कौ घिघियाते हो ।
कल भगवान लीला का गान किया करो " ।
आज महमूद गजनवी एवं मुहम्मद गौरी जैसे कर लुटेरों द्वारा , पदाक्रान्त राष्ट्र का जीवन संत्रस्त एवं भयभीत है । आज तो युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है समूचे समाज को किसी प्रकार स्वधर्म में बाँधे रखकर , उसमें चैतन्य फूंकना ताकि हिन्दू सम्मान से जीने की प्रेरणा पा सकें । यह कार्य श्रीराम , श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों की लीलाओं के गायन से ही संभव हो सकेगा । इस लीला गान को सुनकर समाज में उत्साह का स्फुरण होगा और वे इस निराशा एवं हताशा भरे वातावरण में आसरी शक्तियों से जूझने की प्रेरणा पाते रहेंगे ।
एक बार संगीत सम्राट तानसेन अकबर के सामने सूरदास का एक अत्यन्त सरस : और भक्ति पूर्ण पद गा रहे थे , बादशाह पद की समरसता पर मुग्ध हो गए । उन्होंने सूरदास से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की । वे तानसेन के साथ सूरदास से वि . सं . 1623 में मिले । बादशाह की सहृदयता से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने पद गाया जिसका अभिप्राय यह था कि हे मन ! तुम माधव से प्रीति करो । अकबर ने अपना यश गाने को कहा परन्तु सूर तो केवल कृष्ण के गायक थे उन्होंने कृष्ण की भक्ति का ही पद गाया जिससे अकबर उनकी नि : स्पृहता पर मौन होकर रह गए ।
सूरदास ने महाप्रभु से पुष्टि सम्प्रदाय में दीक्षा प्राप्त की । 18 वर्ष की आयु से 31 वर्ष की आयु तक गऊ घाट में रहकर वल्लभाचार्य जी ने सूरदास को भागवत पुराण की अनुक्रमणिका सुनाई एवं सुबोधिनी जी का ज्ञान हृदयंगम करवाकर उनका मार्गदर्शन किया । सूरदास जी ने कृष्णलीला का गायन करते हुए ,
सवा लाख पदों की रचना की जो " सूरसागर " नामक ग्रन्थ में संग्रहित हैं । एक तरह से यह ग्रन्थ श्रीमद्भागवत का ही ब्रज भाषा में अनुवाद है । यह एक गीत - काव्य है । इनके इन पदों से भारतीय जनता आत्म विभोर हो उठी ।
उनकी दूसरी महत्वपूर्ण कृति " सूरसारावली " है । एक अन्य रचना साहित्य लहरी भी इन्हीं से संबंधित है । उन्होंने अपने को पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया था । उनकी भक्ति सख्य - भाव की थी । वे एक महान सन्त , त्यागी और एक विरक्त और प्रेमी भक्त थे । 85 वर्ष की आयु प्राप्त कर सम्वत् 1620 में भगवान विट्ठलनाथ के सामने खंजन नैन रूप रस माते , पद गाते हुए उन्होंने सदा सर्वदा के लिए अपनी आँखें बन्द कर लीं ।
उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय होकर परमधाम को प्राप्त हुई । सूर के अन्त समय में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने ठीक ही कहा था--
" पुष्टिमारग को जहाज जात है ।
सो जाकों कुछ लेना होए से लउ " ।
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