कोरोना की मार,मानव की हार
मानव की विवशता पर कविता
The beat of Corona, the defeat of the human
Poem on human compulsion

मानव की विवशता
जलती हुई सलाखों पर हमने,
थिरकते हुए कदमों को देखा है,
मानव के अभिमान की पोटली,
खाली सी दिख रही है।
मान लिया था खुद को ईश्वर,
दिखता न धरती पर उसको कुछ भी,
बयां कर रही है वो सूनी सडके,
जहां कुछ कदम चलने में,
पसीने छूट जाते थे।
उन तंग गली- सडकों पर जब,
मां पकडे रहती नादान की उंगली,
छूटने पर वह नादान- मां विलखते थे।
आज उन्हीं सडकों पर,
चींटियां बेखौफ घूमती दिखती है,
जहाँ कभी उन चीटियों को मानव
पांव तले कुचलता था।
मानव के स्तब्द रहने से,
आज धरा भी झूम उठी ,
इस सुन्दरता के आईने पर क्यूं मानव,
तूने प्रदूषण के बादल छाए।
कुछ ना बदला ना बदलेगा,
राज- पाठ सब नून हुए।
बदला तो सिर्फ मानव ही है,
धरती -अम्बर सब वहीं पर है।
आज फरियाद काम ना आए,
ईश्वर- अल्हा का मौन व्रत है।
जो बोया तूने धरती पर,
उसे तुझे पाना ही है।
आज एहसास जगा मन में,
तू भी तो इक प्राणी है,
क्यों जहर घोल रहा मन में,
पल भर की ए जिंदगानी है।
कौन करेगा हिफाजत तेरी,
जब खुद को तु शहनशा समझता है,
समय न बदला, इंसाफ न बदला,
बदला वो जो फितरत तेरी,
तेरे दुख का कारण भी तू है,
हर बिमारी की जड भी तू है,
तू रोता है या पछताता है,
कुछ भाव समझ न आता है।
जलती हुई सलाखों पर हमने,
थिरकते हुए कदमों को देखा है।
{{{{{{{{{{{{{{{{{{{}}}}}}}}}}}}}}}}}}
अन्य सम्बन्धित लेख साहित्य----
Nice poem
ReplyDelete