Wednesday 22 April 2020

भारतीय नारी की गरिमा- संस्कार,और प्रेरणादायक व भारत की आन-बान-शान,Indian womens

भारतीय नारी की गरिमा- संस्कार,और प्रेरणादायक व भारत की आन-बान-शान
The dignity of Indian women - sanskars, and inspirational and pride of India
Indian womens 

दोस्तों भारत ही एक ऐसा पहला देश है Indian womens in hindi जहाँ नारी को देवी स्वरूप माना जाता है, उनकी शक्तियों और पराक्रमों की सभी गुणगान किया करते है। यहा नारियों को भी वही स्थान प्राप्त है जो पुरूषों को है। भारत में महिलाओं की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है। अब महिलाओं को सिर्फ चूल्हा-चौका करने की अनुमति नही बल्कि अपने अधिकारों को जीने की आजादी भी है। Indian womens in hindi 
प्राचीन काल में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक, भारत में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। भारत की महिलाओं ने वह वीरता की मिशाल दी है शायद ही कोई और नही दे सकता।gyansadhna.com
 हमें गर्व है कि हम ऐसे दे से नाता रखते है जहाँ की नारियों को पूजा जाता है और नारी ही जिनकी शक्ति है ।

कहा भी गया है---
"भारतीय नारी स्वभाव से दिखती है,माता जैसी।आंच आए अगर किसी पे भी,झोंक देती है, अन्दर की ज्वालामुखी।गौर फरमाना न कभी कभी टकराना इनसे,है वास्तविक रूप इनका महाकली जैसा।"

नारी का महत्व (importance of women)

भारतीय नारी एक ऐसी वीरांगना है जो हर मुश्किल घडी को भी चाव से पार कर देती है। उसमें अथाह शक्ति है,वह उस भूमि से पली हुयी है जहाँ हजारों आक्रमण कारियों ने उसे बार- बार घाव दिए है। हमारे समाज में नारी को समाज का आधार माना गया है । समाज के निर्माण में नारी की मुख्यभूमिका होती है । हमारे ग्रंथो की माने तो नारी को आदमी की सहधर्मचारिणी कहा जाता है। वह पतिव्रता धर्म का पालन करते हुए खुद को भी न्यौछावर करने में नहीं घबराती है। नारी को भी समाज में पुरषों सामान मजबूत आधार स्तंभ मन गया है ।

प्राचीन काल से ऐसा कहा जाता था जहां नारी की पुजा होती है वहीं देवगण निवास करते हैं। नारी समाज का मुख्य दर्पण है, नारी संस्कारों की जननी है,  नारी सृष्टि की शक्ति  है, नारी से ही पाप का अन्त है, नारी से ही सद्भावनाओं का संचार है, नारी ही सृष्टि का प्राण है, नारी ही जीवन रक्षक है।नारी से ही सृष्टि की उत्पत्ति है,   परन्तु ऐसा जानते हुए भी नारी के साथ अन्याय और शोषण में कमी नहीं आया, जहाँ देखो नारी की गरिमा को ठेस पहुँचाया जाता है, उसके सम्मान को ललकारा जाता है।  उसे चुनौतियों से घेरा जाता है।  इसके उत्तर में कहाँ जा सकता है कि हम पूर्णतः अपनी संस्कृति और सभ्यता का त्याग कर चुके हैं।जिसके चलते हम नारी के अन्दर विद्यमान गुणों को समझने में कठिनायों का सामना करना पड़ रहा है। यह हमारी भूल है या सृष्टि का विनाश बहुत युगो तक हमारे देश की नारियां अशिक्षा और अज्ञान के अंधकार में भटक रही थी। लेकिन अब यह समस्या नहीं है, अब नारी जाग चुकी है, अब वह अपने गरिमा को पहचान चुकी है।

भारतीय नारी की गरिमा व नारी की उत्कृष्टता - 

नर और नारी दोनों के सृजन से सृष्टा का तात्पर्य दोनों को सम्यक् विकास पथ पर समान रूप से अग्रसर करने से ही था । दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में ही इस सृष्टि पर आये हैं । सचमुच नारी के सृजन में विधाता ने उसमें नर से अधिक सौन्दर्य , साहस , सहिष्णुता एवं धैर्य आदि गुण भर दिये हैं । फिर भी आश्चर्य एवं विडम्बना देखिए कि भ्रांतिवश नारी को अपेक्षाकृत कमजोर और हेय समझा जाने लगा । जबकि वह उत्कृष्टता की जीवन्त प्रतिमा है ।

नारी के अनेकों रूप - 

माधुर्य गुणों से भरपूर, 
शरीर-सौष्ठव , 
कोमलता- सौम्यता, 
मृदुता , 
दया- करणा , 
कलात्मकता,
पवित्रता , पतिव्रता, 

नारी आदि देवोपम सद्गुणों में भी नर से सदा आगे ही रही है । स्नेह नारी की मूल प्रवृत्ति है और प्रतिदान की कामना से रहित शुद्ध , सात्विक अनुदान उसका मूल स्वभाव है । जीवन संचार के सभी तत्त्व नारी में कूट - कूट कर भरे हैं । मातृशक्ति के द्वारा प्राणियों पर जीवनदान की अनुकम्पा की वृष्टि न की गई होती तो आज उसका अस्तित्व ही प्रकाश में न आ पाता ।

नारी ने पृथ्वी की तरह , प्राणवायु की तरह , वृष्टि की भाँति और सर्वव्यापी ऊर्जा की भाँति निरंतर दिव्य अनुदानों से जीव - जगत को सम्पन्न किया है । भारतीय मनीषा ने आदिकाल से ही नारी की महिमा और गरिमा को समझा है और उसे यथोचित सम्मान भी दिया है ।

इसीलिए उनके द्वारा खुलकर यह घोषणा की गई - 
' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । ' 
अर्थात् - जहाँ नारी की पूजा की जाती है , वहाँ देवता रमण करते हैं । देव तत्वों से विभूषित नारी को देवोपम समझा गया है । कन्या रूप में वह देवी तुल्य मानी गई हैं । विवाह के समय उसे लक्ष्मी स्वरूपा समझ कर पूजा जाता है । गृहलक्ष्मी के रूप में वह घर की शोभा और श्री के समान पूज्या है । वह देवत्व की जीवन्त प्रतिमा है । आज मनुष्य का अपना कहलाने योग्य जो कुछ भी है वह सब नारी के असीम अनुदान का ही प्रतिफल है । वह समस्त मानवी सत्ता की सृजनकर्ती , जननी है । भ्रूण रूपी सूक्ष्म जीव को अपनी उदर - गुहा में पोषित कर और परिपक्व बनाकर , असह्य प्रसव वेदना सहकर वही उसके बंधन खोलती है । इस धरा पर प्रथम पदार्पण से पूर्व ही नवजात शिशु के लिए सुस्वादु पोषक - दुग्धाहार मातृसत्ता अपने वक्षस्थल में धारण किए रहती है ।

नारी के देवोपम अनुदान - 

शैशव से माँ के रूप में पोषक पयाहार और दुलार का अक्षुण्ण भण्डार पाकर मानव कृत - कृत्य हो जाता है । सृजन और समर्पण की इस देवी के अनुदानों से वयस्क होकर युवा जन अलौकिक आनन्द पूरित होकर तृप्ति एवं तुष्टि का अनुभव करते हैं । गृह लक्ष्मी के रूप में मिट्टी का सामान्य घरौंदा इसके छूने से स्वर्गतुल्य बन जाता है । 

नारी के पदार्पण से उस घर में सुख - समृद्धि बरसने लगती है ।
(' न गृहं गृहणीविना ' ) यह अहसास एक सामान्य जन से लेकर बड़े - बड़े मनीषी कहलाने वाले गृहस्थी करते रहे हैं । क्षण - क्षण , पल - पल अपना सर्वस्व देकर एक नारी घर - परिवार और संसार सबको सुखी और समुन्नत बनाती है । नारी का हर सम्बन्ध पूज्य पावन और निर्मल है । वह सब प्रकार से वरेण्यं है , महान है । बस जरूरत है सही सोच की , आदर्श दृष्टिकोण की ।

एक प्रसिद्ध वाक्य है----- 
(' बदला जाये दृष्टिकोण यदि , तो इन्सान बदल सकता है । 
दृष्टिकोण के परिवर्तन से अरे ! जहान बदल सकता है । ')

एक बहन के रूप में नारी भाई को जिन दिव्य आशीषों , दुआओं और अरमानों से सुरभित करती है । उस पवित्र स्नेह सम्बन्ध की दुनिया में कोई मिसाल नहीं है । भारत में इस पावन स्नेह सम्बन्ध से जुड़ी हुई अनेकानेक कहानियाँ और । घटनाएँ अतीत और वर्तमान में व्याप्त हैं । एक पति के रूप में पुरुष को अपना । सर्वस्व समर्पण करने की कला में नारी अपना सानी नहीं रखती । अपने कष्टों और : प्रतिदानों की परवाह किए बिना भी वह पति की अनन्य सहचरी होती है । उसके सुख - दुख की सहभागिनी होकर वह उसके सुख में सुख और कष्टों में दुख  अनुभव करती है । एक सच्ची अर्धांगिनी के रूप में पति का विपत्तिकाल उसकी परीक्षा का क्षण होता है ।
कहा भी गया है--
( धीरज धर्म मित्र अरु नारी । 
आपत्ति काल परखिये चारी ॥ ')

 संतान के लिए भी नारी जन्म के पूर्व से लेकर जीवन पर्यन्त अपने शरीर , मन तथा श्रम को मुक्त - हस्त लुटाती रहती है । इस आधार पर नारी सच्चे अर्थों में त्याग और बलिदान की देवी ही कही जा सकती है । नारी सचमुच पिता के कुल तथा पति के कुल - दोनों के साथ समस्त अनुदान प्रस्तुत करती है । मानस का इस संदर्भ में वह प्रसंग बहुत अर्थपूर्ण एवं प्रासंगिक प्रतीत होता है जब चित्रकूट में महाराज जनक के पहुंचने पर वे सीता को एक तपस्विनी के रूप में देखते हैं और कह उठते हैं - 
(' पत्रि पवित्र किए कल दोऊ । सुजस धवल जानहिं सब कोऊ ॥ ' )

अर्थात् - हे पुत्री ! तुमने इस प्रकार त्याग का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करके दोनों कुलों ( पितृ कुल तथा पति कुल ) को पवित्र कर दिया है । तुम्हारी स्वच्छ कीर्ति आगे भी सब लोग जानेंगे और बखान करेंगे । ऐसे अनेकानेक दृष्टान्त इतिहास और पुराणों में भरे पड़े हैं ।

जब नारी ने माँ के रूप में , पत्नी के रूप में , पुत्री के रूप में , वधू के रूप में तथा नाना रूपों में अपने दायित्वों , कर्तव्यों तथा मर्यादाओं का परिपालन करके उदाहरण प्रस्तुत किए हैं ।

अतीत का नारी - गौरव - 

नारी के गौरवपूर्ण एवं गरिमामय अतीत को निहारने पर सर्वत्र एक मूर्तिमान देवत्व उभरा दीखता है । वस्तुतः अतीत की नारी आद्य शक्ति की प्रतीक है , साक्षात लक्ष्मी है , साकार सरस्वती और प्रत्यक्ष दुर्गा है । उसके समक्ष दैन्य , अविद्या तथा विनाश कहीं टिक नहीं सकता । धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष के जो चार फल दिव्य कल्पवृक्ष पर लगते बताये गये हैं , वह प्रत्यक्ष पवित्रता , पूर्णता और प्राण जैसे चार अनुदानों को उभारती है और उन्हें परिपोषित करके परिपक्वता प्रदान करती है । 

गीता में भी विभूति दर्शन के अन्तर्गत नारी की सात विभूतियों को इंगित किया गया है - 
(' कीर्तिः श्री वाक् च नारीणां , स्मृतिः मेधा , धृतिः , क्षमा ॥ ')
अर्थात् - नारी का सम्पूर्ण वैभव उसकी कीर्ति , सम्पन्नता , वाक् शक्ति , स्मरण शक्ति , बुद्धि कौशल , धैर्य धारण की शक्ति और क्षमा शक्ति में ही निहित है । वैदिक काल से ही हमारे देश में अपाला , घोषा , मैत्रेयी , गार्गी जैसी विभूति सम्पन्न “ विदुषी महिलाएँ हुईं हैं , जिन्होंने अपने दिव्य ज्ञान से बड़े - बड़े प्रकाण्ड विद्वानों को परास्त किया । वे जहाँ महती ब्रह्मवादिनी होकर प्रकाण्ड ज्ञान की अक्षुण्ण भण्डार थीं , वहीं आदर्श गृहणी के रूप में भी अपनी मर्यादाओं का पूर्ण परिपालन करती रहीं ।

वैदिक काल में नारियाँ अपनी विद्वत्ता के बल पर आचार्य , दार्शनिक तथा ऋषि पद तक प्राप्त करती रही हैं । कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था जो नारियों के लिए अलभ्य या अप्राप्य रहा हो । इतिहास और अतीत के उस स्वर्णिम दौर के बाद कालचक्र के परिवर्तन के साथ एक अंधा युग आया , जब नारी को शनैः शनैः एक उपभोग्य वस्तु मानकर या भोग्या का रूप देकर उसे उसके शीर्ष स्थान से पतन की घोर कारा में डाल दिया गया । घर की दहलीज से बाहर पाँव रखना नारी के लिए निषेध माना गया । अन्तःपुर के कड़े नियमों और प्रतिबंधों मे उसे बाँधकर रखा जाने लगा । पर्दा प्रथा , सती प्रथा , वेदपाठ निषेध आदि नये - नये अव्यावहारिक नियम बनने लगे । उनसे नारी को बाँधने की घिनौनी कोशिश की जाने लगी , जो नारी उत्पीड़न के एक कुत्सित कलंक का रूप ले बैठी ।

नारी को उसका खोया गौरव प्रदान करना है - 

अंधकार के काले युग से उबरकर अब नारी पुनः वर्चस्व का परिचय देने हेतु आगे आने लगी है । विश्व में सर्वत्र नारी जागरण का शंखनाद गूंज उठा है । इक्कीसवीं सदी के महापरिवर्तन की इस वेला में पूरी मानवता के उज्ज्वल भविष्य के लिए नर - नारी दोनों को साथ साथ से आगे बढ़ना है । आज चतुर्दिक राजनीतिक चेतना अंगड़ाई लेने लगी है । हर क्षेत्र में नारियाँ आगे आ रही हैं ।

भारत में यह चेतना अपेक्षाकृत अधिक उत्साह पूर्वक सक्रिय होती दिख रही है । हिन्दी साहित्य के अमर कवि जयशंकर प्रसाद ने वर्षों पूर्व घोषणा के स्वर में कह दिया था - ' नारी तुम केवल श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग पग तल में । पीयूष स्रोत सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में ' नारी के विविध रूपों में उसका मातृत्व रूप ही सबसे महान एवं स्तुत्य है । यदि आज हर व्यक्ति उसे उसी वरेण्य रूप में ही देखकर उसको समुचित आदर सत्कार प्रदान करे तो निश्चित ही नारी को उसके शीर्ष स्थान पर पुनः सुशोभित होते देर नहीं लगेगी । इसीलिए तो लंका विजय के पश्चात् भगवान श्रीराम के मुख से आदि कवि ने यह सटीक उद्घोष किया है कि सचमुच जन्म देने वाली माता और जन्म भूमि दोनों ही स्वर्ग से भी महान है ।
हमेशा याद रखने योग्य---
 ' जननी , जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि ॥ '


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