Tuesday 7 April 2020

ब्रह्म और आत्मा का योगजीवन को प्रेरित करने वाले विचार व अनमोल वचन

ब्रह्म और आत्मा का योगजीवन को प्रेरित करने वाले विचार व अनमोल वचन The 

sum of Brahman and soul Thoughts and precious words that inspire life
Atma and brham

ब्रह्म
वेदान्तदर्शन और विशेषरूप से अद्वैतवेदान्त एकमात्र ब्रह्म की सत्य , नित्य एवं सर्वोपरि तत्त्व के रूप में मान्यता प्रदान करता है । इसीकारण इस दर्शन का प्रारम्भ ही ' ब्रह्मजिज्ञासा ' से होता है --
( अथातो ब्रह्मजिज्ञासा - ब्रह्मसूत्र ) । वस्तुतः इस परमतत्त्व ब्रह्म के ज्ञात हो जाने पर किसी अन्य वस्तु के ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहती है । अतः यहाँ इसका ज्ञान अत्यावश्यक माना गया है।

( ' बृहवृद्धौ ' वृद्धि अर्थ में प्रयुक्त ' वृह ' धातु से ' मनिन् ') प्रत्यय करके ब्रह्म शब्द निष्पन्न होता है । अर्थात् महान् , व्यापक , निरवधिक , निरतिशय महत्त्व से युक्त तत्त्व ही ब्रह्म है । ' वृंहणाद् ब्रह्म ' इस व्युत्पत्ति के अनुसार देश , काल तथा वस्तु आदि से अपरिच्छिन्न नित्यतत्त्व ही ब्रह्म है । इससे ब्रह्म के निरतिशय महत्त्व की स्पष्ट प्रतीति होती है ।

वेदान्तियों के अनुसार यह तत्त्व , प्रत्यक्ष , अनुमान एवं शब्द आदि प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता है , अपितु ' मैं हूँ ' इसप्रकार के अनुभव का आधार ही इसकी सत्ता को सिद्ध करता है । इसके अतिरिक्त यहाँ श्रुति ( वेद - उपनिषदादि ) को ब्रह्म की सिद्धि में प्रबलप्रमाण के रूप में मान्यता प्रदान की है । ब्रह्मतत्त्व का लक्षण करते हुए वेदान्तदर्शन कहता है कि जिसप्रकार उष्णता , लौहित्य एवं प्रकाश द्वारा दीपक का लक्षण किया जा सकता है । ठीक उसीप्रकार सत् , चित् और आनन्द इन तीन शब्दों के ध्यम से ब्रह्म का स्वरूप प्रतिपादित किया जा सकता है ।

श्रुति वाक्य इस विषय में प्रमाण हैं-- 

( 1 ) सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ( तैत्तिरीयोपनिषद् ) 
( 2 ) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म ( बृहदारण्यकोपनिषद् ) 
( 3 ) आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् ( तैत्तिरीयोपनिषद् )

 छान्दोग्योपनिषद्कार का इस विषय में कथन है ----

सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्  
अर्थात्-- सृष्टि के आरम्भ में एक अद्वितीय तत्त्व की सत्ता थी । वेदान्तदर्शन के अनुसार वह सत्ता केवल ब्रह्म की थी । इस प्रसंग में सत् की व्याख्या करते हुए आचार्य शङ्कर कहते हैं -
सत् उसे कहा जाता है जो तीनों कालों में विद्यमान हो तथा ब्रह्म ही एकमात्र ऐसी वस्तु है जिसका अस्तित्व तीनों कालों में विद्यमान रहता है । यह न केवल सृष्टि के आरम्भ में विद्यमान था , अपितु वर्तमान में भी इसकी स्थिति है और प्रलयकाल के पश्चात् भी रहेगा । यह वस्तुतः कालातीत यथार्थसत्ता है । इसके अतिरिक्त ब्रह्म चिद्रूप है । जो ज्ञानवाची ' चिती संज्ञाने ' धातु से क्विप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है । इसीलिए शङ्कराचार्य आदि विद्वानों ने ( विज्ञानमानन्दं ब्रह्म - बृहदा-) । विज्ञान शब्द का सामान्य अर्थ विशिष्ट या विशुद्धज्ञान भी किया जा सकता है । अतः ब्रह्म विशुद्ध या विशिष्टज्ञानस्वरूप है ।

चित् ' का एक अर्थ चैतन्य भी है , जिससे ब्रह्म का जडरहित होना अभिव्यक्त होता है । अतः संसार के सभी प्राणियों एवं वनस्पति आदि में जो चैतन्य प्रतीत होता है , वह चित्स्वरूप ब्रह्म के कारण ही है , क्योंकि सर्वव्यापक होने से उसकी सत्ता सम्पूर्णसृष्टि के कण - कण में है । कुछ विद्वानों ने ' चित् ' शब्द का प्रकाश अर्थ भी किया है --
( स्वप्रकाशत्वं चित्वम् - ब्रह्मसूत्र भामतीटीका - वाचस्पतिमिश्र)
मुण्डकोपनिषद् ने ब्रह्म की ज्योतिषां ज्योतिः कहकर व्याख्या की है ( मुण्डकोपनिषद् )

इसप्रकार ब्रह्म के लिए प्रयुक्त ' चित् ' शब्द विज्ञान , ज्ञान , चैतन्य तथा स्वप्रकाशत्व आदि अर्थों को अभिव्यक्त करता है । इससे ब्रह्म की सत्ता , ज्ञानरूपता एवं स्वयंप्रकाशत्व आदि विशेषताएँ प्रकट होती हैं । ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या में तीसरे ' आनन्द ' शब्द का प्रयोग किया जाता है ।

उपनिषद् , ब्रह्मसूत्र एवं वेदान्त के सभी ग्रन्थों में इसके इस स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई है । तैत्तिरीयोपनिषद् का इस विषय में स्पष्टरूप से कथन है - " आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । यहाँ आनन्द शब्द ब्रह्म में आनन्द की प्रचुरता एवं पूर्णता को अभिव्यक्त करता है । बृहदारण्यकोपनिषद् ने भी ब्रह्म की ' सर्वोच्च आनन्द ' कहकर व्याख्या की है ---

इसके अतिरिक्त ब्रह्म के लिए ' अनन्तम् ' पद का प्रयोग भी श्रुतियों ने किया है - ( सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म - तैत्तिरीयोपनिषद् ) । अनन्त का अभिप्राय है जिसका कोई अन्त अर्थात् सीमा न हो । अतः वह सर्वव्यापक , नित्य एवं सर्वात्मक है ।

 वेदान्तदर्शन में ब्रह्म की बीजशक्ति के रूप में माया अथवा अविद्या का उल्लेख किया गया है । इसकी उपाधि से युक्त ब्रह्म ही ' ईश्वर ' कहलाता है । यहाँ इसी ईश्वर को सम्पूर्ण चराचरजगत् की रचना का निमित्त और उपादानकारण माना गया है । अपनी प्रधानता की स्थिति में चैतन्यरूप ब्रह्म निमित्तकारण तथा अपनी उपाधि की प्रधानता की स्थिति में उपादानकरण होता है । ठीक उस मकड़ी के समान जो अपने शरीर के चैतन्य के कारण तन्तुजाल का निमित्तकारण होती है तथा शरीर से निकलने वाले तरलपदार्थ से तन्तुजाल का निर्माण करने से उपादानकारण भी है ।

यह दर्शन ब्रह्म को सर्वशक्तिमान मानता है । इसके अनुसार सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्म को किसी बाह्यसत्ता की आवश्यकता नहीं होती है । मुण्डकोपनिषद् के अनुसार ' जिसप्रकार जीवितपुरुष के शरीर से केश और रोम स्वतः उत्पन्न होते हैं , ठीक उसीप्रकार अक्षरब्रह्म से यह सम्पूर्ण चराचरजगत् उत्पन्न होता है । इस जगत् की रचना करने के पश्चात् वह इसी में अनुप्रविष्ट हो जाता है । इसीकारण एक होते हुए भी इसकी सभी यहाँ भूतों , पदार्थों एवं स्थानों में अर्थात् जगत् के कण - कण में सत्ता को स्वीकार किया गया है । वही यह प्राणियों के कर्म - अकर्म , धर्म - अधर्म का साक्षी है तथा उन्हें कर्म का फल प्रदान करता है । शङ्कराचार्य के अनुसार ' इस संसाररूपी वृक्ष का मूल ब्रह्म ही है ।

इसके अतिरिक्त ब्रह्म को यहाँ ' अवाङ्मनसगोचर ' कहा गया है , क्योंकि उसे न तो आँखों से देखा जा सकता है , न ही मन और वाणी उसे जानने में समर्थ हैं । वह अत्यन्तसूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है तथा अकथनीय है । फिर भी योगविद्या से योग्य गुरु के मार्गदर्शन में उसका साक्षात्कार किया जा सकता है , किन्तु उसके स्वरूप की व्याख्या असम्भव है । गूंगे के गुड़ के समान उसके आनन्द को केवल अनुभव किया जा सकता है ।

इसीकारण उपनिषदों में ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करने के लिए ' नेति नेति ' की शैली को अपनाया गया है । यहाँ ' नेति नेति ' का दो बार प्रयोग माया एवं उसके प्रपञ्च का निराकरण करके एकमात्र ब्रह्म की सत्ता को इंगित करने के लिए विशेष अभिप्राय हेतु किया गया है । वेदान्त के अनुसार - यद्यपि यह परमतत्त्व ब्रह्म एक है -
एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म ' ( छान्दोग्योपनिषद् ) , 
किन्तु पारमार्थिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से इसकी सगुण और निर्गुण दो रूपों में परिकल्पना की गई है । माया की उपाधि से विशिष्टब्रह्म ही ईश्वर सगुण , साकार या सविशेष कहा गया है तथा इससे रहित ब्रह्म ही निर्गुण , निराकार या निर्विशेष माना गया है ।

उपनिषदों में ब्रह्म का ध्यान करने का सर्वश्रेष्ठ आधार ' ओम ' या ' ओङ्कार ' को माना गया है -
' ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ध्येयं सर्वमुमुक्षभिः ( ध्यानबिन्दूपनिषद् )
 इसका ध्यान करने से साधक ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है । इसके अतिरिक्त ब्रह्म को मुक्तजीवों का आश्रय कहा गया है ( मुण्डकोपनिषद् ) । ब्रह्म का साक्षात्कार होने के पश्चात् साधक के हृदय की ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं तथा उसके सभी संशय दूर हो जाते हैं । ब्रह्म को जानने वाला व्यक्ति ठीक उसीप्रकार ब्रह्म ही हो जाता है , जिसप्रकार बहती हुई नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नामरूप को खोकर उसमें एकाकार हो जाती हैं । ब्रह्म का सायुज्य प्राप्त करके व्यक्ति का पुनः इस संसार में आगमन नहीं होता है - ' न स पुनरावर्तते ' । इसीकारण ब्रह्म को आश्रय , अमृतमय एवं अविनश्वर कहा गया है । गीता ने भी इस बात का अनुमोदन किया है----

"अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । 
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥" 
( श्रीमद्भगवद्गीता)

( २ ) आत्मा---
वेदान्तदर्शन के प्रमाणरूप उपनिषद्ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप पर विशद चर्चा की गई है । यहाँ इसके लिए प्रायः उन्हीं विशेषणों का प्रयोग किया गया है , जो ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुए हैं । इस दृष्टि से इसे ब्रह्म का ही दूसरा नाम भी कहा जा सकता है । उपनिषदों में इसे ' अयमात्मा ब्रह्म ' कहकर प्रत्यक्षतः स्वीकार भी किया गया है । ब्रह्म के समान ही आत्मा के अस्तित्व को भी ' मैं हूँ ' अथवा ' मैं नहीं हूँ ' इस अनुभव द्वारा स्वतः सिद्ध माना गया है । इसके अनुसार - जिसप्रकार सूर्य को दिखाने के लिए दीपक की आवश्यकता नहीं होती है , ठीक उसीप्रकार आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है ।
इसीकारण बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने कहा - 

अरे विज्ञातारं केन विजानीयात्) 
अर्थात्--
जो सबको जानने वाला है उसे हम किस साधन द्वारा जान सकते हैं ? ' _

आत्मा भी ब्रह्म के समान ही सत् - चित् एवं आनन्दस्वरूप है । वर्तमान , भूत और भविष्यत तीनों कालों में अबाधितरूप में विद्यमान रहने के कारण इसे सत् कहा गया है । साथ ही इस शब्द से इसके अमर , नित्य , शाश्वत , पुराण तथा अजन्मास्वरूप पर भी प्रकाश पड़ता है । आत्मा की यहाँ स्वयम्प्रकाशस्वरूप कहकर प्रशंसा की गई है । पञ्चदशीकार विद्यारण्यस्वामी ने आत्मा के इस वैशिष्ट्य को नृत्यशाला में रखे गए दीपक का उदाहरण देकर अत्यन्त सुंदर ढंग से प्रतिपादित किया है । तदनुसार - ' जिसप्रकार नृत्यशाला में रखा हुआ दीपक , नृत्यशाला के स्वामी , सहदय सामाजिक , तथा नर्तकी को समानरूप से प्रकाशित करता है एवं स्वामी की अनुपस्थिति में भी स्वयं प्रदीप्त होता रहता है । ठीक उसीप्रकार यह साक्षीरूप आत्मा , अहंकार , बुद्धि एवं तत्तत् विषयों को प्रकाशित करता है तथा सुषुप्ति अवस्था में अहंकार आदि के विद्यमान न होने पर भी स्वयं प्रकाशित होता रहता है ।

इसके अतिरिक्त आत्मा को अच्छेद्य , अग्राह्य , अक्लेद्य तथा अशोष्य बताते हुए नित्य , सर्वव्यापी , स्थाणु , अचल एवं सनातन कहा गया है ।

 अवैतवेदान्त के अनुसार आत्मा तीन प्रकार के शरीर - स्थूल , सूक्ष्म तथा कारण एवं पाँच प्रकार के कोशों से अलग है , किन्तु जीव , अज्ञानवश एवं तादात्म्य के कारण शरीरत्रय तथा पञ्चकोशों को ही किसी न किसी रूप में आत्मा समझने लगता है । यह अविवेक ही उसके भवबन्धन का कारण बनता है । सद्गुरु के उपदेश द्वारा साधक आत्मा को इनसे अलग समझ लेता है तथा इस स्थिति में आत्मज्ञान होने पर वह ब्रह्म ही हो जाता है ।

इसी अभिप्राय को पञ्चदशीकार ने अत्यन्त सुन्दरढंग से इसप्रकार प्रस्तुत किया है---

जैसे--
" मुज्जादिषीकैवमात्मा युक्त्या समुद्धृतः । 
शरीरतृतीयाधीरैः परं ब्रह्ममैव जायते ॥" 
अर्थात्--- 
जिसप्रकार गूंज से इषिका ( सिरकी ) युक्तिपूर्वक निकाल ली जाती है । उसीप्रकार धीरपुरुष आत्मा को तीन प्रकार के शरीरों से पृथक् जान लेता है । उस स्थिति में वह परमब्रह्म हो जाता है । इसके अतिरिक्त उपनिषदों में आत्मा को विभु , सर्वगत , अत्यन्तसूक्ष्म , अदृष्ट , अव्यवहार्य , अग्राह्य , अलक्षण , अचिन्त्य , अखण्ड , शुद्ध , अन्तर्यामी , कूटस्थ , अविनाशी , विज्ञानघन , नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव के रूप में भी वर्णित किया गया है । अद्वैतवेदान्त के अनुयायियों ने आत्मा को ' परममहत् ' परिमाण वाला माना है । साथ ही इन्होंने आत्मा में श्रुतिप्रमाणों एवं युक्तियों द्वारा एकत्व का प्रतिपादन किया है । यहाँ सांख्य के ' पुरुष बहुत्व ' का यह कहकर खण्डन किया गया है कि जिसप्रकार एक अग्नि विभिन्न स्थानों एवं पदार्थों में अनेकरूपों में उद्भासित होता है , जबकि वास्तव में वह एक ही है ।
ठीक उसीप्रकार सभी प्राणियों में रहने वाला यह आत्मा भी एक ही है ।

" अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥"

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