Saturday 9 May 2020

हिन्दी साहित्य (भाग-15) भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण विशेषताएं एवं प्रवृत्तियां,Important features and trends of Bharatendu era

हिन्दी साहित्य (भाग-15)
भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण विशेषताएं एवं प्रवृत्तियां

Hindi Literature (Part-15)
 Important features and trends of Bharatendu era


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उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् यहाँ भारतेंदुकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालना अप्रासंगिक न होगा ---

(1) समकालीन समस्याओं का वर्णन ---
विवेच्य युग के कवियों ने समकालीन सामाजिक , राजनीतिक दुर्दशा पर गहरा क्षोभ प्रकट किया है । वर्तमान में देश अशिक्षा , अज्ञान , अंधविश्वास , वर्ण - भेद , छुआ - छूत , बाल - विवाह , वृद्ध - विवाह , बहु - विवाह , मद्यपान आदि अनेक सामाजिक विसंगतियों से ग्रस्त था । भारतीयों को सरकारी नौकरियाँ नहीं मिल पाती थी ।

चारों और कंगाली , भुखमरी व्याप्त थी । इस दारूण दृश्य का विवेचन करते हुए भारतेंदु ने विदेशी शासन के प्रति रोष और तोष दोनों को एक साथ अभिव्यक्त किया है --
" अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी ।
पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी ।। "

उधर अंग्रेजी शासन का शोषण और दमन का चक्र निरंतर चल रहा था । इसी से देश की दुर्दशा पर व्यथा व्यक्त करते हुए भारतेंदु ने लिखा है ---
" रोबहु सब मिलिक , 
आवहु भारत भाई । 
हा हा ।
भारत दुर्दशा न देखी जाई । "

2- अतीत के गौरव का गान ---

वर्तमान जीवन से असंतुष्ट भारतीय जन - मानस को अतीत के गौरव की स्मृति अत्यंत तृप्तिदायक प्रतीत होती थी । इसलिए इस युग की कविता में अतीत के गौरव - गान की प्रवृत्ति प्रमुख रूप में पायी जाती है । भारत - दुर्दशा नाटक में भारतेंदु ने अतीत के गौरव का स्वर्णिम रूप निम्न प्रकार से अंकित किया --
भारत किरन जगत उजियारा ।
भारत जीवन जीअत संसारा ।
भारत वेद कथा इतिहास ।
भारत वेद प्रथा प्रकासा ।।

3- शोषण का विरोध -

विदेशी शासन , सभ्यता और शोषण के विरूद्ध उद्गार व्यक्त करना भी भारतेंदु युगीन काव्य की प्रमुख विशेषता रही है । जैसाकि स्वयं भारतेंदु ने अंग्रेजों की विभेद्क नीति पर अनेक स्थलों पर प्रहार किये हैं । अंग्रेजों द्वारा किये गये आर्थिक शोषण पर प्रहार करते हुए ' प्रेमघन ' लिखते है --
रहे विलायत जो हरखाय ।
भारत सो धन रोज कमाय ।

4- हीन मनोवृत्ति पर आघात --
अंग्रेजी पढ़कर और विलायती सभ्यता में ढलकर अंग्रेज बनने की दिशा में प्रयत्नशील भारतीयों की हीन मनोवृत्ति पर आघात करते हुए प्रेमघन कहते हैं --
अच्छर - चार पढेह अंग्रेजी ,
बन गये अफलातून ॥

5- सांस्कृतिक अस्मिता और राष्ट्रीयता की भावना --
इस युग की कविता में दीन - दुखी भारतमाता का करूण चित्र अंकित हुआ है । भारतमाता के संपूर्ण कलेशों को दूर करना ही देश - भक्त भारतीय का दायित्व है । यही देश - सेवा है । इसी दायित्व का बोध कराते हुए प्रताप नारायण मिश्र लिखते हैं --
पढ़े कमाय कीन्हो कहा हरे न देश - क्लेश ।
जैसे कन्ता घर रहे , तैसे रहे विदेश ॥

6- भक्ति - भावना --
देश-भक्ति के साथ ईश भक्ति भी इस युग की कविता की मुख्य प्रवृत्ति है । कवियों ने देश को दुर्दशा से उबारने के लिए परमात्मा से प्रार्थना की है ।
प्रतापनारायण मिश्र देशोद्धार की गुहार करते हुए करूणामय परमात्मा से प्रार्थना करते हैं --
सब ही विधि दीन मलीन महा . . . . . . . . . . . . . . . . ।
हम आरत भारतवासिन पै अब दीन दयाल दया करिए ॥

अतः इन पंक्तियों में अभिव्यक्त भावों से प्रतीत होता है कि यहाँ ईश - भक्ति भी देश - भक्ति का ही अभिन्न अंग है ।

7- श्रृंगार - 
निरूपण भारतेंदु युगीन कविता में शृंगार निरूपण की प्रवृत्ति भी प्रचुर रूप में पायी जाती है । भारतेंदु कालीन शृंगार - निरूपण में भक्ति कालीन एवं रीतिकालीन शृंगार वर्णन का समन्वय है । भक्तिकालीन काव्य से माधुर्य भाव की भक्ति के शृंगार परक संदर्भो को ग्रहण किया गया है तथा रीति काल से नायिका भेद , नख - शिख निरूपण और षड्ऋतु वर्णन की परंपरा को अपनाया गया है ।

उदाहरणार्थ माधुर्य भाव का यह प्रसंग दृष्टव्य है --
नैन भरि देख लेहु यह जोरी ।
मन मोहन सुंदर नर नागर श्री बृषभान किसोरी ॥

8- हास्य - व्यंग्य
भारतेंदु युगीन काव्य में हास्य - व्यंग्य की प्रवृत्ति भी गहरे परिलक्षित हुई है । अंग्रेजों की आर्थिक शोषण की नीति पर व्यंग्य करते हुए भारतेंदु जी कहते हैं --
भीतर -भीतर सब रस चूसै ।
हँसि-हँसि के तन मन धन मूसै । 
जाहिर बातन में अति तेज ।
क्यों सखि साजन नहिं अंग्रेज ॥

9- प्रकृति-वर्णन --
प्रकृति - वर्णन भी आलोच्य युग की उल्लेखनीय विशेषता कही जा सकती है । अधिकांश प्रकृति - चित्रण उद्दीपन के अंतर्गत हुआ है , किंतु प्रकृति के आलंबनगत वर्णन में कवि ठाकुर जगमोहनसिंह और भारतेंदु को विशेष सफलता मिली है ।

10- जनजीवन का चित्रण --
रीतिकालीन काव्य राज्याश्रय में फला - फूला जबकि भारतेंदु युग का काव्य जन - जीवन की क्रोड़ में पला ।

11 भाषायी - चेतना --
इस युग की कविता की कतिपय भाषागत प्रवृत्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं । इस युग में ब्रजभाषा भी चलती रही , किंतु साथ ही खडी बोली का भी विकास हुआ । इस युग की भाषा रीतिकालीन रूढ़िग्रस्त भाषा से हटकर नितांत संदर्भ सापेक्ष , सजीव और अनुभूति प्रवण है ।

12- काव्यरूप --
कविता के क्षेत्र में मुक्तक रचनाओं की प्रधानता रही । गद्य - साहित्य की अनेक विधाओं का विकास इस युग की विशेष उपलब्धि है ।

13- अनुवाद --
विभिन्न प्रकार के अनुवाद हुए , जिनके लिए इस युग में ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली दोनों का ही ललित रूप में प्रयोग हुआ ।

14- गद्य का विकास --
इस युग में गद्य की विविध विधाओं का विकास हुआ , इसलिए इसे गद्य का विकास युग भी कहा जाता है । कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि तद्युगीन कवियों के काव्य में तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीति - परिस्थितियों का भावपूर्ण एवं यथार्थ रूप में चित्रण हुआ है ।

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