Thursday 7 May 2020

हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त परिचय (भाग-11) रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएं Brief Introduction to Hindi Literature (Part-11) Major trends and characteristics of Reetikaal

हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त परिचय (भाग-11)
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएं 
Brief Introduction to Hindi Literature (Part-11)
Major trends and characteristics of Reetikaal


इस ब्लॉग पर हिन्दी व्याकरण रस,और सन्धि प्रकरण,  तथा हिन्दी अलंकारMotivational Quotes, Best Shayari, WhatsApp Status in Hindi के साथ-साथ और भी कई प्रकार के Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि gyansadhna.com शेयर कर रहा हूँ ।

रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ---

रीतिकालीन साहित्य की सामन्तीय वातावरण में हुई । भक्तिकाल की स्वान्तः सुखाय तथा ' संतन को कहा सीकरी सों काम ' की भावनाएँ तथा आदर्श यहाँ आकर पूर्णतः परिवर्तित हो गए । इन कवियों की वाणी में सूर और तुलसी जैसी तन्मयता , सात्विकता , ऊर्जस्विता , और उदात्त चेतना लुप्त हो गई थी । रीतिकालीन कवि की सारी शक्ति सुरा , सुंदरी और सुराही में रम चुकी थी । प्रदर्शन - प्रवृत्ति की प्रधानता अनुभूति और अभिव्यक्ति में पूर्णतः समाहित हो चुकी थी । किंतु क्या उपर्युक्त सभी बातों के लिए उस युग के कवियों को दोषी ठहराया जाना उचित होगा । तटस्थ भाव से विचार करें तो यह सर्वथा अनुचित होगा , क्योंकि सभी विद्वान एकमत से यह स्वीकार करते हैं कि रीतिकालीन साहित्य की सृष्टि सामन्तीय वातावरण में हुई ।

फलतः उस युग अथवा वातावरण के कवियों से स्वांतः सुखाय रचना की अपेक्षा नहीं जा सकती । उन्होंने जो कुछ लिखा वह अधिकांशतः ' स्वामि सुखाय ' ही रहा । दूसरे ये संत नहीं थे , इसलिए जीवन यापन हेतु सीकरी इनका ध्येय रही । स्वामी खुश नहीं हुआ तो सीकरी कहाँ से मिलेगी , सीकरी नहीं मिलेगी तो जीवन यापन कैसे होगा । अत : स्वामी की प्रसन्नता हेतु शृंगार , काम - वासना की संकीर्णता तथा आश्रयदाता की कीर्ति का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन किया गया । ऐसा नहीं है कि रीतिकाल से पूर्व तथा उसके पश्चात् अथवा वर्तमान में शृंगारिक , वासनात्मक तथा आश्रयदाताओं की प्रशस्ति परक रचनाएँ नहीं लिखी गई , किंतु तटस्थ आलोचना का अभाव , ' ख्याली पुलाव न्याय ' से की गई समीक्षा , युगीन परिवेश की अनदेखी , कृत्रिम आधुनिकता तथा आरोप हेतु आरोप , की भावना के चलते आज इस साहित्य को उपेक्षित करने का उपक्रम किया जा रहा है । उपर्युक्त उपक्रम से साहित्यिकता का ही ह्रास होता है । न्यूनाधिक दोष कहीं भी किसी भी व्यक्ति अथवा साहित्य में हो सकते हैं किंतु सच्ची आलोचना को तटस्थता का आदर्श नहीं छोड़ना चाहिए ।

अब रीतिकालीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों व विशेषताओं की चर्चा करते हैं---

1- रीति निरूपण - 
रीति कवियों ने संस्कृत साहित्यशास्त्र का अध्ययन , मनन किया तदुपरांत काव्यांग - विवेचन प्रस्तुत किया । काव्यांग - विवेचन की दृष्टि से सर्वांगनिरूपण , विशिष्टांग निरूपण का कार्य समुचित ढंग से किया गया । रीति - निरूपक विद्वानों द्वारा एक महत्वपूर्ण कार्य परंपरा का निर्वाह तथा नूतन दृष्टि से प्रस्तुत करना रहा । इन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र से लक्षण तथा तयुगीन संदर्भो से उदाहरण प्रस्तुत किए । लक्षण भी संस्कृत में नहीं वरन् तयुगीन साहित्यिक ब्रजभाषा में प्रस्तुत किए गए , फलतः अनुवाद कार्य बड़े परिणाम में | हुआ । डॉ . भागीरथ मिश्र के शब्दों में " इन हिंदी लक्षणकारों या रीतिग्रंथकारों के
सामने कोई वास्तविक काव्यशास्त्री समस्या नहीं थी । इनका उद्देश्य विद्वानों के लिए काव्यशास्त्र के ग्रंथों का निर्माण नहीं था , वरन् कवियों और साहित्य रसिको को काव्यशास्त्र के विषयों से परिचित कराना था । " स्पष्टत : हिंदी साहित्य में रीति निरूपण के माध्यम से रस , अलंकार तथा छंद आदि के सुंदर उदाहरण सामने आए ।

2- शृंगारिकता - 
रीतिकालीन साहित्य में शृंगारिकता की प्रधानता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है । इस विषय पर प्रकाश डालते हुए डॉ . पूरनचंद टंडन ने लिखा है - " रीतिकालीन शृंगारिकता की प्रस्तावना भक्तिकाल मे ही तैयार हो चुकी थी । दरअसल , रीतिकालीन शृंगारिक कविता को फारसी कविता से प्रतिद्वंद्विता , संतो के ' रति इक तन में संचरे ' , सूफियों के अलौकिक प्रेम , कृष्णभक्तों की मधुरा भक्ति और रामभक्तों के रसिक संप्रदाय से नैतिक बल , संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथों से शास्त्रीय आधार , संस्कृत , प्राकृत और अपभ्रंश के शृंगारी ग्रंथों से परंपरा और अपने युग की मनोवृत्ति से स्थापना मिली ।

अतः रीतिकालीन कवियों ने शृंगार वर्णन के अवसरों का खुलकर उपयोग किया है । इस काल की शृंगारिक रचनाओं में किसी प्रकार का संकोच नहीं मिलता है । रीतिकालीन कवियों ने शृंगार के संयोग तथा वियोग पक्षों का चित्रण किया है किंतु संयोग के अनेकविध चित्रणों में इन कवियों का मन अधिक रमा है । संयोग वर्णन में कवियों ने भावादिजन्य चेष्टाओं , सुप्त , विहार , मद्यपान , दर्शन , स्पर्श , श्रवण तथा संलाप आदि का विस्तृत विवेचन किया है । वियोग वर्णन में पूर्वराग , मान , प्रवास और करूणा के वर्णन अनेकत्र मिलते हैं । संयोग में जहाँ ' बतरस लालच ' , ' भौंहन हँसना ' , ' स्वेद बढ़यों तन , कंप उरोजनि ' का सूक्ष्म निरूपण मिलता है वहीं वियोग में ' घरी - घरी ' , पल - पल , छिन - छिन , रैन - रैन , नैननि की आरति बोइ करिए आदि के माध्यम से गहन विरह - वेदना ही अभिव्यक्त हुई है । रीतिकाल के कवियों ने शृंगारिकता के आलंबन रूप में नायिका को अधिक रखा है । इसलिए उसके सौंदर्य का अनेक रूपों में चित्रण भी प्रस्तुत किया है । नायिका के सौंदर्य का सूक्ष्म से सूक्ष्म वर्णन उनकी सूक्ष्म दृष्टि का ही परिचायक है ।

3-  अलंकारिकता - 
युगीन वातावरण के अनुरूप तथा विषय को अधिकाधिक प्रभावशाली बनाने के लिए इन कवियों ने कविता को अलंकार रूपी भड़कीले रंगों में खूब रंगा है । अलंकारों के अधिक प्रयोग का दूसरा कारण अलंकार शास्त्र के अनुरूप कविता को सांचे में ढालना भी रहा । किंतु यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अलंकारों की अधिकता होने पर भी अनुभूति की उत्कृष्टता में कोई व्यवधान अथवा कमी नहीं आई । इन कवियों ने उपमा , रूपक , श्लेष , अतिश्योक्ति तथा अनुप्रास आदि अलंकारों का भेदोपभेद सहित निरूपण किया है । कई स्थानों पर तो एक ही पक्ति में कई अलंकारों का प्रयोग मिलता है , जिससे ऐसा लगता है कि ये अनुभूति का सहज अंग बनकर आए हैं , लादे हुए नहीं हैं ।

4- आश्रयदाताओं की प्रशस्ति - 
रीतिकाल के कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं , उनके पूर्वजों के वैभव , शौर्य , पराक्रम दानशीलता तथा उदारता आदि का खूब गुणगान किया है । कहीं - कहीं यह प्रशस्ति अतिश्योक्ति की सीमा तक भी पहुँच गई ।

5- वीरकाव्य - 
रीतिकाल में उचित वीरकाव्य में अनेकत्र प्रशस्ति भी मिलती है तथापि उसमें राष्ट्रीयता की भावना थी , जन - सामान्य को जागरूक करने का आह्वान भी विद्यमान है । इस काल में रचित रतनबावनी , वीर चरित्र , शिवराज भूषण , शिवबावनी , छत्रसालदशक , राजविलास , वीर सतसई , जंगनामा , सुजान - चरित्र , हम्मीर रासो , हम्मीर हठ तथा हिम्मत बहादुर विरूदावली आदि ग्रंथों में प्रशस्ति के साथ - साथ शुद्ध वीरता की भावना का निरूपण मिलता है । वीर रस तथा उसके विभिन्न अंगों का भूषण , सूदन , लाल , काल , श्रीधर , मानकवि , केशव तथा पद्माकर आदि ने विस्तृत वर्णन किया है ।

6- भक्तिकाव्य - 
रीतिकाल में प्रधान वर्ण्य - विषय शृंगार तथा काव्यशास्त्र रहा तथापि यत्र - तत्र भक्तिकाव्य की रचनाएँ भी होती रही । डॉ . नगेंद्र के शब्दों ' यह भक्ति भी उनकी शृंगारिकता का अंग थी । जीवन की अतिशय रसिकता से जब ये लोग घबरा उठते होंगे तो राधा - कृष्ण का यही अनुराग उनके धर्म भीरू मन को आश्वासन देता होगा । इस प्रकार रीतिकालीन भक्ति एक ओर सामाजिक कवच और दूसरी ओर मानसिक शरणभूमि के रूप में इनकी रक्षा करती थी । ' डॉ . नगेंद्र के उपर्युक्त मत को दृष्टि में रखकर भी इस बात से इनकार करना सर्वथा अनुचित होगा कि रीतिकाल में भक्ति की प्रवृत्ति मंगलाचरणों , आशीर्वचनों तथा अनेकत्र शुद्ध भक्ति - भावना के रूप में भी मिलती है । अनेक कवियों ने राम , कृष्ण , गणेश , शिव तथा शक्ति की आराधना प्रस्तुत की है । यारी साहब , पलटू साहब , दयाबाई , दरिया साहब , राधोदास , गरीबदास तथा दूखनदास आदि की रचनाएँ शुद्ध भक्ति - भावना का प्रमाण कही जा सकती हैं ।

7- नीतिकाव्य - 
नीति विषयक रचनाएँ जन - सामान्य को शिक्षा एवं व्यावहारिक चातुर्य का ज्ञान प्रदान करती हैं । रीतिकाल में भी संस्कृत साहित्य , आदिकाल तथा भक्तिकाल की नीतिकाव्य विषयक परंपरा मिलती है ।

जहाँ वृंद , गिरिधर कविराय , बैताल , रामसहाय दास , दीनदयाल गिरि तथा घाघ आदि ने शुद्ध नीतिकाव्य का सृजन किया । न केवल तयुग में वरन् वर्तमान में भी उनकी नीति विषयक सूक्तियाँ अपनी प्रासंगिकता रखती है । डॉ . पूरनचंद टंडन के शब्दों में - ' रीतिकाल के नीतिकवियों की यह विशेषता है कि ये जीवन के खट्टे - मीठे अनुभवों की अभिव्यक्ति द्वारा इस काल के साधारण व्यक्ति को भी अपनी कविता के साथ सहज रूप में जोड़ते हैं । यथार्थ की सटीक प्रस्तुति के क्रम में वे कटु सत्यों को भी उसी प्रवाह में अभिव्यक्त कर देते हैं , राजप्रशस्ति के जमाने में यह साहस एक बहुत बड़ी बात थी ।

8 . प्रकृतिकाव्य - 
रीतिकाल में प्रकृति विषयक भाव स्वतंत्र ग्रंथ के रूप अधिक सामने नहीं आते वरन् अनेक कवियों की रचनाओं में प्रसंगवश आते हैं । कहीं षडऋतु वर्णन तथा कहीं बारहमासे के रूप में प्रकृति चित्रण रीतिकालीन काव्य में अनेक स्थानों पर मिलता है । अधिकांशतः शृंगार रस के प्रसंग में , संयोग तथा वियोग की अवस्था में उद्दीपक रूप में प्रकृति - चित्रण खूब मिलता है ।

9- लोक -संस्कृति का चित्रण - 
रीतिकाल में सामंतीय वातावरण की प्रधानता हो हुए भी इस काल का कवि लोक संस्कृति से अछूता नहीं रहा है । होली के हुड़दंग का तो अनेक कवियों ने सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है , इसके अतिरिक्त विवाह तथा उससे जुड़ी अनेक रस्मों तथा गीतों का वर्णन भी अनेक स्थानों पर मिलता है । षड्ऋतुओं के लोक पर्व तथा उनमें आनन्दित होता प्रत्येक वर्ग , हिंडोरा , अन्नकूट , दीवाली तथा गोवर्धन आदि का रीतिकाल के कवियों ने सूक्ष्म चित्रण किया है ।

10- विविध विषयों का प्रणययन - 
रीतिकाल में काव्यशास्त्र तथा उससे संबद्ध विभिन्न काव्यांगों के अतिरिक्त - ज्योतिष , चिकित्सा , खागोल , विज्ञान , नीति , भक्ति , वीरता , प्रकृति , राजनीति , अर्थशास्त्र , युद्धशास्त्र , धर्मशास्त्र , समाजशास्त्र तथा लोकसंस्कृति आदि विषयों का अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है जिससे यह सिद्ध होता है कि ये कवि आश्रयदाताओं के चाटुकार मात्र ही नहीं थे , इनमें विद्वता थी जिसके कारण ये राजसभाओं में बड़प्पन पाते थे । निसंदेह इनके द्वारा विविध विषयों का प्रणययन परवर्ती साहित्यकारों के लिए भी मार्गदर्शक रहा ।

11- आचार्यत्व - 
रीतिकाल में अनेक विद्वान ऐसे हुए जिन्होंने रस , छंद तथा अलंकारों से संबद्ध नूतन विचार प्रस्तुत किए जिसके कारण उन्हें ' आचार्य ' कहा गया । स्पष्टतः आचार्य की उपाधि से विभूषित विद्वान विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे ।

12- कला - 
पक्ष की उत्कृष्टता - कला - पक्ष से भाषा , अलंकार , गुण तथा छंदों का विशेष संबंध होता है । रीतिकाव्य में ब्रजभाषा की प्रधानता रही ।



अन्य सम्बन्धित लेख साहित्य--

0 comments: