Wednesday 6 May 2020

हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त परिचय (भाग-9) रीतिकाल,कालविभाजन एवं नामकरण,Revitalization, time division and naming


हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त परिचय (भाग-9)
रीतिकाल,कालविभाजन एवं नामकरण
Brief Introduction to Hindi Literature (Part-9)
Revitalization, time division and naming

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1- रीतिकाल --

हिंदी - साहित्य में विक्रमी संवत् 1700 - 1900 तक की कालावधि को विद्वानों ने ' उत्तर - मध्यकाल ' , ' अलंकृतकाल ' , तथा ' कलाकाल ' आदि अभिधानों से अभिहित किया है किंतु अधिकांश विद्वानों ने आचार्य शुक्ल प्रदत्त ' रीतिकाल ' नामकरण को ही वरेण्य माना है । शुक्लजी के मतानुसार – ' वास्तव में शृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई । प्रधानता श्रृंगार की ही रही ।

इससे इस काल को रस के विचार से कोई शृंगारकाल कहे तो कह सकते हैं । ' आलोच्य काल में काव्यशास्त्र का अनेकविध तथा सूक्ष्म - विवेचन हुआ जिसमें नायक - नायिका भेद निरूपण , अलंकार निरूपण तथा श्रृंगार रस आदि का विशेष प्रभाव रहा । इतर विषयों के रूप में वीरता , भक्ति , नीति तथा गद्य आदि का भी पर्याप्त विवेचन हुआ । ब्रजभाषा की प्रधानता इस युग की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है । इस प्रकार रीतिकाल हिंदी - साहित्य के बहुविध विकास - विस्तार का युग है । इसकी सर्जनात्मक प्रतिभा का उत्कर्ष - बिंदु देव , बिहारी , मतिराम के काव्य तक की पहुँचा - तुलसी और सूर के कीर्तिमान अप्राप्य ही रहे , परंतु ' शुद्ध कविता ' अथवा काव्य - कला के प्रतिमानों से आंकने पर इसका योगदान कम महत्वपूर्ण नहीं है ।

2- रीतिकाल - कालविभाजन एवं नामकरण ---

आलोच्य काल के कालविभाजन एवं नामकरण का विवेचन इस प्रकार है-- 
1- जार्ज ग्रियर्सन - प्रेमकाव्य , तुलसीदास के अन्य परतर्वी ,
2- मिश्रबंधु - पूर्वालंकृत प्रकरण ( संवत् 1681 - 1790 तक ) - अलंकृतकाव्य , उत्तरालंकृत प्रकरण ( संवत् 1791 - 1889 तक )

3- हजारी प्रसाद द्विवेदी - उत्तमध्यकाल ( संवत् 1700 - 1900 तक )

4- विश्वनाथप्रसाद मिश्र - शृंगारकाल ( संवत् 1600 - 1975 तक )

5- रमाशंकर शुक्ल ' रसाल ' - कलाकाल ( संवत् 1700 - 1900 तक )

6- डॉ . रामकुमार वर्मा - रीतिकाल ( संवत् 1700 - 1900 तक )

7- डॉ . नगेन्द्र - रीतिकाल ( सत्रहवीं शती के मध्य से 19वीं शती के मध्य तक )

आलोच्य काल के काल - निर्धारण की दृष्टि से लगभग सभी विद्वानों ने - विक्रमी संवत् 1700 से 1900 तक अवधि स्वीकार की है । किंतु नामकरण के बिंदु पर पर्याप्त मतभेद विद्यमान हैं ।

लगभग सभी विद्वानों ने आलोच्ययुगीन काव्य के प्रमुख विषय को नामकरण के आधार रूप में प्रस्तुत किया है ।

1- अलंकृतकाल -
मिश्रबंधुओं के अनुसार - ' रीतिकालीन कवियों ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का यत्न किया है , उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं । अब भाव सीमित हो , उस समय जितने थे , उन्हें ही वे जगमगाने में लग गए । अतः इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृत है । ' स्पष्टतः मिश्रबंधुओं के तयुगीन कवियों द्वारा रचना शैली को अलंकृत करने के कारण आलोच्य काल को अलंकृतकाल के नाम से संबोधित किया ।

आलोच्यकाल को अलंकृत काल कहने का दूसरा कारण इस काल के कवियों द्वारा अलंकार निरूपक ग्रंथों में प्रणययन में विशेष रूचि दिखाई देना भी रहा । इस काल में प्रमुख अलंकार निरूपक ग्रंथों में मतिराम कृत - ललितललाम , अलंकार पंचाशिका , भूषणकृत - अलंकार प्रकाश । सूरति मिश्र कृत - अलंकार चन्द्रोदय । केशवदास - कृत - कविप्रिया , रसिकप्रिया तथा गुमान मिश्र कृत - अलंकार दर्पण आदि महत्वपूर्ण है।

मिश्र बंधुओं द्वारा दिए गए ' अलंकृतकाल ' नामकरण के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि रचना शैली को अलंकृत करने का यत्न ते आलोच्यकाल के पूर्व में भी हुआ और उसके बाद भी , जहाँ तक आलोच कालावधि में रचित अलंकार निरूपक ग्रंथों का प्रश्न है तो उस काल में अलंकारों के अतिरिक्त रस , छंद , नायक - नायिका भेद तथा प्रकृति आदि से संबद्ध भी अनेक ग्रंथ विद्यमान हैं । अतः ' अलंकृतकाल ' नामकरण में अतिव्याप्ति दोष विद्यमान है ।

अलंकृतकाल ' नामकरण को असमीचीन बताते हुए डॉ . पूरनचंद टण्डन लिखते हैं - " यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है इससे अंतरंग पक्ष भाव एवं रस की अवहेलना होती है तथा बिहारी और मतिराम जैसे रससिद्ध कवि , जिनकी कविता में भाव की प्रधानता है , उनकी कविता के साथ न्याय नहीं हो पाता । इसके अतिरिक्त ' अलंकृत काल ' नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति शृंगार और शास्त्रीयता की पूर्णत : उपेक्षा हो जाती है ।

2- रीतिकाल --
आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य के उत्तरमध्यकाल को ' रीतिकाल ' नाम दिया । जिसके लिए उन्होंने रचना - पद्धति का आधार ग्रहण किया है । प्रो . महेंद्र कुमार के शब्दों में - ' विषय चयन के आधार पर भी इस काल को ' रीतिकाल ' कहने में किसी प्रकार का अव्याप्ति - दोष न होगा , क्योंकि प्रत्येक कवि द्वारा इसमें श्रृंगार को न्यूनाधिक रूप से ग्रहण किया जाना भी तो एक विशेष प्रकार की ' रीति ' ( पद्धति ) ही है । ' प्रस्तुत नामकरण के संबंध में इसी प्रकार की स्वीकारोक्ति प्रकट करते हुए डॉ . भागीरथ मिश्र लिखते हैं - ' कलाकाल कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है । शृंगारकाल कहने से वीर रस और राज प्रशंसा की , रीतिकाल कहने से प्रायः कोई भी महत्त्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रवृति सामने आ जाती है ।

रीतिकाल ' नाम को लगभग सभी विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है । स्वयं शुक्लजी के अनुसार ' इन रीतिग्रंथियों के कर्ता भावुक , सहृदय और निपुण कवि थे । उनका उद्देश्य कविता करना था , न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्धति पर निरूपण करना । अत : उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों ( विशेषतः शृंगार रस ) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण प्रचुर परिमाण में प्राप्त होते हैं । ' स्पष्टत : उपर्युक्त मत से यह स्पष्ट है कि शुक्ल जी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रंथियों और रीतिग्रंथकारों की सुदीर्घ परंपरा भी रही है । साररूपेण यह युग रीति - पद्धति का युग था , इसलिए ' रीतिकाल ' , ' नामकरण अधिक संगत तथा वैज्ञानिक प्रतीत होता है ।

3- कलाकाल --
रमाशंकर शुक्ल ' रसाल ' जी ने इस काल को ' कलाकाल ' कहा है । उनका तर्क है कि ' मुगल सम्राट शाहजहाँ का संपूर्ण शासनकाल कलावेष्टित था । जिसमें एक ओर स्थापत्य कला अपने चरम पर थी , वहीं दूसरी ओर कविता में भी कलात्मकता की प्रधानता रही । इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया । ' अतः यह ' कलाकाल ' है । प्रस्तुत नामकरण के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि ' अलंकृतकाल ' नाम की तरह यह नाम भी कविता के बाह्य पक्ष अर्थात् साज - सज्जा का ही बोध कराता है जिससे काव्य का आंतरिक पक्ष उपेक्षित ही रह जाता है । अतः प्रस्तुत नामकरण विद्वानों में मान्य नहीं हो सका ।

4-  शृंगारकाल --
आलोच्ययुगीन काव्य में शृंगार रस की प्रधानता को देखते हुए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को ' शृंगारकाल ' नाम दिया । इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने भी ' रीतिकाल ' नामकरण के साथ - साथ शृंगारकाल नाम में भी तार्किक सहमति व्यक्त की थी - " वास्तव में शृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई । प्रधानता शृंगार की ही रही । इससे इस काल को रस के विचार से कोई शृंगारकाल कहे तो कह सकता है ।
" इसलिए भी मिश्र जी ने इस काल को ' शृंगारकाल ' कहा । ।

आलोच्ययुगीन काव्य का यदि हम अध्ययन - विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि --

1- रीतिकालीन कवियों का मूल स्वर शृंगार कभी नहीं रहा । राज्याश्रय में रहने वाले कवि के लिए आश्रयदाता राजाओं की रूचि महत्वपूर्ण थी । चूंकि उनके आश्रयदाता विलासी वृत्ति के थे , इसलिए ये कवि शृंगार रस की कविताएँ लिखते थे । स्पष्टतः इन कवियों का लक्ष्य आजीविका अर्जन करना था , जिसमें शृंगारिक कविताएँ उनकी सहायक रहीं ।

2- रीतिकालीन कवियों ने शृंगार के अतिरिक्त लोक संस्कृति , प्रकृति , भक्ति , नीति , प्रेम तथा वीरता आदि विषयों पर भी खूब लिखा है । जहाँ इन कवियों की अनुभूति विशद्ता सर्वत्र देखी जा सकती है । इसलिए इस युग के काव्य को मात्र ' शृंगार रस ' , ' कला की सजावट ' आदि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता । स्पष्टतः नामकरण की दृष्टि से कलाकाल , अलंकृतकाल तथा शृंगारकाल आदि नाम उपयुक्त नहीं ठहरते ।

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