Wednesday 6 May 2020

हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त परिचय (भाग-10) रीतिकालीन साहित्य एवं साहित्यकार,Hindi Literature Ritikalin literature and litterateur

हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त परिचय (भाग-10)
रीतिकालीन साहित्य एवं साहित्यकार
Brief Introduction to Hindi Literature (Part-10)
Ritikalin literature and litterateur

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रीतिकालीन साहित्य एवं साहित्यकार -- 
विक्रमी संवत् 1700 - 1900 तक की लगभग 200 वर्षों की सुदीर्घ अवधि में रचित साहित्य का केंद्र यद्यपि काव्यांग रीति - निरूपण रहा तथापि वीर , भक्ति , नीति तथा प्रकृति आदि विषय भी कवियों की दृष्टि से अछूते नहीं रहे । स्थूल रूप में हम रीतिकालीन साहित्य का वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं ---

}रीतिकालीन साहित्य रीति साहित्य
                   > रीति साहित्य 
                   > रीतिमुक्त साहित्य 
                   > तीति इतर साहित्य 

1- रीति साहित्य --
काव्य रचना की परिपाटी अथवा शैली का पालन करते हुए रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने जो साहित्य लिखा वह रीति साहित्य कहा जाता है । इसके अंतर्गत रीतिशास्त्रकार , रीतिकवि और रीतिबद्ध कवियों को रखा जाता है । इन रीति कवियों ने निरूपण - काव्य / काव्यांग निरूपण को महत्व दिया । रीतिकवियों तथा रीतिबद्ध कवियों के विषय में डॉ . पूरनचंद टंडन ने लिखा है - ' रीतिकवियों ने काव्य रचना के समय लक्षणों का विधान भी कर लिया था और यह कवि इन लक्षणों में इस प्रकार निबद्ध हो गए कि कुछेक स्थलों पर काव्यगत असहजता भी इन्हें अरूचिकर प्रतीत न हुई । इसके विपरीत रीतिबद्ध कवियों ने काव्य के लक्षणों को सिद्ध तो कर लिया किंतु इस आधार पर काव्य रचना का कोई नियम नहीं बनाया । किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि रीतिनिरूपक कवि शास्त्रीयता के व्यूह में अनुभूति की मार्मिकता को नहीं पहचान सके । उनके काव्य में अनेक ऐसे स्थल हैं , जहाँ उनके काव्यत्व की गरिमा रसत्व , अनुभूति , बिंब एवं रेखाओं की सहस्थिति के संयोग से संयोगीजनो को रसमग्न करने वाली हो गई है । इनमें मूलभूत अंतर यही है कि रीतिकवियों ने शास्त्रीय लक्षणों को उद्धृत कर उनकी पुष्टि रूप में अपनी कविता रची है और रीतिबद्ध कवि शास्त्र से संबद्ध रहते हुए भी शास्त्र का हवाला नहीं देते ।
 रचनात्मकता के आधार पर रीति साहित्य / कवियों के दो वर्ग सामने आते हैं -
1- सर्वांगनिरूपक 
2- विशिष्टांग निरूपक 

सर्वांगनिरूपक कवियों ने काव्यशास्त्र के प्रायः सभी अंगों यथा - काव्य - लक्षण , प्रयोजन , हेतु , रस , छंद , अलंकार , गुण , दोष तथा शब्द शक्ति आदि को अपना वर्ण्य विषय बनाया । इनमें मुख्य रूप से देव , भिखारीदास , प्रतापसाहि , कुलपति , चिंतामणि तथा सोमनाथ आदि मिलते हैं । विशिष्टांग निरूपक कवियों न काव्यशास्त्र के सभी अंगों पर नहीं लिखा वरन किसी एक अथवा एकाधिक अंगों को वर्ण्य विषय बनाया । इनमें मुख्य रूप से रसलीन , याकूब खाँ , मतिराम , देव , सोमनाथ , समनेस तथा ग्वाल आदि आतें हैं । इनमें से कुछ कवि सर्वांगनिरूपक तथा विशिष्टांग निरूपक दोनों वर्गों में गिने जाते हैं ।

2- रीतिमुक्त साहित्य --
रीतिमुक्त ' का सीधा अर्थ यही है कि यह धारा रीति - परंपरा के साहित्यिक बंधनों और रूढियों से मुक्त है । कुछ विद्वान इसे स्वच्छंद काव्यधारा भी कहते हैं । स्वच्छंद शब्द भी नियममुक्तता तथा रूढ़िमुक्तता आदि का ही द्योतक है । रीतिमुक्त काव्य रीतिकाव्य की तरह आत्मप्रदर्शनपरक , वस्तु - प्रधान अथवा चमत्कार प्रधान न होकर आत्माभिव्यक्ति एवं व्यक्ति प्रधान काव्य कहा जा सकता है । यही कारण होती है । यहाँ काव्यांग विवेचन से इतर निजी अनुभूति कवियों का वर्ण्य - विषय रही । रीतिमुक्त तथा रीति कवियों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए डॉ . पूरनचंद टंडन ने लिखा है - ' काव्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण की भिन्नता ही रीति एवं रीतिमुक्त के बीच की विभाजक रेखा है ।

जिस प्रकार एक काव्य को बनाता है तथा दूसरा काव्य के द्वारा बनाया जाता है ,दोनों के लिए ही शृंगार का आश्रय नारी है , किंतु रीतिकवि के लिए नारी और उसका शृंगार उपभोग मात्र की वस्तु है जबकि रीतिमुक्त कवि के लिए यह उपभोग की वस्तु न होकर प्रेम और आत्मानंद - अनुभूति का माध्यम है । एक संयोग में रहकर भी तृप्त नहीं है , दूसरा वियोग में भी संयोगावस्था से भी अधिक तृप्त है । ' रीतिमुक्त कवियों के अंतर्गत घनानंद , बोधा , ठाकुर , आलम तथा द्विजदेव आदि आते हैं ।

3- रीतिइतर साहित्य --
रीतिकाल की लगभग दो सौ वर्षों की कालावधि में रीति साहित्य तथा रीतिमुक्त साहित्य के अतिरिक्त भक्तिकाव्य , नीतिकाव्य , वीरकाव्य तथा गद्य साहित्य की रचनाएँ भी पर्याप्त परिमाण में मिलती है । रीतिकाल में रचित भक्तिकाव्य का विवेचन करने पर हम पाते हैं कि भक्तिकाल की निर्गुण तथा सगुण दोनों धाराओं तथा उप - धाराओं का प्रवाह यहाँ भी बना रहा , किंतु इनका वेग धीमा पड़ गया था । भक्ति अब कहीं तो सामंतीय वातावरण से त्रस्त जनता का सहारा बन गई थी तो कहीं परंपरा का पालन मात्र कुछ ही कवि शुद्ध भाव से भक्तिभाव का सृजन तथा प्रचार - प्रसार कर रहे थे । ज्ञानमार्गी अथवा संत काव्यधारा को अग्रसर करने वालों में यारी साहब , दरिया साहब , जगजीवनदास , पलटू साहब , चरनदास , शिवनारायण , तुलसी साहब , अक्षर अनन्य , गुरु तेग बहादुर , प्राणनाथ , दयाबाई , सहजोबाई तथा धरणीदास आदि मुख्य रहे । प्रेममार्गी धारा अथवा सूफी काव्यधारा का प्रवाह भी यहाँ विद्यमान रहा ।

इस धारा के कवियों में मुख्य हैं - 
कासिमशाह , नूर मुहम्मद , शेख निसार , सूरदास , दुखहरनदास , हंस , केसि , मुरलीदास तथा रामदास आदि । 

रामकाव्यधारा की परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में जानकीरसिकशरण , भगवंतराय खीची , जनकराज किशोरीशरण , नवलसिंह , विश्वनाथ सिंह , रामप्रियाशरण । रसिकअली , सरजूराय पंडित तथा मधुसूदन आदि मुख्य हैं । कृष्ण काव्यधारा से संबद्ध साहित्य में एक विशेष परिवर्तन दिखाई पड़ता है । यहाँ आकर राधा - कृष्ण भक्तिकाल की मर्यादा तथा सख्यभाव से अलग लौकिक नायक - नायिका तथा माधुर्य भाव के निकट दिखाई दिए , जिसके मूल में युगीन परिस्थितियों का प्रभाव ही अधिक दृष्टिगोचर होता है । इस धारा के अंतर्गत - गुमान मिश्र , ब्रजवासीदास , रूपरसिकदेव , नागरीदास , अलबेली अलि , चाचा हितवृंदावनदास , भगवतरसिक , सुंदरी कुंवरबाई , बख्शी हंसराज श्रीवास्तव , प्रेमसखी तथा रत्नकुंवरि आदि मुख्य रीतिकाल की नीतिविषयक रचनाएँ परंपरा की द्योतक हैं । इन रचनाओं में अपने पूर्ववर्ती युगों की नीति विषयक परंपरा सजीवता से प्रवाहमान मिलती है । आलोच्य युग के नीति साहित्य में समाज , राजनीति , आर्थिक तथा धार्मिक सभी विषय समुचित ढंग से गूंथे मिलते हैं ।

रीतिकाल के प्रमुख नीतिकारों में गिरिधर कविराय , सम्मन , रामसहायदास , दीनदायाल , गिरि तथा बैताल आदि आते हैं । - रीतिकाल की वीरकाव्य से संबद्ध रचनाओं में आश्रयदाता राजाओं की कीर्ति - गाथाओं की अतिश्योक्ति होते हुए भी राष्ट्रीयता का स्वर जन - सामान्य को प्रेरणा देने में अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ । इस काल के प्रमुख वीरकाव्य रचयिता इस प्रकार है - भूषण , लाल कवि , सूदन , खुमान , पद्माकर भट्ट , जोधराज तथा बांकीदास आदि । रीतिकाल में कथा - कहानी , वार्ता , वात , वर्णन , चरित्र , वचनिका , दवावैत , सलोका , वचनामृत , गोसट , जीवनी , नाटक ख्यात , टिप्पण , टीका तथा पत्र आदि विधाओं में गयात्मक रचनाएँ लिखी गईं । धर्म , दर्शन , अध्यात्म , इतिहास , भूगोल , ज्योतिष , चिकित्सा , गणित , व्याकरण , तथा वैधक आदि विषयों की रचनाओं के साथ - साथ अनुवाद का प्रारंभ भी रीतिकाल के अंतिम चरण से आरंभ हो गया था ।

रीतिकाल में ब्रजभाषा , राजस्थानी , खड़ीबोली तथा मैथिली आदि में गद्य रचनाओं का लेखन आरंभ हो गया था । इस काल के प्रमुख गद्यकारों में मीनराज प्रधान , अक्षर अनन्य , दामोदरदास , मेघराज प्रधान , भानुमिश्र , नित्यनाथ , प्रियादास , रामचरणदास , विमल कीर्ति , विमलरत्न , कुंवर विजय , सुखसागर , मुंशी सदासुखलाल , टोडरमल जैन , दयाल अनेमी , रामप्रसाद निरंजनी तथा अड्डनशाह आदि उल्लेखनीय हैं ।

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