Saturday 9 May 2020

हिन्दी साहित्य (भाग-19) प्रगतिवाद का विवरण एवं प्रगतिवादी काव्य की महत्वपूर्ण विशेषताएं , Description of Progressivism and Important Features of Progressive Poetry

हिन्दी साहित्य (भाग-19)
प्रगतिवाद का विवरण एवं प्रगतिवादी काव्य की महत्वपूर्ण विशेषताएं 
Hindi literature (part-19)
Description of Progressivism and Important Features of Progressive Poetry

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प्रगतिवाद छायावाद के समाप्तिकाल में सन् 1936 के आस - पास सामाजिक चेतना को लेकर जो काव्य लिखना आरंभ हुआ था , उसे प्रगतिवादी काव्य की संज्ञा दी जाती है । ' प्रगतिवाद ' शब्द से यदि इसके स्वरूप को समझने का प्रयत्न किया जाएगा तो अनेक भ्राँतियाँ जन्म ले सकती हैं । इसलिए साधारणतः यह समझ जाना चाहिए कि यह नाम उस काव्यधारा के लिए है , जो मार्क्सवादी दर्शन के आलोक में सामाजिक चेतना और भाव बोध को लेकर चली है । यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रगतिवादी काव्य के उद्भव और विकास में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ तो सहायक हुई ही है , साथ ही छायावाद की दम तोडती व्यक्तिवादी काव्यधारा की प्रतिक्रिया भी मौजूद है ।

प्रगतिवाद ने रचना और आलोचना के क्षेत्र में नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया । इसने सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति को रचना का उद्देश्य माना । वह सौंदर्य का नया दृष्टिकोण लेकर उपस्थिति हुआ । उसने वर्तमान जन - जीवन में सौंदर्य को खोजा और साहित्य को सोद्देश्य माना । वस्तुतः प्रगतिवाद सामाजिक यथार्थ दस प्रकार चित्रण करता है कि कुरूप , शोषक , सड़ी - गली विसंगतिग्रस्त का पर्दाफाश हो और नई सामाजिक शक्तियों के संघर्ष को बल मिले । तिवादी कविता में सामाजिक नवीन जीवन की वास्तविकताएँ उजागर ने जनता तक पहुँची ।

उनमें जनता के जीवन की बात कही गई और सबसे बड़ी बात कि अभिव्यक्ति का माध्यम प्रचलित भाषा बनी । इस काव्यधारा के प्रमुख कवियों में - निराला , केदारनाथ अग्रवाल , नागार्जुन , त्रिलोचन शास्त्री , रांगेय राघव तथा शिवमंगल सिंह सुमन आदि मुख्य हैं ।

प्रगतिवादी काव्य की महत्वपूर्ण  विशेषताएँ --

भारतीय साहित्य में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले ही भारतीय राजनीति , समाज और साहित्य के क्षेत्र में साम्यवादी विचारधारा का पर्याप्त प्रचार - प्रसार हो चुका था । इससे हिंदी के कवियों तथा साहित्यकारों का प्रभावित होना स्वाभाविक था । यद्यपि तीसरे दशक में छायावाद पूरे यौवन पर था , किंतु इसी दशक के अंत तक छायावाद के अनेक प्रमुख कवि साम्यवादी विचारों और समाजवादी आदर्शों से प्रभावित होने लगे थे ।
प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है ---

1- रूढ़ि विरोध - 
प्रगतिवादी कवि ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता । उसे ईश्वर की सत्ता , आत्मा , परलोक , भाग्यवाद , धर्म , स्वर्ग और नरक आदि पर विश्वास नहीं है । वह अंधविश्वासों , मिथ्या पंरपराओं तथा रूढ़ियों पर कडा प्रहार करता है ।

उसे मानव को मानव रूप में ही देखना पसंद है --
भ्रांत यह अतिरंजित इतिहास ? 
व्यर्थ के गौरव गान ,
दर्प से एक महान् ,
ऊपर मुख ग्लान ,
किसी को आर्य ,अनार्य ,
किसी को यवन ,
किसी को हूण-यहूदी द्रविड ,
किसी को शशि ,
किसी को चरण ,
मनुज को मनुज न कहना आह ।।

2- शोषितो का क शोषितों का कारुणिक चित्रण - 
प्रगतिशील कवियों ने अपने काव्य चित्रण किया है । प्रायः प्रत्येक कवि दलितों की दीन दशा " शोषितो का करुण चित्रण किया ह । प्रायः प्रत्येक पर आँस बहाता नज़र आता है । रामेश्वर करुण की का जाता है । रामेश्वर करुण की ' करुण सतसई ' 1934 में ही गटापि यह रचना ब्रजभाषा में है , किंतु इसमें प्रगतिवाद के प्रकाशित हो गई थी । यद्यपि यह रचना ब्रजभाषा में है कि प्रायः सभी तत्त्वों , अंगों एवं पक्षों का चित्रण है ।

मजदूर सुख के साधन स्वयं बनाता है , पर वही उससे वंचित रहता है । वह अन्नदाता है , पर खूद भूखों मरता है । 

यह भाव प्रगतिवादी काव्य में सशक्त रूप में प्राप्त होता है ---
ओ मजदूर ! ओ मजदूर ! 
तू सब चीजों का कर्ता , 
तू ही सब चीजों से दूर , 
ओ मजदूर ! ओ मजदूर ! 

3- शोषकों के प्रति घृणा और क्रोध ---
प्रगतिवादी काव्य में शोषकों के प्रति घृणा एवं क्रोध के भाव मिलते हैं । शोषक वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था बनाए रखने के पक्ष में है और शोषित उसे नष्ट करने के पक्ष में । प्रगतिवादी कवि इस सामाजिक जीवन की विषमता को मिटा देने के पक्ष में है । इसी दिशा में वह प्रयत्न करता प्रतीत होता है ।

रामधारी सिंह दिनकर इस आक्रोश को यों अभिव्यक्त करते हैं ---
श्वानों को मिलता वस्त्र दूध , 
भूखे बालक अकुलाते हैं । 
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर ,
जाड़ों की रात बितातें हैं । 
युवती की लज्जा वसन बेच , 
जब ब्याज चुकाए जाते हैं । 
मालिक जब तेल फलेलों पर ,
पानी सा द्रव्य बहाते हैं । 
पापी महलों का अहंकार देता ,
मुझको तब आमंत्रण ॥

4- क्रांति का आह्वान - 
प्रगतिवादी कवि सामंतवादी परंपरा का समूल नाश चाहता है । इसके लिए वह क्रांति के उन स्वरों का आह्वान करता है जिससे जीर्ण - शीर्ण रूढ़ियाँ और परंपराएँ नष्ट हो जाएँ ।

वह पूंजीपतियों के गगनचुंबी महलों को भूमिसात् देखना चाहता है --
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ ,
जिससे उथल - पुथल मच जाए ।

5- मार्क्स तथा रूस का गुणगान --
अनेक प्रगतिवादी कवियों ने साम्यवाद के प्रवर्तक रूस का गुणगान किया है । पंत जी के काव्य में कई स्थानों पर साम्यवादी दर्शन की व्याख्या तक मिलती है ।

नरेंद्र शर्मा लाल रूस का गुणगान करते हैं --
लाल रूस है ढाल साथियों , 
सब मजदूर किसानों की , 
वहाँ राज है पंचायत का , 
वहाँ नहीं है बेकारी । 
लाल रूस का दुश्मन साथी , 
दुश्मन सब इंसानों का , 
दुश्मन है सब मजदूरों का , 
दुश्मन सभी किसानों का ।

6- मानवीय दृष्टिकोणा - 
प्रगतिवादी कवियों में भी अनेक प्रकार के काव है । एक अपनी मातृभूमि के लिए लिखता है , देश के भूखे - नंगों , कसानों - मजदूरों , वेश्याओं और विधवाओं का उद्धार चाहता है तो दूसरा समस्त मानवता के उद्धार का इच्छुक है । उसके लिए सभी बराबर है ।

स्वर्ण धूलि ' में पंत जी इसी विचारधारा को व्यक्त करते हुए कहते हैं -- 
नहीं छोड़ सकते रे यदि जन , 
देश राष्ट्र राज्यों के हित नित्य युद्ध करना ,
हरित जनाकुल धरती पर विनाश बरसाना ,
तो अच्छा है छोड़ दें अगर हम, 
अमरीकन ,रूसी और इंगलिश कहलाना ,
देशों में आए धरा निखर ,
पृथ्वी हो सब मनुजों का घर ,
हम उनकी संतान बराबर । । 

7- वेदना का मार्मिक चित्रण - 
छायावादी के भांति प्रगतिवादी काव्य में भी वेदना का मार्मिक चित्रण है , लेकिन प्रगतिवादी की वेदना वैयक्तिक और . सामाजिक दोनों है , जबकि छायावाद की केवल वैयक्तिक है । प्रगतिवादी संघर्षों से टकराता है , किंतु निराश नहीं होता ।

8- नारी का चित्रण - 
प्रगतिवादी काव्य में नारी की मार्मिक व्यथा का चित्रणं है । कवि की दृष्टि में नारी सामंतवाद के कारावास में आज भी कैद है । वह पुरूष दासता की लौहमयी श्रृंखलाओं से बद्ध बंदिनी के रूप में पड़ी है और अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व खो चुकी है । पुरुष के लिए वह केवल वासना का उपकरण रह गई है ।

प्रगतिवादी कवियों ने नारी की इस स्थिति को मार्मिक एवं सहानुभूति के रूप में चित्रित किया है --
योनि नहीं है रे नारी वह भी मानवी प्रतिष्ठित ।
उसे पूर्ण स्वाधीन करो , वह रहे न नर पर अवसित । । 

9- सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण -- 
इस धारा के काव्य में निम्न वर्ग के जीवन को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न है । इससे पूर्व के साहित्य में मध्यवर्गीय तथा उच्चवर्गीय जीवन प्रतिबिंबित हुआ था । प्रगतिवादी कवि ऐश्वर्य , विलास , सुमन , सुरभि के स्थान पर भूख की पुकार सुनता है । आकाश में विचरण करने वाले की वह चिंता नहीं करता ।

कवि ताज के बारे में कह उठता है --
हाय मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन ।
जब विषण्य निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन ॥ 

10- जीवंत एवं सामाजिक समस्याओं का चित्रण - 
प्रगतिवादी काव्य - भारत - पाक विभाजन की पीड़ा भी है और कश्मीर समस्या भी व्यथा भी । बंगाल का अकाल , महंगाई और दरिद्रता का चित्रण भी है और बेरोजगारी का भी ।

सुदर्शन चक्र ' की कुछ पंक्तियाँ सामयिक समस्याओं का चित्रण इस प्रकार अभिव्यक्त करती हैं --
शरुआत ही सबसे कच्ची , 
बिना दवा के जूझी बच्ची ,
बच्चे का भी पढ़ना छूटा , 
फीस बढ़ौती का बम फूटा ,
मंहगाई ने नई मोड़ ली , 
बेकारी ने कमर तोड़ दी । 

प्रगतिवादी कवियों ने छंद के क्षेत्र में उदारता का परिचय दिया है । उन्होंने मुक्तक और अतुकांत दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है । प्रगतिकाव्य की उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट है कि इस धारा के कवियों ने मार्क्सवाद से प्रभावित होकर काव्य रचना की , समाज में व्याप्त रूढ़ियों का जमकर विरोध किया , शोषकों के प्रति घृणा व्यक्त की और शोषितों के प्रति सहानुभूति दर्शायी । सामयिक समस्याओं का सजीव चित्रण किया ।

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