हिन्दी साहित्य (भाग-14)
भारतेन्दु युग का विस्तृत वर्णन
Hindi literature (part-14)
Detailed description of Bharatendu era
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भारतेंदु युग --
हिंदी साहित्य के इतिहास में सन् 1850 से 1900 तक का युग ' भारतेंदु युग ' के नाम से अभिहित किया जाता है । आलोच्यकाल का नामकरण तत्कालीन प्रतिभाशाली रचनाकार भारतेंदु हरिशचंद्र के नाम के आधार पर किया गया है । वास्तव में प्राचीन से नवीन की दिशा में संक्रमण के इस युग में भारतेंदु भारतवासियों की नवोदित आकांक्षाओं और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक थे । वे सचमुच भारतीय नव - जागरण और नवोत्थान के अग्रदूत थे । इन्होंने मध्युगीन पौराणिक परिवेश से जीवन और साहित्य को बाहर निकालकर उसे आधुनिक रूप प्रदान करने की सतत चेष्टा की ।
इसके साथ - साथ भारतेंदु ने भाव - भाषा , गद्य - पद्य , दोनों क्षेत्रों में हिंदी भाषा - भाषियों का सफल नेतृत्व किया । इसी के प्रेरित होकर डॉ . रामविलास शर्मा ने भारतेंदु युगीन साहित्य का मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि " प्रथम उत्थान नव युग का आरंभ मात्र था । इसलिए हमें इस समय की कविता में उस कलात्मकता के दर्शन नहीं होते जो कालांतर में सतत परिश्रम से प्रकट हई । काव्य - विषयों के सर्वथा नवीन होने के कारण इनकी काव्यपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए समय की आवश्यकता थी । " उपर्युक्त कथन के आधार पर यह बात सही है कि इस युग के साहित्य में कलापूर्ण अभिव्यक्ति का आभाव रहा लेकिन इसके बावजूद भारतेंदु युगीन साहित्य खड़ी बोली हिंदी के प्रयोग के कारण एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जा सकता है ।
युगप्रवर्तक रचनाकार भारतेंदु का जन्म 1850 ई . में हुआ था और 1857 ई . में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ था । यूं तो आधुनिकता और नव जागरण के संदर्भ में उक्त दोनों घटनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है । भारतेंदु ने सन् 1886 में ' कवि वचन - सुधा ' नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था । इस प्रकार भारतेंदु कवि , पत्रकार , नाटककार के रूप में हमारे समक्ष आए है । वास्तव में भारतेंदु सच्चे दृष्टा और सृष्टा थे । अतः भारतेंदु केवल नवजागरण के ही नहीं , वरन् आधुनिक हिंदी - साहित्य के भी जन्मदाता माने जाते हैं ।
इनकी छोटी - बड़ी सब रचनाओं की संख्या लगभग 175 है , जिनका प्रकाशन ' भारतेंदु ग्रंथावली ' के नाम से हो चुका है । इन काव्य कृतियों में प्रेममालिक प्रेमसरोवर , प्रेमफुलवारी , बंदरसभा तथा नाट्य कृतियों में अंधेरे नगरी , वैदिकी हिंसा - हिंसा न भवित , चंद्रावली आदि प्रमुख है । उनकी अनेक रचनाओं में प्राचीन काव्य - प्रवृत्तियों का अनुवर्तन है , किंतु कुछ कृतियों में इन्होंने नवीन काव्यधारा का भी प्रवर्तन किया है । इनकी रचनाओं में राज - भक्ति , देश - भक्ति , परंपरा - प्रेम , प्रेम व्यंजना , समाज - सुधार , प्रकृति - प्रेम , हास्य - व्यंग्य आदि प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं । उन्होंने अंग्रेजी शासकों के सद्व्यवहार की प्रशंसा भी की है और दूसरी ओर उनकी कुटिल नीतियों की भी इन्होंने जमकर भर्त्सना की है ।
भारतेंदु जी ने ' रिपनाष्टक ' में लार्ड रिपन की प्रशंसा की है , किंतु अन्य स्थलों पर कुटिल शासको की निंदा की है ---
" स्ट्रेची डिजरैली , लिटन चितय नीति के जाल । "
तथा अंग्रेजों की विभेदक कूटनीति के विषय में स्पष्ट लिखते हैं कि ---
“ सत्रु-सत्रु लडवाइ दूरि रहि लखिय तमासा ।
प्रबल देखिए जाहि ताहि मिलि दीजै आसा ॥ "
इस प्रकार कविता के क्षेत्र में जहाँ भारतेंदु ने प्रायः ब्रजभाषा का प्रयोग किया , वहीं उन्होंने लीलादेवी , भारत - दुर्दशा आदि नाट्य कृतियों में खड़ी बोली गद्य का प्रयोग किया । नाटकों में उनके गद्य का अपेक्षाकृत परिमार्जित रूप मिलता है ।
भारतेंदु युग के अन्य प्रमुख साहित्कारों में बदरीनारायण चौधरी ' प्रेमधन ' , प्रतापनारायण मिश्र , राधाचरण गोस्वामी , ठाकुर जगमोहन सिंह , अंबिका दत्त व्यास , राधाकृष्ण दास , बालमुकुंद गुप्त एवं बालकृष्ण भट्ट आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ये सब भारतेंदु युग के प्रमुख निबंधकार , पत्रकार , नाटककार एवं समीक्षक थे । इनमें गुप्त - जी की ख्याति उनकी प्रमुख गद्य - रचनाओं शिवंशभु के चिट्ठे तथा ' चिठे और खत ' के कारण अधिक फैली ।
गुप्त - जी के निबंधों में अंग्रेजी शासक कर्जन की शासन नीति के विरोध का स्वर व्यंग्य के रूप में फूटा है । आलोच्य युग में कविता के साथ - साथ नाटक , निबंध , उपन्यास , कहानी आदि गद्य विधाओं का भी विशेष विकास हुआ । पत्रकारिता के विकास एव साहित्य की समीक्षा के लिए भी युगीन साहित्यकारों का उल्लेखनीय योगदान रहा है ।
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