Saturday 9 May 2020

हिन्दी साहित्य (भाग-17) द्विवेदी युग की महत्वपूर्ण विशेषताएं एवं प्रवृत्तियां, Important features and trends of Dwivedi era

हिन्दी साहित्य (भाग-17)
द्विवेदी युग की महत्वपूर्ण विशेषताएं एवं प्रवृत्तियां
Hindi literature (part-17)
 Important features and trends of Dwivedi era


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द्विवेदी युग की प्रमुख विशेषताएं एवं प्रवृत्तियाँ इस प्रकार से है --

1- मातृभूमि का गुणगान --

द्विवेदी युगीन काव्य में भारतेंदु युगीन काव्य - प्रवृत्तियों का ही विकास हुआ । राष्ट्रीय भावना द्विवेदी युग की प्रमुख प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । इन कवियों ने मातृभूमि में ही परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करके राष्ट्रीय - भावना को भक्ति - भावन का गौरव प्रदान किया ।

गुप्तजी ने मातृभूमि में ही विश्व - नियंता परमात्मा के साकार रूप के दर्शन करते हुए लिखा ---
करते अभिषेक पयोद है , 
बलिहारी इस वेश की । 
हे मातृभूमि तू सत्य ही ,
सगुण मूर्ति सर्वेश की ॥ 

इसके साथ - साथ इस युग के प्रायः सभी कवियों ने देश - भक्ति पूर्ण कविताओं का प्रणयन किया । उन्होंने पराधीनता को सबसे बड़ा अभिशाप बताया तथा स्वतंत्रता - प्राप्ति के लिए क्रांति एवं आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दी ।

कविवर नाथूराम शर्मा शंकर के शब्दों में ---
देश भक्त वीरो , मरने से नेक नहीं डरना होगा । 
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा ।।

दूसरी ओर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त अपनी भारत भारती नामक रचना में भारत के प्राचीन वैभव का गुणगान करते हुए सामान्य जनमानस को राष्ट्र के प्रति सजग और जागरूक करते हुए पुकारते हैं कि --
हम कौन थे ? क्या हो गये ,
और क्या होंगे अभी ,
आओ मिलकर विचारे समस्याएँ सभी । " 

रामनरेश त्रिपाठी अपने खंडकाव्यों में परोक्ष रूप से परतंत्रता के बंधन काटने का संदेश देते हैं । इसी प्रकार अनेक कविताओं में पशु - बल की अवहेलना करते हुए निर्भयता पूर्वक स्वतंत्रता के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा दी गयी है । वस्तुतः द्विवेदी युगीन कवियों ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से अतीत के गौरव का गान करते हुए देश की वर्तमान दशा पर क्षोभ प्रकट किया है ।

भारत - भारतीकार भारतवर्ष की श्रेष्ठता की घोषणा करते हैं --
भू-लोक का गौरव , 
प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ ? 
उसका कि जो ऋषि भूमि है ,  
वह कौन ? भारत वर्ष है । 

2- राष्ट्रीयता तथा सामाजिकता --
देश की हीन दशा - धैर्य , गांभीर्य , शौर्य तथा कला कौशल के अभाव पर भी कवि ठाकुर शरण सिंह की कविता में क्षोभ प्रदर्शित हुआ है ---
वह धीरता कहाँ है गंभीरता कहाँ है ? 
वह वीरता हमारी है वह कहाँ बड़ाई ?

आलस , फूट , खुदगर्जी , मिथ्या कुलीनता आदि अभिशापों की ओर भी इस युग के कवि की दृष्टि गई । रायदेवी प्रसाद ने इनका उल्लेख इनके निराकरण की कामना से किया है -- भरतखण्ड का हाल जरा देखो है कैसा । 
खुदगर्जी का नशा खोलकर आँखे देखो । 
है खानदान का मद कहीं , 
कहीं नाम का ध्यान हैं ।

इस प्रकार द्विवेदी युगीन कवियों ने देश की आर्थिक विपन्नता सामाजिक कुरीतियों , रूढ़ प्रथाओं तथा धार्मिक आडंबरों का स्पष्ट शब्दों में प्रत्याख्यान किया है । तथा भारतभूमि के भूगोल , प्रकृति , इतिहास , धर्म , संस्कृति , भाषा आदि के प्रति आस्था की सुदृढ़ अभिव्यक्ति में राष्ट्रीय भावना को मूर्त किया है ।

सामाजिक सजगता इसी राष्ट्रीय चेतना का प्रमुख अंग है । कवियों ने मानव - प्रकृति को विकृति से हटाकर संस्कृति की दिशा में प्रेरित और उन्मुख करने के प्रयत्न किए । गुप्त जी के ' भारत - भारती ' काव्य में अतीत - गौरव का स्मरण कराते हुए वर्तमान दुर्दशा के संबंध में सचेत किया गया है तथा भविष्य के प्रति सतर्कता का बोध कराया गया है ।

गया प्रसाद शुक्ल ने जन - जागृति लाने वाले ऐसे गीतों की सृष्टि की , जो होमरूल आंदोलन के दिनों में गाये जाते थे --
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है । 
वह नर नही , नर पशु निरा है और मृतक समान है । 

3- सामाजिक दशा का वर्णन --
भारतेंदु युग की कविता में सामाजिक सुधारों का स्वर मुखरित था , किंतु उसमें खंडनात्मकता की कर्कशता अधिक थी । इसके अतिरिक्त इस काल के कवि की दृष्टि समाज के सभी अंगों पर भी नहीं गई , जबकि आलोच्य कालीन कवियों ने समाज में रहने वाले दीन - हीन कृषक तथा विधवा के दु : खों का भी बड़ा कारूणिक वर्णन किया । गुप्तजी की ' किसान ' , सियाराम शरण जी की | ' अनाथ ' तथा ' सनेही ' जी की ' कृषक कर्दन ' कृषक जीवन - संबंधी प्रभावी रचनाएँ है जिनमें तत्कालीन गरीब किसान , विधवा आदि का मार्मिक चित्रण हुआ है । शिक्षा विहीन नारियों की दुर्दशा की ओर भी विवेच्य युग के कवियों ने संकेत किये हैं । वस्तुतः मानव सुलभ सहानुभूति ही इस प्रकार की कविताओं की प्रेरक भावना है ।

इसी भावना से प्रेरित होकर हरिऔध ने उच्चत्तर जातियों द्वारा निम्न जातियों के प्रति किए गए अन्याय और दुर्व्यवहार का उल्लेख किया है -- 

आप आँखे खोलकर के देखिए ,
आज जितनी जातियाँ है सिर-धरी । 
पेट में उनके पड़ी दिखलायेंगी , 
जातियाँ कितनी खिसकती या मरी ॥

अतः द्विवेदीयुगीन काव्य में समाज के जन साधारण को काव्य विषय के रूप में पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ ।

4- मानव-मूल्यों की प्रतिष्ठा --
दिवेदीयगीन कविता में उदात्त मानव - मूल्यों और मानवतावाद की प्रतिष्ठा पर विशेष बल दिया गया । विवेकानंद , दयानंद आदि मनीषियों के साथ ही महात्मा गांधी के चिंतन का भी इस युग की मानवतावादी विचारधारा पर गहरा प्रभाव पड़ा । राम और कृष्ण सरीखे उदात्त चरित्र - चित्रण के माध्यम से मानव - मूल्यों की स्थापना करने का प्रयास किया गया । सत्य , अहिंसा , समता , स्वाधीनता आदि आदर्शों को क्रियान्वित करने की महत्ता रेखांकित की जाने लगी ।

पथिक ' काव्य में रामनरेश त्रिपाठी ने अहिंसा पर बल देते हुए मानवीय चरित्र की महिमा पर प्रकाश डाला -- 
रक्तपात करना पशुता है , 
कायरता है मन की । 

मानवता को सर्वोपरि धर्म बताते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा --
मनुष्यत्व सबसे ऊपर है पुण्य मंही मण्ड के बीच । 

इस प्रकार कविता में मानवता के उत्कर्ष में ही दिव्यता और आध्यात्मिकता की अनुभूति की गई ।

5- नारी-महिमा का रेखांकन -- 
आलोच्यकालीन कविता में नारी - महिमा को विशेष रूप से रेखांकित किया गया । राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्गत चलने वाले नारी आंदोलन ने नारी की सत्ता और महत्ता को उजागर करने में महत्ती भूमिका निभाई । सीता , राधा , यशोधरा , विष्णुप्रिया , द्रौपदी आदि नारी पात्रों के माध्यम से नारी महिमा को मूर्तिमान किया गया । ' एक नहीं दो दो मात्राएँ , नर से भारी नारी ' कहकर गुप्त जी ने नारी को पुरूष से भी महत्तर घोषित किया तथा दूसरी ओर नारी के अबला रूप का भी मार्मिक चित्रण किया -- 
अबला जीवन हाय । 
तुम्हारी यही कहानी । 
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥ 

6- श्रम और श्रमिक वर्ग की प्रतिष्ठा -- 
श्रम और श्रमिक वर्ग की प्रतिष्ठा भी द्विवेदी युग की उल्लेखनीय प्रवत्ति है । इस युग के कवियों का ध्यान दलित - शोषित , मजदूरों और किसानों की ओर विशेष आकृष्ट हुआ । ' साकेत ' की सीता वन की कोल - किरात और भील बालाओं को चरखा चलाकर सूत कातने की शिक्षा देती है ।

7- इतिवृत्तात्मकता --
द्विवेदी युगीन कविता में इतिवृत्तात्मकता की प्रवृत्ति की प्रधानता रही , जिसके फलस्वरूप उसमें लाक्षणिकता , चित्रात्मकता तथा वक्रता बहुत कम रह गई थी । द्विवेदी जी पर मराठी की वर्णन प्रधान इतिवृत्तात्मक शैली का प्रभाव अधिक रहा , जिसके कारण उस युग की कविता में अनुभूति की महानता कम रही । प्रेम , शृंगार , सौंदर्य तथा भावात्मकता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रधानतः रही । इतिवृत्तात्मकता की प्रवृत्ति के कारण इस युग की कविता में नैतिकता के स्थापना तथा आदर्शों के प्रति उन्मुखता दृष्टिगोचर होती है । अधिकांश विद्वानों का मानना है कि द्विवेदी युग में इतिवृत्तात्मकता की प्रधानता के कारण ही छायावार का आविर्भाव हुआ , जहाँ मानवीय अनुभूतियों तथा बुद्धि के समन्वय पर विशेष बल दिया गया ।

प्रसाद जी की पंक्तियाँ इसी ओर संकेत करती हैं --
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है ,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की । 
एक दूसरे से न मिल सके , 
यही विडम्बना है जीवन की ॥ 
- कामायनी 

8- प्रकृति चित्रण --
प्रकृति जहाँ एकांत बैठी , निज रूप संवारति ' के माध्यम से श्रीधर पाठक मैथिलीशरण गुप्त आदि ने प्रकृति के सुंदर तथा रम्य चित्र प्रस्तुत किए हैं । उपर्यक्त प्रवतियों के अतिरिक्त द्विवेदी युगीन काव्य में वीर - पूजा औ वीरता संकीर्तन , उत्सर्ग भावना , सांप्रदायिक सद्भाव आदि प्रवृत्तियाँ भी उजागर है । कहीं - कहीं ' हाय - व्यंग्य ' की प्रवृति भी दिखाई पड़ती है । बाबूलाल मक गप्त इस युग के बड़े सशक्त व्यंग्यकार थे ।

एक बार कर्जन ने भारतवासियों के झूठा कहा था उसी पर प्रहार करते हुए उन्होंने लिखा --
हमसे सच की सुनी कहानी , 
जिससे मरे झूठ की नानी । 
सच है सभ्य देश की चीज , 
तुमको उसकी कहाँ तमीज ? 

9- काव्य - रूप --
काव्य रूप तथा भाषा की दृष्टि स भी द्विवेदी युगीन कविता पर टिपा पासंगिक होगा । काव्य क्षेत्र में प्रचलित प्रबंध , मुक्तक , प्रगीत प्रभति सभ काव्यरूपों में रचना हुई । फिर भी काव्य रूप की दृष्टि से प्रबंधात की विशिष्ट प्रवृति है । इस प्रवृति को इतिवृत्तात्मकता कहकर अब कर अवमूलियत औ लांछित करना उचित नहीं है । यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय प्रबंध काव्य सीधे संस्कृत के सर्गबद्ध महाकाव्यों की परंपरा में ' प्रियप्रवास ' , ' साकेत ' आदि प्रबंध काव्य लिखे गये । तथा जयद्रथवध आदि खंडकाव्य भी लिखे गये ।

10- भाषा --
भाषा के विकास की दृष्टि से यह युग विशेष उल्लेखनी काव्य भाषा में खड़ी बोली का खरापन तो अवश्य है , किंतु साथ ही वह उस सूक्ष्म अर्थ - व्यंजना और उत्कर्ष की ओर भी अग्रसर होती दिखलाई पड़ती है , जिसका विकास आगे चलकर छायावादी काव्य - भाषा के रूप में हुआ । इस दृष्टि से गुप्त के ' झंकार ' शीर्षक गीत - काव्य की भाषा दर्शनीय है ।

11- छंद --
छंदों का वैविध्य भी इस युग की अन्यतम विशेषता है । कवियों ने परंपरागत हिंदी - छंदों के साथ ही संस्कृत के वर्ण - वृत्तों , लोक छंदों को भी ग्रहण किया है ।

निष्कर्ष ‌
इस प्रकार कहा जा सकता है कि द्विवेदी युगीन कविता नवजागरण , सुधारवाद , राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक अस्मिता की अनुभूतियों से अनुप्राणित है । भाव और भाषा की दृष्टि से यह भारतेंदु युग की प्रवृत्तियों को विकसित रूप में प्रस्तुत करती है । द्विवेदी युग के कवियों ने साहित्य , जाति और देश की सेवा की और कवि के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा बनाए रखी ।

अतीत का चित्रण करते हुए भी ये कवि वर्तमान को न भूले । सांस्कृतिक रक्षा के साथ - साथ सुधार का भी ध्यान रखा और जाति का अभ्युथान चाहते हुए भी देशहित का गान गाया । इनमें जातीयता थी किंतु सांप्रदायिकता नहीं थी । सच्चे कवि के समान ये युग से प्रभावित भी हुए और उस पर अपनी छाप भी लगा दी तथा काव्य को उन्नतिशील बनाया । इस प्रकार द्विवेदी युग का काव्य जहाँ एक ओर सांस्कृतिक संपर्क , संघर्ष और संस्कार की कथा कह रहा है , वहाँ इन कवियों की सहानुभूति सच्चाई और स्वतंत्र तथा उदार व्यक्तित्व का संकेत दे रही है । इसी में इन कवियों की सफलता और महत्ता है ।

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