Tuesday 5 May 2020

हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं संक्षिप्त परिचय (भाग-5) आदिकालीन साहित्य एवं साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषताएं, literature and literature

हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं संक्षिप्त परिचय (भाग-5)
आदिकालीन साहित्य एवं साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषताएं
History and Brief Introduction to Hindi Literature (Part-5)
Important features of ancient literature and literature

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आदिकालीन साहित्य

> सिद्ध साहित्य
> जैन साहित्य
> नाथ साहित्य
> रासो साहित्य
> लौकिक साहित्य
> गद्य साहित्य

1- साहित्य सिद्ध -
साहित्य - बौद्ध - धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जन - भाषा में जो साहित्य लिखा गया वह सिद्ध साहित्य के अन्तर्गत आता है । पंडित राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने सिद्ध - साहित्य की रचना की । इनमें कुछ प्रमुख सिद्ध कवि तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - सरहपा - दोहाकोश , शबरपा - चर्यापद , डोम्भिपा डोम्बि - गीतिका तथा योगचर्या आदि ।

2- जैन-साहित्य -
जैन कवियों ने जैन धर्म के प्रचार - प्रसार हेतु जो साहित्य लिखा वह जैन - साहित्य कहलाता है । इस साहित्य में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रधानता रही है । प्रमुख जैन कवि तथा उनकी रचनाओं का - नामोल्लेख इस प्रकार है देवसेन - श्रावकाचार , शालिभ्रदसूरि - भरतेश्वर - बाहुबली रास , आसगु - चन्दनबालारास , जिनधर्मसूरि - स्थूलिभद्ररास , विजयसेनसूरि - रेवंतगिरिरास तथा सुमति गणि - नेमिनाथरास आदि ।

3- नाथ-साहित्य -
कई विद्वानों का मानना है कि सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग - साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग - साधना आरंभ हुई । नाथ - साहित्य के प्रमुख रचनाकार तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - गोरखनाथ - सबदी , पद , प्राण संकली , नखै बोध , आतम - बोध , पंद्रह तिथि , सप्तवार , ग्यानचौंतीसा आदि । अन्य कवियों में चौरंगीनाथ , गोपीचंद , चुणकरनाथ , भरथरी तथा जलन्ध्रीपाव आदि प्रसिद्ध हैं ।

4- रासो-साहित्य -
इन काव्यों की विषयवस्तु का मूल संबंध राजाओं के चरित तथा प्रशंसा से है । फलतः इनका आकार रचनाकारों की मृत्यु के पश्चात भी बढ़ता रहा है । रासो - काव्यों को देखने से पता चलता है कि उनके रचयिता जिस राजा के चरित्र का वर्णन करते थे , उसके उतराधिकारी राजागण अपने आश्रित अन्य कवियों से उसमें अपने चरित्र भी सम्मिलित करा देते थे । यही कारण है कि इन ग्रंथों में मध्यकालीन राजाओं का भी वर्णन मिलता है तथा भाषा में भी उत्तरावर्ती भाषा - रूपों की झलक पाई जाती है ।

इसलिए कुछ विद्वान अधिकांश रासो - काव्यों को अप्रमाणिक रचनाएँ मानते हैं । रासो साहित्य की रचना करने वाले कुछ प्रमुख रचनाकार तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - दलपत विजय - खुमाण रासो , नरपति नाल्ह - बीसलदेव रासो , शागधर - हम्मीर रासो , जगनिक - परमाल रासो तथा चंदबरदायी कृत पृथ्वीराज रासो आदि ।

5- लौकिक-साहित्य -
लौकिक - साहित्य में तयुगीन लोक तथा संस्कृति की झलक स्पष्ट रूप से मिलती है । अनेक स्थानों पर मनोरंजन के साथ - साथ जीवन पर गहरे व्यंग्य एक साथ मिलते हैं । कुछ प्रमुख रचनाकारों तथा उनकी रचनाओं . का नामोल्लेख इस प्रकार है - कुशललाभ - ढोला मारू रा दूहा , भट्टेदार - जयचंद प्रकाश , मधुकर - जयमयंक जसचंद्रिका , कवि अज्ञात है - वसंत विलास तथा अमीर खुसरो कृत खुसरो की पहेलियाँ आदि ।

6- गद्य साहित्य -
इस काल में लिखी गई गद्य रचनाएँ गद्य के आरंभ की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । कुछ प्रमुख रचनाकारों तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - रोडा - राउलवेल , दामोदर शर्मा - उक्ति - व्यक्ति - प्रकरण तथा ज्योतिरीश्वर ठाकुर कृत वर्णरत्नाकर आदि ।

आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ / विशेषताएँ --

विद्वानों ने आदिकाल की समय सीमा विक्रमी संवत् 1050 - 1375 तक निर्धारित की है । स्पष्टत : लगभग 300 - 400 वर्षों की सदीर्घ अवधि में विाम प्रकार का विपुल साहित्य रचा गया । इसमें एक ओर जहाँ विभिन्न संप्रदाया । सम्बद्ध धर्म तथा वैराग्य का विवेचन हुआ , वहीं दसरी ओर इसमें श्रृंगार रस का अजस धारा वेगमयी वीररस की जीवंत धारा के साथ मिलकर प्रवाहित दृष्टिगत होती है ।

आदिकालीन साहित्य की प्रवत्तियों को निम्न बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है --

1- परपरा तथा नूतनता का समावेश --
आदिकालीन साहित्य में जहा एक ओर पूर्ववर्ती संस्कृत - साहित्य का प्रवाह काफी दूर तक रहा , वहीं दूसरा नूतनता के बीज रूप में हिंदी - साहित्य की धारा भी फूट निकली ।

2- विविधरूपी साहित्य रचना - 
आदिकाल में सिद्ध - साहित्य , जैन - साहित्य, नाथ - साहित्य , रासो - साहित्य , लौकिक - साहित्य तथा गद्य - साहित्य का सृजन हुआ । उपर्युक्त साहित्य में जहाँ एक ओर धार्मिक मनोवृत्तियों का विशद् चित्रण हुआ वहीं दूसरी ओर रासो साहित्य में शृंगार तथा वीररस की उत्कृष्टता सामने आई । इसके अतिरिक्त सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्षों की लौकिक साहित्य में अनेकमुखी उद्घाटन हुआ । मनोरंजन तथा नीति से संबद्ध क्षेत्र का साहित्यिकता से अछूते नहीं रहे । कहने का अभिप्राय यह है कि इस काल में साहित्य के अनेक रूपों का उद्घाटन हुआ , जिनसे परवर्ती साहित्यकारों का भी मार्गदर्शन हुआ ।

3- परवर्ती साहित्य तथा साहित्यकारों की आधारभूमि -
आदिकालीन साहित्य अपने वर्ण्य - विषय की विविधता तथा अभिव्यक्ति कौशल के कारण परवर्ती भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन साहित्य तथा साहित्यकारों की आधारभूमि सिद्ध हुआ । आलोच्यकाल में रचित धार्मिक चरित काव्यों व कथाओं ने जायसी और तुलसीदास की सृजन प्रक्रिया को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित किया । मध्यकालीन हिंदी साहित्य की मूल केंद्र नारी , अपनी विविध भूमिकाओं में आदिकाल के जैन , रासो तथा लोक साहित्य से ही प्रभावित कही जा सकती है | रीतिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों यथा - शृंगार की प्रधानता , आश्रयदाताओं का प्रशस्तिगान , नख - शिख वर्णन , अलंकरण प्रियता आदि पर उक्त काल के साहित्य का क्रमागत परंपरा - प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।

4- युद्धों का सजीव वर्णन -
आदिकाल में रचित रासो साहित्य में युद्धों के अनेक सजीव चित्र मिलते हैं । इसका कारण यह है कि वे कवि केवल कविता नहीं रचते थे वरन् आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी चलाते थे । राजाओं में दिन - प्रतिदिन सुंदरियों , राज्य की सीमाओं के विस्तार तथा शक्तिप्रदर्शन आदि के लिए भी युद्ध होते रहते थे । फलतः राज्याश्रित कवि द्वारा उन युद्धों का वर्णन आवश्यक हो जाता था ।

5- आश्रयदाताओं की प्रशस्ति - आदिकाल में विशेष रूप से रासो - साहित्य में आश्रयदाताओं की अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ मिलती हैं । राजाओं की युद्धवृत्ति को देखते हुए राजकवियों के द्वारा अपने आश्रयदाता राजा के शौर्य और वीरता का गुणगान किया जाता था । चूंकि इन राज्याश्रित चारण कवियों की आजीविका राजाओं की प्रशंसा से ही अर्जित होती थी , इसलिए उनकी प्रशंसा के झूठे - सच्चे - पुल बाँधने में ये कवि कोई कसर नहीं छोड़ते थे । अपने आश्रयदाता के सामने शत्रु को दीन - हीन , निकृष्ट तथा दुर्बल ठहराना , अपने आश्रयदाता राजा की शक्ति , दानवीरता तथा महानता को श्रेष्ठ कहना , उसके वंश का जय - जयकार करना इन कवियों के लिए अनिवार्य हो गया था ।

6- सामान्य जन की उपेक्षा -
आदिकालीन साहित्य में धार्मिक मनोवृत्तियों की प्रधानता , वीर तथा शृंगार रस का परिपाक ही सर्वाधिक हुआ । सामंतीय जीवन और उससे संबद्ध संस्कृति का अनेकविध चित्रण हुआ , किंतु सामान्य जन तथा उसके जीवन से संबद्ध अनेक पहलुओं का चित्रण वहाँ उपेक्षित रहा ।

7- प्रकृति -चित्रण -
इस काल के साहित्य में वस्तु वर्णन के अंतर्गत प्रकति का सजीव चित्रण अनेकत्र मिलता है । यहाँ प्रकृति आलंबन तथा उद्दीपन दोनों रूपों में सामने आई । इस युग के कवियों ने विभिन्न प्राकृतिक वर्णनों के साथ मानव जीवन की रागात्मकता का भी कलात्मक वर्णन किया है । प्रकृति चित्रण की यह विशिष्टता परवर्ती साहित्य में भी मुखरित हुई है ।

8- संदिग्ध तथा अर्द्धप्रामाणिक रचनाएँ -
आलोच्य काल में प्राप्त होने वाली प्रायः सभी वीरगाथाओं की प्रामाणिकता को संदिग्ध माना जाता है । खुमानरासों , बीसलदेवरासों , परमालरासों तथा पृथ्वीराज रासो आदि के संबंध में संदिग्ध रचनाएँ तथा अर्द्धप्रामाणिकता का विवाद आरंभ से ही रहा है । कुछ विद्वान इनमें ऐतिहासिकता का अभाव मानते हैं तो कुछ आश्रयदाता तथा उसकी वंश परंपरा को विवाद अथवा संदेह का केंद्र मानते हैं ।

9- काव्यरूप -
आदिकाल में प्रबंध तथा मुक्तक दोनों प्रकार के काव्य रचे गए । पृथ्वीराज रासो , खुमानरासो तथा विजयपाल रासो प्रबंधात्मक रचनाओं की कोटि में आते हैं तो बीसलदेवरासो मुक्तक गीतिकाव्य है । परमालरसो तथा ढोला मारू रा दूहा आदि लोकगीत शैली पर आधारित गेय काव्य हैं ।

10- भाषा / अभिव्यक्ति शैलियाँ - 
भाषा प्रयोग की दृष्टि से वैविध्य सर्वत्र देखा जा सकता है । इस युग में साहित्यिक राजस्थानी भाषा का प्रयोग डिंगल के नाम से काव्य में होता था और ब्रजमिश्रित भाषा का साहित्यिक रूप पिंगल कहलाता था । चारण / राज्याश्रित कवियों ने वीरगाथात्मक रासो काव्यों की रचना डिंगल में की है । जिसमें कठोर वर्ण , द्वित्व प्रधान वर्णों का प्रयोग अधिक था । श्रृंगार रस के वर्णन में पिंगल का सरस प्रयोग मिलता है , जिसमें भावानुकूल कोमल वर्णों का प्रयोग किया गया है । इस काल में संस्कृत तथा अपभ्रंश का काव्यधारा भी हिंदी के समानांतर चलती रही । इसलिए एक भाषा पर दूसरी भाषा का प्रभाव भी अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है ।

11- अलंकार तथा छंद प्रयोग - 
अलंकार जहाँ काव्य के शोभा प्रदायक हात हैं वहीं छंद काव्य को नियमों में बाँधने वाले शास्त्र के रूप में जाने जात हा आदिकालीन साहित्य में विषय के अनुरूप उपमा . रूपक . उत्प्रेक्षा , यमकता अतिश्योक्ति अलंकारों का प्रयोग मिलता है । छंदों का प्रयोग में भी विषय के अनुरू विविधता मिलती है । जैसे - दोहा , तोमर , गाहा , आर्या , रोला , कुंडलिया , उल्लाला तर पद्धरि आदि । यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि इस काल के साहित्य में अलंकारों तथा छंदो का प्रयोग नही किया गया।


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