हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं संक्षिप्त परिचय (भाग-5)
आदिकालीन साहित्य एवं साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषताएं
History and Brief Introduction to Hindi Literature (Part-5)
Important features of ancient literature and literature
इस ब्लॉग पर हिन्दी व्याकरण रस,और सन्धि प्रकरण, तथा हिन्दी अलंकारMotivational Quotes, Best Shayari, WhatsApp Status in Hindi के साथ-साथ और भी कई प्रकार के Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानी, सफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि gyansadhna.com शेयर कर रहा हूँ ।आदिकालीन साहित्य
> सिद्ध साहित्य> जैन साहित्य
> नाथ साहित्य
> रासो साहित्य
> लौकिक साहित्य
> गद्य साहित्य
1- साहित्य सिद्ध -
साहित्य - बौद्ध - धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जन - भाषा में जो साहित्य लिखा गया वह सिद्ध साहित्य के अन्तर्गत आता है । पंडित राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने सिद्ध - साहित्य की रचना की । इनमें कुछ प्रमुख सिद्ध कवि तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - सरहपा - दोहाकोश , शबरपा - चर्यापद , डोम्भिपा डोम्बि - गीतिका तथा योगचर्या आदि ।
2- जैन-साहित्य -
जैन कवियों ने जैन धर्म के प्रचार - प्रसार हेतु जो साहित्य लिखा वह जैन - साहित्य कहलाता है । इस साहित्य में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रधानता रही है । प्रमुख जैन कवि तथा उनकी रचनाओं का - नामोल्लेख इस प्रकार है देवसेन - श्रावकाचार , शालिभ्रदसूरि - भरतेश्वर - बाहुबली रास , आसगु - चन्दनबालारास , जिनधर्मसूरि - स्थूलिभद्ररास , विजयसेनसूरि - रेवंतगिरिरास तथा सुमति गणि - नेमिनाथरास आदि ।
3- नाथ-साहित्य -
कई विद्वानों का मानना है कि सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग - साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग - साधना आरंभ हुई । नाथ - साहित्य के प्रमुख रचनाकार तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - गोरखनाथ - सबदी , पद , प्राण संकली , नखै बोध , आतम - बोध , पंद्रह तिथि , सप्तवार , ग्यानचौंतीसा आदि । अन्य कवियों में चौरंगीनाथ , गोपीचंद , चुणकरनाथ , भरथरी तथा जलन्ध्रीपाव आदि प्रसिद्ध हैं ।
4- रासो-साहित्य -
इन काव्यों की विषयवस्तु का मूल संबंध राजाओं के चरित तथा प्रशंसा से है । फलतः इनका आकार रचनाकारों की मृत्यु के पश्चात भी बढ़ता रहा है । रासो - काव्यों को देखने से पता चलता है कि उनके रचयिता जिस राजा के चरित्र का वर्णन करते थे , उसके उतराधिकारी राजागण अपने आश्रित अन्य कवियों से उसमें अपने चरित्र भी सम्मिलित करा देते थे । यही कारण है कि इन ग्रंथों में मध्यकालीन राजाओं का भी वर्णन मिलता है तथा भाषा में भी उत्तरावर्ती भाषा - रूपों की झलक पाई जाती है ।
इसलिए कुछ विद्वान अधिकांश रासो - काव्यों को अप्रमाणिक रचनाएँ मानते हैं । रासो साहित्य की रचना करने वाले कुछ प्रमुख रचनाकार तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - दलपत विजय - खुमाण रासो , नरपति नाल्ह - बीसलदेव रासो , शागधर - हम्मीर रासो , जगनिक - परमाल रासो तथा चंदबरदायी कृत पृथ्वीराज रासो आदि ।
5- लौकिक-साहित्य -
लौकिक - साहित्य में तयुगीन लोक तथा संस्कृति की झलक स्पष्ट रूप से मिलती है । अनेक स्थानों पर मनोरंजन के साथ - साथ जीवन पर गहरे व्यंग्य एक साथ मिलते हैं । कुछ प्रमुख रचनाकारों तथा उनकी रचनाओं . का नामोल्लेख इस प्रकार है - कुशललाभ - ढोला मारू रा दूहा , भट्टेदार - जयचंद प्रकाश , मधुकर - जयमयंक जसचंद्रिका , कवि अज्ञात है - वसंत विलास तथा अमीर खुसरो कृत खुसरो की पहेलियाँ आदि ।
6- गद्य साहित्य -
इस काल में लिखी गई गद्य रचनाएँ गद्य के आरंभ की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । कुछ प्रमुख रचनाकारों तथा उनकी रचनाओं का नामोल्लेख इस प्रकार है - रोडा - राउलवेल , दामोदर शर्मा - उक्ति - व्यक्ति - प्रकरण तथा ज्योतिरीश्वर ठाकुर कृत वर्णरत्नाकर आदि ।
आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ / विशेषताएँ --
विद्वानों ने आदिकाल की समय सीमा विक्रमी संवत् 1050 - 1375 तक निर्धारित की है । स्पष्टत : लगभग 300 - 400 वर्षों की सदीर्घ अवधि में विाम प्रकार का विपुल साहित्य रचा गया । इसमें एक ओर जहाँ विभिन्न संप्रदाया । सम्बद्ध धर्म तथा वैराग्य का विवेचन हुआ , वहीं दसरी ओर इसमें श्रृंगार रस का अजस धारा वेगमयी वीररस की जीवंत धारा के साथ मिलकर प्रवाहित दृष्टिगत होती है ।आदिकालीन साहित्य की प्रवत्तियों को निम्न बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है --
1- परपरा तथा नूतनता का समावेश --
आदिकालीन साहित्य में जहा एक ओर पूर्ववर्ती संस्कृत - साहित्य का प्रवाह काफी दूर तक रहा , वहीं दूसरा नूतनता के बीज रूप में हिंदी - साहित्य की धारा भी फूट निकली ।
2- विविधरूपी साहित्य रचना -
आदिकाल में सिद्ध - साहित्य , जैन - साहित्य, नाथ - साहित्य , रासो - साहित्य , लौकिक - साहित्य तथा गद्य - साहित्य का सृजन हुआ । उपर्युक्त साहित्य में जहाँ एक ओर धार्मिक मनोवृत्तियों का विशद् चित्रण हुआ वहीं दूसरी ओर रासो साहित्य में शृंगार तथा वीररस की उत्कृष्टता सामने आई । इसके अतिरिक्त सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्षों की लौकिक साहित्य में अनेकमुखी उद्घाटन हुआ । मनोरंजन तथा नीति से संबद्ध क्षेत्र का साहित्यिकता से अछूते नहीं रहे । कहने का अभिप्राय यह है कि इस काल में साहित्य के अनेक रूपों का उद्घाटन हुआ , जिनसे परवर्ती साहित्यकारों का भी मार्गदर्शन हुआ ।
3- परवर्ती साहित्य तथा साहित्यकारों की आधारभूमि -
आदिकालीन साहित्य अपने वर्ण्य - विषय की विविधता तथा अभिव्यक्ति कौशल के कारण परवर्ती भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन साहित्य तथा साहित्यकारों की आधारभूमि सिद्ध हुआ । आलोच्यकाल में रचित धार्मिक चरित काव्यों व कथाओं ने जायसी और तुलसीदास की सृजन प्रक्रिया को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित किया । मध्यकालीन हिंदी साहित्य की मूल केंद्र नारी , अपनी विविध भूमिकाओं में आदिकाल के जैन , रासो तथा लोक साहित्य से ही प्रभावित कही जा सकती है | रीतिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों यथा - शृंगार की प्रधानता , आश्रयदाताओं का प्रशस्तिगान , नख - शिख वर्णन , अलंकरण प्रियता आदि पर उक्त काल के साहित्य का क्रमागत परंपरा - प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।
4- युद्धों का सजीव वर्णन -
आदिकाल में रचित रासो साहित्य में युद्धों के अनेक सजीव चित्र मिलते हैं । इसका कारण यह है कि वे कवि केवल कविता नहीं रचते थे वरन् आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी चलाते थे । राजाओं में दिन - प्रतिदिन सुंदरियों , राज्य की सीमाओं के विस्तार तथा शक्तिप्रदर्शन आदि के लिए भी युद्ध होते रहते थे । फलतः राज्याश्रित कवि द्वारा उन युद्धों का वर्णन आवश्यक हो जाता था ।
5- आश्रयदाताओं की प्रशस्ति - आदिकाल में विशेष रूप से रासो - साहित्य में आश्रयदाताओं की अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ मिलती हैं । राजाओं की युद्धवृत्ति को देखते हुए राजकवियों के द्वारा अपने आश्रयदाता राजा के शौर्य और वीरता का गुणगान किया जाता था । चूंकि इन राज्याश्रित चारण कवियों की आजीविका राजाओं की प्रशंसा से ही अर्जित होती थी , इसलिए उनकी प्रशंसा के झूठे - सच्चे - पुल बाँधने में ये कवि कोई कसर नहीं छोड़ते थे । अपने आश्रयदाता के सामने शत्रु को दीन - हीन , निकृष्ट तथा दुर्बल ठहराना , अपने आश्रयदाता राजा की शक्ति , दानवीरता तथा महानता को श्रेष्ठ कहना , उसके वंश का जय - जयकार करना इन कवियों के लिए अनिवार्य हो गया था ।
6- सामान्य जन की उपेक्षा -
आदिकालीन साहित्य में धार्मिक मनोवृत्तियों की प्रधानता , वीर तथा शृंगार रस का परिपाक ही सर्वाधिक हुआ । सामंतीय जीवन और उससे संबद्ध संस्कृति का अनेकविध चित्रण हुआ , किंतु सामान्य जन तथा उसके जीवन से संबद्ध अनेक पहलुओं का चित्रण वहाँ उपेक्षित रहा ।
7- प्रकृति -चित्रण -
इस काल के साहित्य में वस्तु वर्णन के अंतर्गत प्रकति का सजीव चित्रण अनेकत्र मिलता है । यहाँ प्रकृति आलंबन तथा उद्दीपन दोनों रूपों में सामने आई । इस युग के कवियों ने विभिन्न प्राकृतिक वर्णनों के साथ मानव जीवन की रागात्मकता का भी कलात्मक वर्णन किया है । प्रकृति चित्रण की यह विशिष्टता परवर्ती साहित्य में भी मुखरित हुई है ।
8- संदिग्ध तथा अर्द्धप्रामाणिक रचनाएँ -
आलोच्य काल में प्राप्त होने वाली प्रायः सभी वीरगाथाओं की प्रामाणिकता को संदिग्ध माना जाता है । खुमानरासों , बीसलदेवरासों , परमालरासों तथा पृथ्वीराज रासो आदि के संबंध में संदिग्ध रचनाएँ तथा अर्द्धप्रामाणिकता का विवाद आरंभ से ही रहा है । कुछ विद्वान इनमें ऐतिहासिकता का अभाव मानते हैं तो कुछ आश्रयदाता तथा उसकी वंश परंपरा को विवाद अथवा संदेह का केंद्र मानते हैं ।
9- काव्यरूप -
आदिकाल में प्रबंध तथा मुक्तक दोनों प्रकार के काव्य रचे गए । पृथ्वीराज रासो , खुमानरासो तथा विजयपाल रासो प्रबंधात्मक रचनाओं की कोटि में आते हैं तो बीसलदेवरासो मुक्तक गीतिकाव्य है । परमालरसो तथा ढोला मारू रा दूहा आदि लोकगीत शैली पर आधारित गेय काव्य हैं ।
10- भाषा / अभिव्यक्ति शैलियाँ -
भाषा प्रयोग की दृष्टि से वैविध्य सर्वत्र देखा जा सकता है । इस युग में साहित्यिक राजस्थानी भाषा का प्रयोग डिंगल के नाम से काव्य में होता था और ब्रजमिश्रित भाषा का साहित्यिक रूप पिंगल कहलाता था । चारण / राज्याश्रित कवियों ने वीरगाथात्मक रासो काव्यों की रचना डिंगल में की है । जिसमें कठोर वर्ण , द्वित्व प्रधान वर्णों का प्रयोग अधिक था । श्रृंगार रस के वर्णन में पिंगल का सरस प्रयोग मिलता है , जिसमें भावानुकूल कोमल वर्णों का प्रयोग किया गया है । इस काल में संस्कृत तथा अपभ्रंश का काव्यधारा भी हिंदी के समानांतर चलती रही । इसलिए एक भाषा पर दूसरी भाषा का प्रभाव भी अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है ।
11- अलंकार तथा छंद प्रयोग -
अलंकार जहाँ काव्य के शोभा प्रदायक हात हैं वहीं छंद काव्य को नियमों में बाँधने वाले शास्त्र के रूप में जाने जात हा आदिकालीन साहित्य में विषय के अनुरूप उपमा . रूपक . उत्प्रेक्षा , यमकता अतिश्योक्ति अलंकारों का प्रयोग मिलता है । छंदों का प्रयोग में भी विषय के अनुरू विविधता मिलती है । जैसे - दोहा , तोमर , गाहा , आर्या , रोला , कुंडलिया , उल्लाला तर पद्धरि आदि । यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि इस काल के साहित्य में अलंकारों तथा छंदो का प्रयोग नही किया गया।
अन्य सम्बन्धित लेख साहित्य--
- हिन्दी साहित्य भाग-1 हिन्दी का विकास
- हिन्दी साहित्य भाग-2 आदिकाल- नामकरण विभाजन
- हिन्दी साहित्य भाग -3 आदिकाल काल विभाजन
- हिन्दी साहित्य भांग-4आदिकाल नामकरण की आवश्यकता
- हिन्दी साहित्य के अति महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
- हिन्दी साहित्य का काल विभाजन एवं रचनाएँ
- हिन्दी व्याकरण के महत्वपूर्ण प्रश्न
- सामान्य हिन्दी के रिक्त स्थान वाले महत्वपूर्ण प्रश्न
- सामान्य हिन्दी संज्ञा,सर्वनाम, विशेषण के महत्वपूर्ण प्रश्न
- सामान्य हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ
- हिन्दी साहित्य के 101 अति महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
0 comments: