Tuesday 5 May 2020

हिन्दी साहित्य का इतिहास व संक्षिप्त परिचय (भाग-2) आदिकाल- काल विभाजन एवं नामकरण का विस्तृत वर्णन

हिन्दी साहित्य का इतिहास व संक्षिप्त परिचय (भाग-2)
आदिकाल- काल विभाजन एवं नामकरण का विस्तृत वर्णन 
History and brief introduction of Hindi literature (Part-2)
 Detailed description of time-division and naming
हिन्दी साहित्य 

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काल विभाजन तथा नामकरण की आवश्यकता 

काल - विभाजन तथा नामकरण दोनों ही ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दु हैं जिनके माध्यम से साहित्य की सुदीर्घ परम्परा को समुचित तथा सुव्यवस्थित ढंग से समझा जा सकता है । इसके साथ - साथ साहित्य की विकास - यात्रा में आए • विभिन्न उतार - चढ़ावों को सम्यक् रूप से जानने के लिए भी काल - विभाजन तथा नामकरण अत्यंत आवश्यक है । 


दूसरे शब्दों में भिन्न - भिन्न कालों की भिन्न - भिन्न परिस्थितियों के व्यापक संदर्भो में प्रणीत साहित्य की अन्तर्निहित चेतना के क्रमिक विकास , उसकी प्रवृत्तियों और परम्पराओं के विकास तथा ह्रास एवं दिशा परिवर्तन आदि के विषय में जानने के लिए कालविभाजन तथा नामकरण की आवश्यकता पड़ती है ।

डॉ . गणपितचन्द्र गुप्त के शब्दों में - " वस्तु के समग्र रूप का दर्शन करने के लिए भी उसके अंगों का ही निरीक्षण करना पड़ता है हमारी दृष्टि शरीर के विभिन्न अवयवों का अवलोकन करती हुई सम्पूर्ण व्यक्तित्व का दर्शन करती है । अवयवों को पृथक मानकर उनका निरीक्षण करना खण्ड - दर्शन है , किंतु उनको व्यक्तित्व के अंग मानकर देखना समग्र दर्शन है ।

" गुप्तजी के काल विभाजन के साथ - साथ नामकरण की आवश्यकता तथा सार्थकता पर भी प्रकाश डाला है । नामकरण के पीछे भी कुछ न कुछ तर्क अवश्य रहता है अथवा रहना चाहिए । नाम की सार्थकता इसमें है कि वह पदार्थ के गुण अथवा धर्म का मुख्यतया द्योतन कर सके । इस तर्क से किसी कालखण्ड का नाम ऐसा होना चाहिए जो उसकी मूल साहित्य चेतना को प्रतिबिम्बित कर सके । काल - विभाजन तथा नामकरण की आवश्यकता को विविध आयामों से जोड़ते हुए डॉ . पूरनचन्द टण्डन ने लिखा है - ' वस्तुतः काल विभाजन और उसके नामकरण से साहित्य के विकास की दिशा , विकास को प्रभावित करने वाले तत्वों , विभिन्न परिवर्तनों और मोड़ों का पता चलता है । इसके माध्यम से हम साहित्य विशेष की बदली प्रवृत्तियों को समझ पाते हैं और उनका मूल्यांकन कर पाते हैं । '

काल - विभाजन तथा नामकरण के आधार --

अधिकांश विद्वानों ने काल - विभाजन तथा नामकरण के निम्नलिखित आधार माने हैं---
1- ऐतिहासिकता के आधार पर - आदिकाल , मध्यकाल तथा आधुनिक काल आदि । 

2- साहित्यकार तथा उसके प्रभाव विस्तार के आधार पर - भारतेन्दु युग , द्विवेदी युग , प्रेमचन्द पूर्व युग , प्रेमचन्द यग तथा प्रेमचन्दोत्तर युग आदि ।

3- साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर - रीतिकाल , छायावाद , प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद आदि । 

4- शासक तथा उसके शासन काल के आधार पर - मराठा - काल , विक्टोरिया युग , एलिजाबेथ - युग आदि । 

5- सामाजिक , सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के आधार पर - भक्तिकाल , पुनर्जागरण काल , सुधार काल , स्वतन्त्रता आन्दोलन काल तथा स्वातन्त्र्योत्तर काल आदि । 

आदिकाल --
हिंदी साहित्य के इतिहास में विक्रमी संवत् 1050 से 1375 तक की कालावधि को अधिकांश विद्वानों ने ' आदिकाल ' अथवा ' वीरगाथाकाल ' के नाम से स्वीकार किया है । प्रस्तुत नामकरण से जहाँ इस कालावधि के आसपास की विभिन्न प्रकार की लगभग सभी रचनाएँ इसमें समाविष्ट हो जाती हैं , वहीं ' वीरगाथाकाल ' से तयुग में प्रचलित ' वीरता ' की भावना की प्रमुखता भी स्पष्टतः लक्षित हो जाती है ।

हिंदी के प्रारम्भ का प्रश्न विवादास्पद है । फलतः हिंदी का प्रथम कवि किसे माना जाए , यह प्रश्न विद्वानों में मतभेद का विषय रहा है । ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने सातवीं शताब्दी में उत्पन्न ' पुण्य ' या ' पुण्ड ' नामक कवि को हिंदी का प्रथम कवि माना है , किंतु अब तक उनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है । राहुल सांकृत्यायन जी ने सातवीं शताब्दी के ' सरहपाद ' नामक कवि को प्रथम हिंदी कवि मानने की घोषणा की है तथा डॉ . गणपतिचन्द्र गुप्त शालिभ्रद सूरि नामक कवि को हिंदी का प्रथम कवि मानते हैं ।

आदिकाल की सुदीर्घ परम्परा में विविध प्रकार का साहित्य रचा गया । ' हिंदी साहित्य का इतिहास ' नामक ग्रंथ में सम्पादक डॉ . नगेन्द्र इसके दो रूप मानते हैं - ' प्रथम वर्ग में वे रचनाएँ आती हैं , जिनकी भाषा तो हिंदी है परन्तु वह अपभ्रंश के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त नहीं है और द्वितीय प्रकार की रचनाएँ वे हैं , जिनको अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएँ कहा जा सकता है ।

अपभ्रंश - प्रभावित हिंदी - रचनाएँ इस प्रकार हैं --
1 - सिद्ध - साहित्य ,
2- श्रावकाचार , 
3- नाथ - साहित्य , 
4- राउलवेल ( गद्य - पद्य ) , 
5- उक्ति व्यक्तिप्रकरण ( गद्य ) , 
6- भरतेश्वर - बाहुबलीरास , 
7- हम्मीर रासो , 
8- वर्णरत्नाकर ( गद्य ) । 

अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त रचनाएँ - 
1- खुमाण रासो , 
2- ढोला - माल । दूहा , 
3- बीसलदेव रासो , 
4- पृथ्वीराज रासो , 
5- परमाल रासो , 
6- जयचन्द्र - प्रकाश , 
7- जयमयंक - जसचन्द्रिका , 
8- चन्दनबालारास , 
9- स्थूलिभद्ररास , 
10- रेवन्तगिरिरास , 
11- नेमिनाथरास , 
12- वसन्त - विलास , 
13- खुसरो की पहेलियाँ ।

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