Monday 11 May 2020

हिन्दी साहित्य (भाग-22) हिन्दी गद्य साहित्य के विकास का काल विभाजन एवं साहित्यिक विशेषताएं ,development of Hindi prose literature

हिन्दी साहित्य (भाग-22)
हिन्दी गद्य साहित्य के विकास का काल विभाजन एवं साहित्यिक विशेषताएं 
Hindi Literature (Part-22)
 Periods and literary characteristics of the development of Hindi prose literature

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(1) गद्य का आरंभिक काल - 

सन् 945 से 1345 तक साहित्यिक प्रगतिशाल का केंद्र राजस्थान था , उस समय राजस्थानी भाषा के दोनों रूप डिगल पिंगल अपभ्रंशों के प्रभाव से मुक्त नहीं थे । राजस्थानी लेखकों ने , विशेष चारण भाटों ने पद्य के साथ - साथ धर्म नीति . इतिहास . छंद - शास्त्र ,और दृष्टि - विज्ञान संबंधी विषयों पर गद्य और पद्य दोनों में रचनायें । भाषा से नैतिक , पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों पर कुछ रचनाएं उपल हैं । कुछ लोकप्रिय कहानियाँ भी राजस्थानी भाषा में कुछ ग्रंथ लिखे जो । भी उपलब्ध होते हैं ।

(2) गद्य का मध्यकाल - 

सन् 1345 के उपरांत ब्रजभाषा के साहित्य प्रतिष्ठित हो जाने पर उसमें अनेक गद्य रचनाएँ निर्मित हई । भाषा - शैली और  विषयवस्तु की दृष्टि से इन रचनाओं का कोई विशेष साहित्यिक महत्त्व नहीं है । लगभग 500 वर्षों तक ब्रजभाषा उत्तरी भारत के साहित्य की भाषा बनी रही , इसमें असंख्य पद्य रचनाएँ हुई किंतु इसमें पद्य में रचित पुस्तकों की संख्या एक - दो दर्जन से अधिक नहीं है ।

सन् 1350 के लगभग किसी राजस्थानी लेखक ने हठयोग और ब्रह्म - ज्ञान से संबंधित तीन गोरखपंथी पुस्तकें लिखीं - गोरख - गणेश गोष्ठी , महादेव - गोरख संवाद और गोरखनाथ जी की सत्रह कला । सोलहवीं शती के उत्तरार्ध में बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ ने ' शृंगार रस मंडन ' लिखा । सत्रहवीं शती के पूर्वार्ध में गोस्वामी गोकलनाथ या उनके किसी शिष्य ने ' दो सो बावन वैष्णवों की वार्ता ' तथा ' चौरासी वैष्णवों की वार्ता ' नामक पुस्तकें लिखीं , जिनका ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक मूल्य अक्षुण्ण है । इन ग्रंथों की भाषा अपेक्षाकृत कुछ व्यवस्थित और परिष्कृत है । इसी समय नाभादास ने अष्टयाम नामक एक ग्रंथ लिखा जिसमें प्रभु राम की दिनचर्या का वर्णन है । इसी समय की एक पुस्तक ' ज्ञान - मंजरी ' है जिसके लेखक का पूरा ज्ञान नहीं है । इसी के समकालीन सेवक कवि की ' वाग्विलास ' नामक पुस्तक में जो कि नायिका - भेद से संबद्ध है , यत्र - तत्र गद्य का प्रयोग किया गया है । 

अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास के तीन गद्य ग्रंथों - हितोपदेश , नासिकेत - पुराण - भाषा और विज्ञानार्थ प्रवेशिका का पता चला है , किंतु वे अभी तक प्रकाशित नहीं हुए । राधाबल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हितहरिवंश की पत्री भी तत्कालीन ब्रजभाषा गद्य का नमूना है । सन् 1626 के आस - पास ओरछा - नरेश जसवंत सिंह के दरबारी बैकुण्ठमणि ने ' अगहन माहात्म्य ' और ' बैशाख माहात्म्य ' नामक की छोटी - छोटी पस्तकें लिखी । 1623 में विष्णुपुरी ने भक्ति रत्नावली का गद्यानुवाद किया । 18वीं शती के आरंभ में किसी अज्ञात लेखक ने नासिकेतोपाख्यान लिखा और सूरित मिश्र ने बैताल - पच्चीसी लिखी । इन दोनों ग्रंथों को आगे चलकर खड़ी बोली गद्य में रूपांतरित किया गया ।

केशव की कविप्रिया , रसिकक्रिया और रामचंद्रिका , बिहारी सतसई तथा शृंगार शतक आदि ग्रंथों पर अनेक टीकाएँ लिखी गई , पर उनका गद्य व्यावहारिक नहीं था । टीकाकार मूल पाठ को स्पष्ट नहीं कर पाये हैं बल्कि उसे और दुरूह और अबोध बना दिया है । चौरासी वैष्णवों की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता में ब्रजभाषा गद्य का जो रूप दिखाई दिया था , यदि उसका उत्तरोत्तर विकास होता तो निश्चय था कि ब्रजभाषा गद्य में एक आदर्श शैली का जन्म हो जाता , किंतु ऐसा नहीं हुआ और कदाचित् इसीलिए खड़ी बोली गद्य का सूत्रपात हुआ ।


(3) आधुनिक काल में गद्य का विकास - 

खडी बोली दिल्ली और मेरठ के  आसपास के जन - साधारण की भाषा है । दिल्ली पर मुसलमानों के भी स्थापित हो जाने पर फारसी भाषा राजकार्य में व्यवहत होती रही । मी शासन - काल में हिंदुओं की एक बड़ी संख्या मुसलमानी राजकार्य में करती थी । इस संपर्क का शुभ परिणाम यह निकला कि फारसी के राज होने पर दोनों जातियों के पारस्परिक विचार - विनिमय की भाषा खड़ी बोली रही । 14वीं शती के गुजरात और दक्षिण भारत में मुस्लिम शासन स्थापित हा तत्पश्चा बंगाल और बिहार में भी मुस्लिम सल्तनतें कायम हुई । इस प्रकार उनी भारत के मुस्लिम शासकों के साथ यहाँ कर्मचारी वर्ग और व्यापारी वर्ग भी उन नये प्रदेशों में पहुँचे । इसी प्रकार खड़ी बोली के बोलने वालों के भारत - भू के विस्तृत भाग पर फैल जाने पर खड़ी बोली का प्रचार हुआ और वह धीरे - धीरे अंतर्षांतीय व्यवहार की भाषा बन गई ।

 गद्य - क्षेत्र में ब्रजभाषा को अपदस्थ कर खड़ी बोली के उस क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने का एक अन्य ऐतिहासिक कारण भी है । अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ शासक वर्ग को इस देश की किसी ऐसी भाषा के सीखने की आवश्यकता महसूस हुई जिसे देश के बहुत से निवासी बोले हों । सौभाग्यवश हिंदी खड़ी बोली देश की एक ऐसी भाषा थी जो कि शासक वर्ग एवं ईसाई धर्म प्रचारकों की आवश्यकता पूर्ति के लिए समर्थ थी । ' खड़ी बोली किसी आंतरिक श्रेष्ठता और सहज गुण - सम्पन्नता के कारण आधुनिक युग में ब्रजभाषा को पीछे छोड़कर , गद्य और पद्य की भाषा नहीं बनी और इन इस कारण ही कि जब हिंदी में गद्य साहित्य का विकास हुआ उस समय ब्रजभाषा में गद्य साहित्य की परंपरा नगण्य थी । यह नगण्यता तो खडी बोली में थी बल्कि ब्रजभाषा में गद्य से कुछ अधिक ही ।

अतः यही आगे चलकर खड़ी बोली हिदा गद्य साहित्य के विकास का माध्यम बनी तो इसके कारण ऐतिहासिक थ जिन संयोग से ऐसा होना ही संभव था । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि युगीन परिस्थितियों के कारण साहित्य के अनुभूति तथा अभिव्यक्ति पक्ष सर्वाधिक प्रभावित होते हैं ।

अधिकांश विद्वानों ने खड़ी बोली गद्य की सर्वप्रथम उल्लेखनीय रच अकबर के दरबारी कवि गंग की चंद - छंद बरनन की महिमा मानी है । ३ ब्रज मिश्रित खड़ी बोली का व्यवहार किया गया है । इस रचना का समा 1570 है । रामप्रसाद निरंजनी ने ' भाषा योग वाशिष्ठ ' नाम की एक रचना । जिसकी भाषा काफी परिमार्जित है ।

(4) आधुनिक गद्य की विकास परंपरा - 

खडी बोली गद्य के विकास परंपरा में मुंशी सदासुखलाल नियाज , इंशा अल्ला खाँ , लल्ललाल और मिश्र का नाम आता है । सन् 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुयी ।

फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदी - उर्दू - अध्यापक जान गिल क्राइस्ट ने हिंदी - उर्दू में गद्य पुस्तकों को तैयार करने की व्यवस्था की । लल्लूलाल और सदल मिश्र दोनों फोर्ट विलियम कॉलेज में काम करते थे । इन दोनों ने अंग्रेजों के आदेश से हिंदी गद्य रचनाएँ प्रस्तुत की । सदासुखलाल नियाज और इंशा अल्ला खाँ ने स्वतत्रं रूप से खड़ी बोली के कतिपय गद्य - ग्रंथों का निर्माण किया ।

(5) ईसाई सहयोग - 

अब तक हिंदी - गद्य का जो प्रचार और उन्नति हुई उसका सर्वाधिक लाभ इन ईसाई धर्म - प्रचारकों ने उठाया । कुछ लोगों ने अंग्रेजी शासन तथा ईसाइयों को आधुनिक खड़ी बोली गद्य का जनक माना है जो कि नितांत भ्रामक है । इनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था , हिंदी गद्य की उन्नति करना नहीं था । वैसे तो 15वीं शताब्दी से इन लोगों का प्रवेश भारत में हो गया था , किंतु 18वीं शताब्दी तक ये अपना धर्म - प्रचार न कर सके , क्योंकि हमारा आदर्श इनसे सर्वथा भिन्न था और साथ - साथ कंपनी की नीति भी धर्म में अपने हस्तक्षेप करने की नहीं थी ।

1813 में विलफोर्स एक्ट के पास होने से इन्हें अपने धर्म - प्रचार की स्वतंत्रता मिल गई । तब से ईसाइयों ने भारत के बड़े - बड़े नगरों में अपने - अपने अड्डे जमाये । विलियम केरे ने , जो 1793 में हिंदुस्तान आये , बंगला में बाईबिल का अनुवाद किया । इससे पहले बाईबिल का हिंदी में अनुवाद हो ही चुका था । केरे ने 1809 में नये धर्म के नियम के नाम से इंजील का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित करवाया । इसके बाद ईसाइयों की पुस्तकें और देश की अन्य भाषाओं की तरह हिंदी में प्रकाशित होती रही । अंग्रेजी पादरियों ने भी अपने छोटे - छोटे मिशन - स्कूल खोलने शुरू कर दिये । शिक्षा - संबंधी पुस्तकों की माँग को पूरा करने के लिए इन्होंने श्रीरामपुर तथा आगरा आदि स्थानों पर स्कूल बुक सोसाइटीज कायम की ।

आगरा , इलाहाबाद , सिकंदराबाद , बनारस , फर्रुखाबाद आदि स्थानों पर छापेखाने खोलें । ईसाई लोग बिना दामों के पुस्तकें तथा पैंफलेट जनता में वितरित किया करते थे । अपनी गद्य पुस्तकों में ये लोग हिंदू धर्म को हीन , पुराणों और कुरान को तुच्छ बतलाकर अपने धर्म को श्रेष्ठ बतलाते थे । इन लोगों का निम्न वर्ग पर बहुत प्रभाव पड़ा और बहुत से लोगों ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया ।

ध्यात्व्य है कि थोड़े ही समय में इन्होंने हिंदी भाषा को सीख लिया और उसमें लिख - पढ़ भी सके , पर इनके द्वारा हिंदी - गद्य के विकास की उन्नति नहीं हुई । इनमें हिंदी - गद्य की एक झाँकी मात्र मिलती है , चित्र नहीं । उन्हें अपने धर्म प्रचार से मतलब था , हिंदी भाषा से कोई लेना - देना नहीं था , अत : साहित्यिक सौंदर्य और भाषा की छटा ईसाई गद्य में नहीं है । जो कुछ है वह भाषा में कृत्रिमता , शिथिल और असंबद्ध पद्य - व्यर्थ के शब्द तथा मुहावरों का खटकने वाला प्रयोग । उत्कृष्ट गद्य लिखने की सिद्धहस्तता इन्हें प्राप्त नहीं थी । इनमें भाग की प्राजलता और साहित्यिक सौष्ठव नहीं था । राजा शिवप्रसाद सितारे हिंदी और राजा लक्ष्मण सिंह का हिंदी गद्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान है । हिंदी गद्य के प्रचार - प्रसार हेतु इन्होंने हिंदी में लेखन तथा अनुवाद का कार्य किया ।


(6) आर्य समाज का योगदान ---

स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1867 ई . में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की । स्थापना का उद्देश्य हिंदू धर्म व संस्कृति के वैदिक या आर्य कालीन रूप की पुनः प्रतिष्ठा कर ईसाई मिशनरियों तथा अन्य विदेशियों द्वारा किये जाने वाले हिंदू धर्म परिवर्तन के वात्याचक्र को समूल नष्ट करना था । स्वामीजी के दो कार्य तो अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हैं - समूचे देश में राष्ट्रीय भावना का संचार तथा राष्ट्र भाषा हिंदी का प्रचार । वास्तविक अर्थों में स्वामीजी ने हिंदी भाषा को अपने प्रचार - कार्य का माध्यम बनाकर उसे राष्ट्रभाषा के सम्मानार्थ पद पर बहुत पहले से आसीन कर दिया था । आर्य समाज ने हिंदू समाज में तर्क - वितर्क शक्ति को जागृत कर उसमें बौद्धि चेतना को उद्दीप्त किया । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने हिंदी - गद्य को प्रचार का माध्यम बनाया क्योंकि गद्य की तर्क वितर्क एवं बौद्धिक चेतना को वहन करने का एक अचूक सक्षम और उपयुक्तम साधन है । परिणामतः उन्होंने आर्य समाज के लिए कतिपय नियमों का विधान किया और सत्यार्थ प्रकाश जैसे तर्क प्रधान प्रौढ़ ग्रंथ का प्रणयन किया । आर्य समाज ने शिक्षण संस्थाओं , विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं , पाठ्य पुस्तको , उपदेशों , प्रवचनों , शास्त्रार्थों , जीवन चरित्रों , निबंधों , अनुवाद ग्रंथों आदि के माध्यम से शिक्षा जगत एवं हिंदी गद्य के विकास तथा प्रचार व प्रसार में अभूतपूर्व योगदान किया है ।

भारतेंदु एवं उनकी लेखक मंडली ने हिंदी गद्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । इस काल में गद्य के विविध अंगों - नाटक , उपन्यास एवं निबंध का विकास हुआ और आलोचना का भी श्रीगणेश हो गया , किंतु इस अंग का यथेष्ट विकास आगे चलकर हुआ । नि : संदेह इस काल में गद्य के विविध " का विकास हुआ और ' सब मिलि बोलहु एक जबान , हिंदी - हिंदू - हिंदुस्ताना ' घोषणा करने वाले कवियों ने हिंदी का प्रचार भी खूब किया । भारतेंदु के पश्चात् आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी तथा उनके समकालान विद्वानों ने हिंदी गद्य के विकास में विशिष्ट योगदान दिया । भाषा का व्याकरण - संबंधी शिथिलता और दुर्बलता का परिहार करके इन्होंने भाषा का परिष्कार तथा संस्कार किया ।

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