Monday 13 July 2020

जानिए क्या है मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य? किन कर्मों से बनता है मनुष्य श्रेष्ठ? Know what is the biggest purpose of human life? What deeds make man superior

जानिए क्या है मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य?
किन कर्मों से बनता है मनुष्य श्रेष्ठ?
Know what is the biggest purpose of human life?
What deeds make man superior

सुविचार,अनमोलवचन आदि के रूप में लिखी हैं। Hindi Quotes ,संस्कृत सुभाषितानीसफलता के सूत्र, गायत्री मंत्र का अर्थ आदि शेयर कर रहा हूँ । जो आपको जीवन जीने, समझने और Life में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है,आध्यात्म ज्ञान से सम्बंधित गरूडपुराण के श्लोक,हनुमान चालीसा का अर्थ ,ॐध्वनि, आदि Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।gyansadhna.com

जन्म - मरण के चक्कर से छूट कर अर्थात् मोक्ष पाकर भगवान् के चरणों में पहुँचना है । इस मोक्ष प्राप्ति में हमारे कर्म बाधक होते हैं , क्योंकि उनका फल पाने के लिए हमें संसार में जन्म लेना पड़ता है । कर्म वह बेड़ी है जो हमें संसार से बाँध कर रखती है , प्रभु के पास नहीं जाने देती । अशुभ कर्म अगर लोहे की बेड़ी है तो शुभ कर्म सोने की बेड़ी है , क्योंकि उसका अच्छा फल पाने के लिए हमें फिर जन्म लेना पड़ता है । बेड़ी तो बेड़ी है , चाहे लोहे की हो या सोने की । इसलिए , शुभ कर्म भी बन्धनकारक है ।

तब तो कोई सोच सकता है कि हम कर्म ही न करे । जब कर्म ही नहीं करेंगे । तब फल भोगने का प्रश्न ही नहीं ।

लेकिन भगवान् कृष्ण कहते हैं --- 
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।  
अर्थात् - बिना कर्म किये क्षण भर भी रहना असम्भव है । मनुष्य के मन की रचना ही ऐसी है कि वह बिना कर्म की बात सोचे , बिना कर्म किए रह ही नहीं सकता । अतः कर्म का पूर्ण त्याग सम्भव नहीं । यह तो बड़ी समस्या है । कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा , जन्म बार - बार लेना ही पड़ेगा । कर्म करने से बच नहीं सकते । फिर क्या हो ? इसका सुन्दर उत्तर गीता में भगवान कृष्ण देते हैं ।
 वे उपाय बताते हैं जिससे कर्म करने पर भी उसका फल भोगने के लिए बार - बार जन्म धारण नहीं करना पड़ेगा । ' 
सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज ' ।  
अर्थात् - अपने सब कर्मों , कर्तव्यों को मुझे अर्पण कर दो , मेरी शरण में आओ और अपने मन में यही सोचो कि तुम कर्ता नहीं हो , कर्ता तो मैं ( भगवान् ) हूँ तुम तो निमित्त मात्र हो । अपने मन से कर्त्तापन का भाव त्याग दो ।

कर्त्तापन का त्याग करने और सब कर्म भगवान् को अर्पण करने का परिणाम यह होगा कि मन में अशुभ बात आयेगी ही नहीं और , जब तुम कर्ता ही नहीं हो , तब कर्म का फल तुम्हें क्यों भोगना पड़ेगा ?

भगवान कृष्ण फिर कहते हैं --- 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । 
अर्थात् - तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने पर है , कर्मफल पर नहीं । इसका आशय यही है कि कर्म करते समय फल से लगाव नहीं होना चाहिए । यही सोचना चाहिए कि फल देना भगवान् का काम है । मेरा काम तो यही है कि ईश्वर को अर्पण करके काम करूँ । इच्छानुकूल फल न मिलने की दशा में मन दुःखी भी नहीं होगा ।

इसी बात को भगवान कृष्ण और स्पष्ट करते हैं ---

त्यक्त्वा कर्मफलासंग , नित्यतृप्तो निराश्रयः । 
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि , नैव किंचित् करोति सः ।। 
अर्थात्-
कर्म के फल में आसक्ति त्याग कर नित्य संतुष्ट और सांसारिक आश्रय से रहित होकर , भगवान् को अर्पित करके जो मनुष्य कर्म करता हैं वह करता हुआ भी नहीं करता है । वह कर्ता है ही नहीं , तो उसको फल भी नहीं भोगना पड़ेगा । ऐसे ही कर्म को भगवान् निष्काम ( फल की कामना रहित ) कर्म कहते हैं । मनुष्य को निष्काम कर्म करना चाहिए । फिर वह बन्धकारक नहीं होगा ।

कर्म करते समय एक बात का और ध्यान रखना चाहिए --

कर्मणैव हि संसिद्धिं आस्थिता जनकादयः । 
लोक संग्रहमेवापि संपश्यन कर्तुमर्हसि ।। 
अर्थात - भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि आसक्ति रहित कर्म करके ही महाराज जनक आदि ने इतनी ऊँची स्थिति पाई । तेरे लिए उचित है कि लोकसंग्रह ( संसार और समाज की सुव्यवस्था ) को ध्यान में रखकर कर्म करे ।

महाराज जनक राजा थे , परन्तु निष्काम कर्म करते थे । इसलिए राजा होते हुए भी वे एक महान योगी और महात्मा हुए । उन्हें अपने राज्य , सम्पत्ति तथा पद से कोई लगाव नहीं था । राजा जनक का उदाहरण देकर भगवान् कृष्ण यह समझा रहे हैं कि ईश्वर को पाने के लिए घरबार छोड़ कर जंगल में जाना आवश्यक नहीं है । परिवार और गृहस्थ भी ऊँची स्थिति पा सकता है । एक राजा भी योगी हो सकता है ।

दूसरी महत्वपूर्ण बात लोकसंग्रह यानी संसार की सुव्यवस्था की है । हमें कर्म इस प्रकार करना चाहिए कि संसार की व्यवस्था बिगड़े नहीं , और अच्छी बने । हमारे कर्म का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा , इससे प्राणी दुखी होंगे या सुखी , इससे उनका जीवन उन्नत बनेगा या पतित , इसका विचार करके ही कर्म करना चाहिए । हमें स्वयं तो संसार की व्यवस्था बिगाड़ना नहीं चाहिए , दूसरे को भी बिगाड़ने नहीं देना चाहिए । जो व्यक्ति दूसरे पर अत्याचार करता है , दूसरे का अधिकार छीनता है , वह व्यवस्था को बिगाड़ता है । हमारा कर्तव्य यह भी है कि उसका विरोध करें , उसके अत्याचार से समाज को मुक्ति दिलायें ।

भगवान् कृष्ण ने इस शिक्षा पर स्वयं आचरण करके दिखाया , उनके समय में देश में अनेक विलासी , अत्याचारी राजा थे । एक - एक करके सबसे उनका संघर्ष हुआ । इनमें से किसी ने भी कृष्ण जी को सताया नहीं था । परन्तु , कृष्ण जी किसी के द्वारा किसी अन्य पर भी किये जा रहे अत्याचार को सहन नहीं कर पाते थे । हर पीड़ित व्यक्ति उनका अपना है , ऐसा . वे अनुभव करते थे । अतः उन्होंने अत्याचार को मिटा कर ही चैन की साँस ली । ऐसा करके वे संसार की व्यवस्था की ही रक्षा कर रहे थे । हिन्दू धर्म अत्याचार की ओर से आँखें मूंदना नहीं सिखाता । वह अत्याचार का विरोध सिखाता है । उसकी दृष्टि में अत्याचार का विरोध करना धार्मिक कार्य है ।

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