Wednesday 22 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के पञ्चदश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार // The significance, meaning and essence of the Panchadash chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के पञ्चदश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार
The significance, meaning and essence of the Panchadash chapter of Srimad Bhagavad Gita

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इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशम  एकादश ,द्वादश  , त्रयोदश,  चतुर्दश अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य Greatness of the fifteenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमहादेवजी कहते हैं -
पार्वती ! अब गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य सुनो । गौड़देशमें कृपाण - नरसिंह नामक एक राजा थे , जिनकी तलवारकी धारसे युद्धमें देवता भी परास्त हो जाते थे । उनका बुद्धिमान् सेनापति शस्त्र और शास्त्रकी कलाओंका भण्डार था । उसका नाम था सरभमेरुण्ड । उसकी भुजाओंमें प्रचण्ड बल था । एक समय उस पापीने राजकुमारोंसहित महाराजका वध करके स्वयं ही राज्य करनेका विचार किया । इस निश्चयके कुछ ही दिनों बाद वह हैजेका शिकार होकर मर गया । थोड़े समयमें वह पापात्मा अपने पूर्वकर्मके कारण सिन्धुदेशमें एक तेजस्वी घोड़ा हुआ । उसका पेट सटा हुआ था । घोड़ेके लक्षणोंका ठीक - ठीक ज्ञान रखनेवाले किसी वैश्यके पुत्रने बहुत - सा मूल्य देकर उस अश्वको खरीद लिया और यत्नके साथ उसे राजधानीतक वह ले आया।

वैश्यकुमार वह अश्व राजाको देनेको लाया था । यद्यपि राजा उस वैश्यकुमारसे परिचित थे , तथापि द्वारपालने जाकर उसके आगमनकी सूचना दी । राजाने पूछा - ' किसलिये आये हो ? ' तब उसने स्पष्ट शब्दोंमें उत्तर दिया - ' देव ! सिन्धुदेशमें एक उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न अश्व था , जिसे तीनों लोकोंका एक रत्न समझकर मैंने बहुत - सा मूल्य देकर खरीद लिया है । ' राजाने आज्ञा दी – ' उस अश्वको यहाँ ले आओ ।

वास्तवमें वह घोड़ा गुणोंमें उच्चैःश्रवाके समान था । सुन्दर रूपका तो मानो घर ही था । शुभ लक्षणोंका समुद्र जान पड़ता था । वैश्य घोड़ा ले आया और राजाने उसे देखा । अश्वका लक्षण जाननेवाले अमात्योंने इसकी बड़ी प्रशंसा की । सुनकर राजा अपार आनन्दमें निमग्न हो गये और उन्होंने वैश्यको मुँहमाँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्वको खरीद लिया । कुछ दिनोंके बाद एक समय राजा शिकार खेलनेके लिये उत्सुक हो उसी घोड़ेपर चढ़कर वनमें गये ।

वहाँ मृगोंके पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया । पीछे - पीछे सब ओरसे दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकोंका साथ छूट गया । वे हिरनोंद्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये । प्यासने उन्हें व्याकुल कर दिया । तब वे घोड़ेसे उतरकर जलकी खोज करने लगे । घोड़ेको तो उन्होंने वृक्षकी डालीमें बाँध दिया और स्वयं एक चट्टानपर चढ़ने लगे । कुछ दूर जानेपर उन्होंने देखा कि एक पत्तेका टुकड़ा हवासे उड़कर शिलाखण्डपर गिरा है । उसमें गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा हुआ था । राजा उसे बाँचने लगे । उनके मुखसे गीताके अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्व - शरीरको छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमानपर बैठकर वह स्वर्गलोकको चला गया । तत्पश्चात् राजाने पहाड़पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा , जहाँ नागकेशर , केले , आम और नारियलके वृक्ष लहरा रहे थे । आश्रमके भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे , जो संसारकी वासनाओंसे मुक्त थे । राजाने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्तिके साथ पूछा - ' ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी - अभी स्वर्गको चला गया है , उसमें क्या कारण है ? '

राजाकी बात सुनकर त्रिकालदर्शी , मन्त्रवेत्ता एवं महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मणने कहा - ' राजन् ! पूर्वकालमें तुम्हारे यहाँ जो ' सरभमेरुण्ड ' नामक सेनापति था , वह तुम्हें पुत्रोंसहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेनेको तैयार था । इसी बीचमें हैजेका शिकार होकर वह मृत्युको प्राप्त हो गया । उसके बाद वह उसी पापसे घोड़ा हुआ था । यहाँ कहीं गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा मिल गया था , उसे ही तुम बाँचने लगे । उसीको तुम्हारे मुखसे सुनकर वह अश्व स्वर्गको प्राप्त हुआ है ।

तदनन्तर राजाके पार्श्ववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे । उन सबके साथ ब्राह्मणको प्रणाम करके राजा प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे चले और गीताके पंद्रहवें अध्यायके श्लोकाक्षरोंसे अङ्कित उसी पत्रको बाँच - बाँचकर प्रसन्न होने लगे । उनके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे । घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियोंके साथ अपने पुत्र सिंहबलको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्यायके जपसे विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया ।


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