Wednesday 22 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार // The significance, meaning and essence of the Trayodash chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार
The significance, meaning and essence of the Trayodash chapter of Srimad Bhagavad Gita

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इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशम  एकादश ,द्वादश अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें अध्याय का माहात्म्य The greatness of the thirteenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमहादेवजी कहते हैं -
पार्वती ! अब तेरहवें अध्यायकी अगाध महिमाका वर्णन सुनो । उसको सुननेसे तुम बहुत प्रसन्न होओगी । दक्षिण दिशामें तुङ्गभद्रा नामकी एक बहुत बड़ी नदी है । उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है । वहाँ हरिहर नामसे साक्षात् भगवान् शिवजी विराजमान हैं , जिनके दर्शनमात्रसे परम कल्याणकी प्राप्ति होती है । हरिहरपुरमें हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे , जो तपस्या और स्वाध्यायमें संलग्न तथा वेदोंके पारगामी विद्वान् थे । उनके एक स्त्री थी , जिसे लोग दुराचारा कहकर पुकारते थे । इस नामके अनुसार ही उसके कर्म भी थे । वह सदा पतिको कुवाच्य कहती थी । उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया । पतिसे सम्बन्ध रखनेवाले जितने लोग घरपर आते , उन सबको डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर व्यभिचारियोंके साथ रमण किया करती थी ।

एक दिन नगरको इधर - उधर आते - जाते हुए पुरवासियोंसे भरा देख उसने निर्जन एवं दुर्गम वनमें अपने लिये संकेतस्थान बना लिया । एक समय रातमें किसी कामीको न पाकर वह घरके किवाड़ खोल नगरसे बाहर संकेत स्थानपर चली गयी । उस समय उसका चित्त कामसे मोहित हो रहा था । वह एक - एक कुञ्जमें तथा प्रत्येक वृक्षके नीचे जा - जाकर किसी प्रियतमकी खोज करने लगी ; किंतु उन सभी स्थानोंपर उसका परिश्रम व्यर्थ गया । उसे प्रियतमका दर्शन नहीं हुआ । तब वह उस वनमें नाना प्रकारकी बातें कहकर विलाप करने लगी । चारों दिशाओंमें घूम घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्रीकी आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उछलकर उस स्थानपर पहुंचा , जहाँ वह रो रही थी । उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमीकी आशङ्का से मैं सदा अपने वेदपाठके फलको भी बेचा करता था ।

मेरा लोभ यहाँतक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओंको गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरोंको नहीं देनेयोग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था । ऋण लेनेके बहाने मैं सब लोगोंको छला करता था । तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर मैं बूढ़ा हुआ । मेरे बाल सफेद हो गये , आँखोंसे सूझता न था और मुँहके सारे दाँत गिर गये । इतनेपर भी मेरी दान लेनेकी आदत नहीं छूटी । पर्व आनेपर प्रतिग्रहके लोभसे मैं हाथमें कुश लिये तीर्थके समीप चला जाया करता था । तत्पश्चात् जब मेरे सारे अङ्ग शिथिल हो गये , तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणोंके घरपर माँगने खानेके लिये गया । उसी समय मेरे पैरमें कुत्तेने काट लिया । तब मैं मूर्च्छित होकर क्षणभरमें पृथ्वीपर गिर पड़ा । मेरे प्राण निकल गये । उसके बाद मैं इसी व्याघ्रयोनिमें उत्पन्न हुआ ।

तब से इस दुर्गम वनमें  रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापोंको याद करके कभी धर्मिष्ट महात्या , यति , साधु पुरुष तथा सती स्त्रियोंको मैं नहीं खाता । पापी - दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियोंको ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ ; अतः कुलटा होनेके कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी ।

यों कहकर वह अपने कठोर नखोंसे उसके शरीरके टुकड़े - टुकड़े करके खा गया । इसके बाद यमराजके दूत उस पापिनीको संयमनीपुरीमें ले गये । वहाँ यमराजकी आज्ञासे उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा , मूत्र और रक्तसे भरे हुए भयानक कुण्डोंमें गिराया । करोड़ों कल्पोंतक उसमें रखनेके बाद उसे वहाँसे ले आकर सौ मन्वन्तरोंतक रौरव नरकमें रखा । फिर चारों ओर मुँह करके दीन भावसे रोती हुई उस पापिनीको वहाँसे खींचकर दहनानन नामक नरकमें गिराया । उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था ।

इस प्रकार घोर नरकयातना भोग चुकनेपर वह महापापिनी इस लोकमें आकर चाण्डाल - योनिमें उत्पन्न हुई । चाण्डालके घरमें भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्मके अभ्याससे पूर्ववत् पापोंमें प्रवृत्त रही । फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्माका रोग हो गया । नेत्रों में पीड़ा होने लगी । फिर कुछ कालके पश्चात् वह पुनः अपने निवासस्थान ( हरिहरपुर ) -को गयी , जहाँ भगवान् शिवके अन्तःपुरकी स्वामिनी जम्भकादेवी विराजमान हैं । वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मणका दर्शन किया , जो निरन्तर गीताके तेरहवें अध्यायका पाठ करता रहता था । उसके मुखसे गीताका पाठ सुनते ही वह चाण्डालशरीरसे मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोकमें चली गयी ।




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