Tuesday 21 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के एकादश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ व सार // The significance, meaning and essence of the eleventh chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के एकादश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ व सार
The significance, meaning and essence of the eleventh chapter of Srimad Bhagavad Gita

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दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशमअध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य 
The eleventh chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमहादेवजी कहते हैं -
प्रिये ! गीताके वर्णनसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा एवं विश्वरूप अध्यायके पावन माहात्म्यको श्रवण करो । विशाल नेत्रों वाली पार्वती ! इस अध्यायके माहात्म्यका पूरा - पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता । इसके सम्बन्धमें सहस्त्रों कथाएँ हैं । उनमेंसे एक यहाँ कही जाती है । प्रणीता नदीके तटपर मेघङ्कर नामसे विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है । उसके प्राकार ( चहारदिवारी ) और गोपुर ( द्वार ) बहुत ऊँचे हैं । वहाँ बड़ी - बड़ी विश्रामशालाएँ हैं , जिनमें सोनेके खंभे शोभा दे रहे हैं । उस नगरमें श्रीमान् , सुखी , शान्त , सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्योंका निवास है । वहाँ हाथमें शाङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णु विराजमान हैं । वे परब्रह्मके साकार स्वरूप हैं , संसारके नेत्रोंको जीवन प्रदान करनेवाले हैं ।

उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीके नेत्र - कमलोंद्वारा पूजित होता है । भगवान्की वह झाँकी वामन - अवतारकी है । मेघके समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है । वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभा पाता है । वे कमल और वनमालासे विभूषित हैं । अनेक प्रकारके आभूषणोंसे सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्रके सदृश जान पड़ते हैं । पीताम्बरसे उनके श्याम विग्रहकी कान्ति ऐसी प्रतीत होती है , मानो चमकती हुई बिजलीसे घिरा हुआ स्निग्ध मेघ शोभा पा रहा हो । उन भगवान् वामनका दर्शन करके जीव जन्म एवं संसारके बन्धनसे मुक्त हो जाता है । उस नगरमें मेखला नामक महान् तीर्थ है , जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है । वहाँ जगत्के स्वामी करुणासागर भगवान् नृसिंहका दर्शन करनेसे मनुष्य सात जन्मोंके किये हुए घोर पापसे छुटकारा पा जाता है ।जो मनुष्य मेखलामें गणेशजीका दर्शन करता है , वह सदा दुस्तर विघ्नोंके भी पार हो जाता है ।

उसी मेघङ्कर नगरमें कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे , जो ब्रह्मचर्यपरायण , ममता और अहंकारसे रहित , वेद - शास्त्रोंमें प्रवीण , जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेवके शरणागत थे । उनका नाम सुनन्द था । प्रिये ! वे शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान्के पास गीताके ग्यारहवें अध्याय विश्वरूपदर्शनयोगका पाठ किया करते थे । उस अध्यायके प्रभावसे उन्हें ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी । परमानन्द - संदोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधिके द्वारा इन्द्रियोंके अन्तर्मुख हो जानेके कारण वे निश्चल स्थितिको प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगीकी स्थितिमें रहते थे । एक समय जब बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित थे , महायोगी सुनन्दने गोदावरीतीर्थकी यात्रा आरम्भ की । वे क्रमशः विरजतीर्थ , तारातीर्थ , कपिलासंगम , अष्टतीर्थ , कपिलाद्वार , नृसिंहवन , अम्बिकापुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रोंमें स्नान और दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगरमें आये ।

वहाँ उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहरनेके लिये स्थान माँगा , परंतु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला । अन्तमें गाँवके मुखियाने उन्हें एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी । ब्राह्मणने साथियोंसहित उसके भीतर जाकर रातमें निवास किया । सबेरा होनेपर उन्होंने अपनेको तो धर्मशालाके बाहर पाया , किंतु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये । वे उन्हें खोजनेके लिये चले , इतनेमें ही ग्रामपाल ( मुखिये ) से उनकी भेंट हो गयी । ग्रामपालने कहा - ' मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकारसे दीर्घायु जान पड़ते हो । सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषोंमें तुम सबसे पवित्र हो । तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान है । तुम्हारे साथी कहाँ गये ? और कैसे इस भवनसे बाहर हुए ? इसका पता लगाओ । मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे - जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता । विप्रवर ! तुम्हें किस महामन्त्रका ज्ञान है ? किस विद्याका आश्रय लेते हो तथा किस देवताकी दयासे तुम्हें अलौकिक शक्ति आ गयी है ? भगवन् ! कृपा करके इस गाँवमें रहो । मैं तुम्हारी - सब सेवा - शुश्रूषा करूँगा ।

यों कहकर ग्रामपालने मुनीश्वर सुनन्दको अपने गाँवमें ठहरा लिया । वह दिन - रात बड़ी भक्तिसे उनकी सेवा - टहल करने लगा । जब सात - आठ दिन बीत गये , तब एक दिन प्रात : काल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्माके सामने रोने लगा और बोला - ' हाय ! आज रातमें राक्षसने मुझ भाग्यहीनके बेटेको चबा लिया है । मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था । ग्रामपालके इस प्रकार कहनेपर योगी सुनन्दने पूछा - ' कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है ? '

ग्रामपाल बोला - 
ब्रह्मन् ! इस नगरमें एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है । वह प्रतिदिन आकर इस नगरके मनुष्योंको खा लिया करता था । तब एक दिन समस्त नगरवासियोंने मिलकर उससे प्रार्थना की ' राक्षस ! तुम हम सब लोगोंकी रक्षा करो । हम तुम्हारे लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं । यहाँ बाहरके जो पथिक रातमें आकर नींद लेने लगें , उनको खा जाना । ' इस प्रकार नागरिक मनुष्योंने गाँवके ( मुझ ) मुखियाद्वारा इस धर्मशालामें भेजे हुए पथिकोंको ही राक्षसका आहार निश्चित किया । अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा । तुम भी अन्य राहगीरोंके साथ इस घरमें आकर सोये थे ; किंतु राक्षसने उन सबोंको तो खा लिया , केवल तुम्हें छोड़ दिया है । द्विजोत्तम ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है , इस बातको तुम्हीं जानते हो । इस समय मेरे पुत्रका एक मित्र आया था , किंतु मैं उसे पहचान न सका । वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था , किंतु अन्य राहगीरोंके साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशालामें भेज दिया ।

मेरे पुत्रने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है , तब वह उसे वहाँसे ले आनेके लिये गया ; परंतु राक्षसने उसे भी खा लिया ।इस प्रकार उस राक्षसका संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ ।

ब्राह्मणने पूछ - 
ग्रामपाल ! जो रातमें सोये हुए मनुष्योंको खाता है , वह प्राणी किस पापसे राक्षस हुआ है ?

 ग्रामपाल बोला - 
ब्रह्मन् ! पहले इस गाँवमें कोई किसान ब्राह्मण रहता था । एक दिन वह अगहनीके खेतकी क्यारियोंकी रक्षा करने में लगा था । वहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राहीको मारकर खा रहा था । उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले , जो उस राहीको बचानेके लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहे थे । गिद्ध उस राहीको खाकर आकाशमें उड़ गया । तब तपस्वीने कुपित होकर उस किसानसे कहा - ' ओ दुष्ट हलवाहे ! तुझे धिक्कार है । तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है । दूसरेकी रक्षासे मुँह मोड़कर केवल पेट पालनेके धंधे में लगा है । तेरा जीवन नष्टप्राय है । अरे ! जो चोर , दाढ़वाले जीव , सर्प , शत्रु , अग्नि , विष , जल , गीध , राक्षस , भूत तथा बेताल आदिके द्वारा घायल हुए मनुष्योंकी शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है , वह उनके वधका फल पाता है । जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदिके चंगुलमें फँसे हुए ब्राह्मणको छुड़ानेकी चेष्टा नहीं करता , वह घोर नरकमें पड़ता और पुनः भेड़ियेकी योनिमें जन्म लेता है । जो वनमें मारे जाते हुए तथा गृध्र और व्याघ्रकी दृष्टिमें पड़े हुए जीवकी रक्षाके लिये ‘ छोड़ो , छोड़ो ' की पुकार करता है , वह परम गतिको प्राप्त होता है ।

जो मनुष्य गौओंकी रक्षाके लिये व्याघ्र , भील तथा दुष्ट राजाओंके हाथसे मारे जाते हैं , वे भगवान् विष्णुके उस परम पदको पाते हैं जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है । सहस्त्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत - रक्षाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते । दीन तथा भयभीत जीवकी उपेक्षा करनेसे पुण्यवान् पुरुष भी समय आनेपर कुम्भीपाक नामक नरकमें पकाया जाता है * तूने दुष्ट गिद्धके द्वारा खाये जाते हुए राहीको देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो इसकी रक्षा नहीं की , इससे तू निर्दयी जान पड़ता है , अतः तू राक्षस हो जा ।

हलवाहा बोला – 
महात्मन् ! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था , किंतु मेरे नेत्र बहुत देरसे खेतकी रक्षामें लगे थे , अतः पास होनेपर भी गिद्धके द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्यको मैं नहीं जान सका । अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये ।

तपस्वी ब्राह्मणने कहा - 
जो प्रतिदिन गीताके ग्यारहवें अध्यायका जप करता है , उस मनुष्यके द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा , उस समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा । यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया ; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्यायसे तीर्थके जलको अभिमन्त्रित करो । फिर अपने ही हाथसे उस राक्षसके मस्तकपर उसे छिड़क दो ।

ग्रामपालकी यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर आया । वे ' बहुत अच्छा ' कहकर उसके साथ राक्षसके निकट गये । वे ब्राह्मण योगी थे । उन्होंने विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला । गीताके ग्यारहवें अध्यायके प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया । उसने राक्षस - देहका परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्त्रों पथिकोंका भक्षण किया था , वे भी शङ्ख , चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुजरूप हो गये । तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए ।

इतनेमें ही ग्रामपालने राक्षससे कहा - ' निशाचर ! मेरा पुत्र कौन है ? उसे दिखाओ । ' उसके यों कहनेपर दिव्य बुद्धिवाले राक्षसने कहा - ' ये जो तमालके समान श्याम , चार भुजाधारी , माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य मणियोंके बने हुए कुण्डलोंसे अलंकृत हैं , हार पहननेके कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं , जो सोनेके भुजबंदोंसे विभूषित , कमलके समान नेत्रवाले , स्निग्धरूप तथा हाथमें कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं , इन्हींको अपना पुत्र समझो । ' यह सुनकर ग्रामपालने उसी रूपमें अपने पुत्रको देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा । यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा ।

पुत्र बोला - 
ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो । पहले  मैं तुम्हारा पुत्र था , किंतु अब देवता हो गया हूँ । इन ब्राह्मण - देवताके प्रसादसे वैकुण्ठधामको जाऊँगा । देखो , यह निशाचर भी चतुर्भुजरूपको प्राप्त हो गया । ग्यारहवें अध्यायके माहात्म्यसे यह सब लोगोंके साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है ; अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेवसे गीताके ग्यारहवें अध्यायका अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो । इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी । तात ! मनुष्योंके लिये साधु पुरुषोंका सङ्ग सर्वथा दुर्लभ है । वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है ; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो । धन , भोग , दान , यज्ञ , तपस्या और पूर्वकर्मोंसे क्या लेना है । विश्वरूपाध्यायके पाठसे ही परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है । पूर्णानन्दसंदोहस्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुखसे कुरुक्षेत्रमें अपने मित्र अर्जुनके प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था , वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है ।

 तुम उसीका चिन्तन करो । वह मोक्षके लिये प्रसिद्ध रसायन है । संसार - भयसे डरे हुए मनुष्योंकी आधि - व्याधिका विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखोंका नाश करनेवाला है । मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं देखता , अतः उसीका अभ्यास करो ।

श्रीमहादेवजी कहते हैं - 
यों कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया । तब ग्रामपालने ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ा । फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये । पार्वती ! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्यायकी माहात्म्य - कथा सुनायी है । इसके श्रवणमात्रसे महान् पातकोंका नाश हो जाता है ।


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