Friday 17 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार The significance, meaning and essence of the first chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार
The significance, meaning and essence of the first chapter of Srimad Bhagavad Gita

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दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है, जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य 
The significance of the first chapter of Srimad Bhagavad Gita


श्रीपार्वतीजीने कहा - 
भगवन् ! आप सब तत्त्वोंके ज्ञाता हैं । आपकी कृपासे मुझे श्रीविष्णु - सम्बन्धी नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले , जो समस्त लोकका उद्धार करनेवाले हैं । देवेश ! अब मैं गीताका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ , जिसका श्रवण करनेसे श्रीहरिमें भक्ति बढ़ती है ।

श्रीमहादेवजी बोले - 
जिनका श्रीविग्रह अलसीके फूलकी भाँति श्याम वर्णका है , पक्षिराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं , जो अपनी महिमासे कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं , उन भगवान् महाविष्णुकी हम उपासना करते हैं । एक समयकी बात है , मुर दैत्यके नाशक भगवान् विष्णु शेषनागके रमणीय आसनपर सुखपूर्वक विराजमान थे । उस समय समस्त लोकोंको आनन्द देनेवाली भगवती लक्ष्मीने आदरपूर्वक प्रश्न किया ।

श्रीलक्ष्मीजीने पूछा - 
भगवन् ! आप सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्यके प्रति उदासीन - से होकर जो इस क्षीरसागरमें नींद ले रहे हैं , इसका क्या कारण है ?

श्रीभगवान् बोले - 
सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ , अपितु तत्त्वका अनुसरण करनेवाली अन्तर्दृष्टिके द्वारा अपने ही माहेश्वर तेजका साक्षात्कार कर रहा हूँ । देवि ! यह वही तेज है , जिसका योगी पुरुष कुशाग्र - बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान् वेदोंका सार - तत्त्व निश्चित करते हैं । वह माहेश्वर तेज एक , अजर , प्रकाशस्वरूप , आत्मरूप रोग - शोकसे रहित , अखण्ड आनन्दका पुञ्ज , निष्पन्द ( निरीह ) तथा द्वैतरहित है । इस जगत्का जीवन उसीके अधीन है । मैं उसीका अनुभव करता हूँ । देवेश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता - सा प्रतीत हो रहा हूँ ।

श्रीलक्ष्मीजीने कहा -
हृषीकेश ! आप ही योगी पुरुषोंके ध्येय हैं । आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करनेयोग्य तत्त्व है , यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है । इस चराचर जगत्की सृष्टि और संहार करनेवाले स्वयं आप ही हैं । आप सर्वसमर्थ हैं । इस प्रकारकी स्थितिमें होकर भी यदि आप उस परम तत्त्वसे भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये ।

श्रीभगवान् बोले - 
प्रिये ! आत्माका स्वरूप द्वैत और अद्वैतसे पृथक् , भाव और अभावसे मुक्त तथा आदि और अन्तसे रहित है । शुद्ध ज्ञानके प्रकाशसे उपलब्ध होनेवाला तथा परमानन्दस्वरूप होनेके कारण एकमात्र सुन्दर है । वही मेरा ईश्वरीय रूप है । आत्माका एकत्व ही सबके द्वारा जाननेयोग्य है । गीताशास्त्रमें इसीका प्रतिपादन हुआ है । अमित तेजस्वी भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवीने शङ्का उपस्थित करते हुए कहा - भगवन् ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और मन - वाणीकी पहुँचके बाहर है तो गीता कैसे उसका
बोध कराती है ? मेरे इस संदेहका आप निवारण कीजिये ।

श्रीभगवान् बोले -
सुन्दरि ! सुनो , मैं गीतामें अपनी स्थितिका वर्णन करता हूँ । क्रमशः पाँच अध्यायोंको तुम पाँच मुख जानो , दस अध्यायोंको दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्यायको उदर और दो अध्यायोंको दोनों चरणकमल जानो । इस प्रकार यह अठारह अध्यायोंकी वाङ्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिये । * यह ज्ञानमात्रसे ही महान् पातकोंका नाश करनेवाली है । जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीताके एक या आधे अध्यायका अथवा एक , आधे या चौथाई श्लोकका भी प्रतिदिन अभ्यास करता है , वह सुशर्माके समान मुक्त हो जाता है ।

 श्रीलक्ष्मीजीने पूछा - 
देव ! सुशर्मा कौन था ? किस जातिका था और किस कारणसे उसकी मुक्ति हुई ?

श्रीभगवान् बोले –
प्रिये ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य था । पापियोंका तो वह शिरोमणि ही था । उसका जन्म वैदिक ज्ञानसे शून्य एवं क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले ब्राह्मणोंके कुलमें हुआ था । वह न ध्यान करता था , न जप ; न होम करता था , न अतिथियोंका सत्कार । वह लम्पट होनेके कारण सदा विषयोंके सेवनमें ही आसक्त रहता था । हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था । उसे मदिरा पीनेका व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था । इस प्रकार उसने अपने जीवनका दीर्घकाल व्यतीत कर दिया । एक दिन मूढ़ बुद्धि सुशर्मा पत्ते लानेके लिये किसी ऋषिकी वाटिकामें घूम रहा था ।

इसी बीचमें कालरूपधारी काले साँपने उसे डस लिया । सुशर्माकी मृत्यु हो गयी । तदनन्तर वह अनेक नरकोंमें जा वहाँकी यातनाएँ भोगकर मर्त्यलोकमें लौट आया और वहाँबोझ ढोनेवाला बैल हुआ । उस समय किसी पङ्गुने अपने जीवनको आरामसे व्यतीत करनेके लिये उसे खरीद लिया । बैलने अपनी पीठपर पङ्गुका भार ढोते हुए बड़े कष्टसे सात - आठ वर्ष बिताये । एक दिन पङ्गुने किसी ऊँचे स्थानपर बहुत देरतक बड़ी तेजीके साथ उस बैलको घुमाया । इससे वह थककर बड़े वेगसे पृथ्वीपर गिरा और मूछित हो गया । उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृष्ट हो बहुत - से लोग एकत्रित हो गये । उस जनसमुदायमेंसे किसी पुण्यात्मा व्यक्तिने उस बैलका कल्याण करनेके लिये उसे अपना पुण्यदान किया । तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगोंने भी अपने - अपने पुण्योंको याद करके उन्हें उसके लिये दान किया । उस भीड़में एक वेश्या भी खड़ी थी । उसे अपने पुण्यका पता नहीं था तो भी उसने लोगोंकी देखा - देखी उस बैलके लिये कुछ त्याग किया ।

तदनन्तर यमराजके दूत उस मरे हुए प्राणीको पहले यमपुरीमें ले गये । वहाँ यह विचारकर कि यह वेश्याके दिये हुए पुण्यसे पुण्यवान् हो गया है , उसे छोड़ दिया गया । फिर वह भूलोकमें आकर उत्तम कुल और शीलवाले ब्राह्मणोंके घरमें उत्पन्न हुआ । उस समय भी उसे अपने पूर्व जन्मकी बातोंका स्मरण बना रहा । बहुत दिनोंके बाद अपने अज्ञानको दूर करनेवाले कल्याण - तत्त्वका जिज्ञासु होकर वह उस वेश्याके पास गया और उसके दानकी बात बतलाते हुए उसने पूछा - ' तुमने कौन - सा पुण्यदान किया था ? ' वेश्याने उत्तर दिया - ' वह पिंजरेमें बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है । उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है । उसीका पुण्य मैंने तुम्हारे लिये दान किया था । ' इसके बाद उन दोनोंने तोतेसे पूछा । तब उस तोतेने अपने पूर्वजन्मका स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया ।

शुक बोला –
पूर्वजन्ममें मैं विद्वान् होकर भी विद्वत्ताके अभिमान से मोहित रहता था । मेरा राग - द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानोंके प्रति भी ईर्ष्याभाव रखने लगा । फिर समयानुसार मेरी हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकोंमें भटकता फिरा । उसके बाद इस लोकमें आया । सद्गुरुकी अत्यन्त निन्दा करनेके कारण तोतेके कुलमें मेरा जन्म हुआ । पापी होनेके कारण छोटी अवस्थामें ही मेरा माता - पितासे वियोग हो गया । एक दिन मैं ग्रीष्म - ऋतुमें तपे हुए मार्गपर पड़ा था । वहाँसे कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओंके आश्रयमें आश्रमके भीतर एक पिंजरेमें उन्होंने मुझे डाल दिया । वहीं मुझे पढ़ाया गया । ऋषियोंके बालक बड़े आदरके साथ गीताके प्रथम अध्यायकी आवृत्ति करते थे । उन्हींसे सुनकर मैं भी बारंबार पाठ करने लगा । इसी बीचमें एक चोरी करनेवाले बहेलियेने मुझे वहाँसे चुरा लिया ।

 तत्पश्चात् इस देवीने मुझे खरीद लिया । यही मेरा वृत्तान्त है , जिसे मैंने आपलोगोंसे बता दिया । पूर्वकालमें मैंने इस प्रथम अध्यायका अभ्यास किया था , जिससे मैंने अपने पापको दूर किया है । फिर उसीसे इस वेश्याका भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसीके पुण्यसे ये द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं ।

इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीताके प्रथम अध्यायके माहात्म्यकी प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने - अपने घरपर गीताका अभ्यास करने लगे । फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये । इसलिये जो गीताके प्रथम अध्यायको पढ़ता , सुनता तथा अभ्यास करता है , उसे इस भवसागरको पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती ।

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