Wednesday 22 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्दश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार // The significance, meaning and essence of the fourth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्दश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ एवं सार
The significance, meaning and essence of the fourth chapter of Srimad Bhagavad Gita

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इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशम  एकादश ,द्वादश  , त्रयोदश अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके चौदहवें अध्यायका माहात्म्य The greatness of the fourteenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमहादेवजी कहते हैं - 
पार्वती ! अब मैं भव - बन्धनसे छुटकारा पानेके साधनभूत चौदहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ , तुम ध्यान देकर सुनो । सिंहलद्वीपमें विक्रम बेताल नामक एक राजा थे , जो सिंहके समान पराक्रमी और कलाओंके भण्डार थे । एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये उत्सुक होकर राजकुमारोंसहित दो कुतियोंको साथ लिये वनमें गये । वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने तीव्र गतिसे भागते हुए खरगोशके पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी । उस समय सब प्राणियोंके देखते - देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो । दौड़ते - दौड़ते बहुत थक जानेके कारण वह एक बड़ी खंदक ( गहरे गड़हे ) -में गिर पड़ा । गिरनेपर भी वह कुतियाके हाथ नहीं आया और उस स्थानपर जा पहुँचा , जहाँका वातावरण बहुत ही शान्त था ।

वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षोंकी छायामें बैठे रहते थे । बंदर भी अपने - आप टूटकर गिरे हुए नारियलके फलों और पके हुए आमोंसे पूर्ण तृप्त रहते थे । वहाँ सिंह हाथीके बच्चोंके साथ खेलते और साँप निडर होकर मोरकी पाँखोंमें घुस जाते थे । उस स्थानपर एक आश्रमके भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे , जो जितेन्द्रिय एवं शान्त - भावसे निरन्तर गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे । आश्रमके पास ही वत्समुनिके किसी शिष्यने अपना पैर धोया था , ( ये भी चौदहवें अध्यायका पाठ करनेवाले थे । ) उसके जलसे वहाँकी मिट्टी गीली हो गयी थी । खरगोशका जीवन कुछ शेष था । वह हाँफता हुआ आकर उसी कीचड़में गिर पड़ा । उसके स्पर्शमात्रसे ही खरगोश दिव्य विमानपर बैठकर स्वर्गलोकको चला गया । फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी । वहाँ उसके शरीरमें भी कुछ कीचड़के छींटे लग गये ।

फिर भूख - प्यासकी पीड़ासे रहित हो कुतियाका रूप त्यागकर उसने दिव्याङ्गनाका रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वोसे सुशोभित दिव्य विमानपर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोकको चली गयी । यह देख मुनिके मेधावी शिष्य स्वकन्धर हँसने लगे । उन दोनोंके पूर्वजन्मके वैरका कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था । उस समय राजाके नेत्र भी आश्चर्यसे चकित हो उठे । उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ प्रणाम करके पूछा - ' विप्रवर ! नीच योनिमें पड़े हुए दोनों प्राणी - कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्गमें चले गये - इसका क्या कारण है ? इसकी कथा सुनाइये ।

शिष्यने कहा –
भूपाल ! इस वनमें वत्स नामक ब्राह्मण रहते हैं । वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं ; गीताके चौदहवें अध्यायका सदा जप किया करते हैं । मैं उन्हींका शिष्य हूँ , मैंने भी ब्रह्मविद्यामें विशेषज्ञता प्राप्त की है । गुरुजीकी ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्यायका प्रतिदिन जप करता हूँ । मेरे पैर धोनेके जलमें लोटनेके कारण यह खरगोश कुतियाके साथ ही स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ है । अब मैं अपने हँसनेका कारण बताता हूँ । महाराष्ट्रमें प्रत्युदक नामक महान् नगर है , वहाँ केशव नामका एक ब्राह्मण रहता था , जो कपटी मनुष्योंमें अग्रगण्य था । उसकी स्त्रीका नाम विलोभना था । वह स्वच्छन्द विहार करनेवाली थी । इससे क्रोधमें आकर जन्मभरके वैरको याद करके ब्राह्मणने अपनी स्त्रीका वध कर डाला और उसी पापसे उसको खरगोशकी योनिमें जन्म मिला । ब्राह्मणी भी अपने पापके कारण कुतिया हुई ।

श्रीमहादेवजी कहते हैं - 
यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजाने गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ आरम्भ कर दिया । इससे उन्हें परमगतिकी प्राप्ति हुई ।


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