Wednesday 22 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तदश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश एवं सार // The significance, meaning, teachings and essence of Saptadash chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तदश अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश एवं सार
The significance, meaning, teachings and essence of Saptadash chapter of Srimad Bhagavad Gita

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इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशम  एकादश ,द्वादश  , त्रयोदश,  चतुर्दश 
पञ्चदश , षोडष अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें अध्यायका माहात्म्य / The significance of the seventeenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमहादेवजी कहते हैं -
पार्वती ! सोलहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाया गया । अब सत्रहवें अध्यायकी अनन्त महिमा श्रवण करो । राजा खड्गबाहुके पुत्रका दुःशासन नामक एक नौकर था । वह बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य था । एक बार वह माण्डलीक राजकुमारोंके साथ बहुत धनकी बाजी लगाकर हाथीपर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जानेपर लोगोंके मना करनेपर भी वह मूढ़ हाथीके प्रति जोर - जोरसे कठोर शब्द करने लगा । उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोधसे अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जानेके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ा । दुःशासनको गिरकर कुछ - कुछ उच्छ्वास लेते देख कालके समान निरंकुश हाथीने क्रोधमें भरकर उसे ऊपर फेंक दिया । ऊपरसे गिरते ही उसके प्राण निकल गये । इस प्रकार कालवश मृत्युको प्राप्त होनेके बाद उसे हाथीकी योनि मिली और सिंहलद्वीपके महाराजके यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया ।

सिंहलद्वीपके राजाकी महाराज खड्गबाहुसे बड़ी मैत्री थी , अत : उन्होंने जलके मार्गसे उस हाथीको मित्रकी प्रसन्नताके लिये भेज दिया । एक दिन राजाने श्लोककी समस्यापूर्तिसे संतुष्ट होकर किसी कविको पुरस्काररूपमें वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ स्वर्ण - मुद्राएँ लेकर उसे मालवनरेशके हाथ बेच दिया । कुछ काल व्यतीत होनेपर वह हाथी यत्न पूर्वक पालित होनेपर भी असाध्य ज्वरसे ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया । हाथीवानोंने जब उसे ऐसी शोचनीय - अवस्थामें देखा तो राजाके पास जाकर हाथीके हितके लिये शीघ्र ही सारा हाल कह सुनाया । ' महाराज आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है । उसका खाना , पीना और सोना सब छूट गया है । हमारी समझमें नहीं आता इसका क्या कारण है ।

हाथीवानोंका बताया हुआ समाचार सुनकर राजाने हाथीके रोगको पहचाननेवाले चिकित्साकुशल मन्त्रियों के साथ उस स्थानपर पदार्पण किया , जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था । राजाको देखते ही उसने ज्वरजनित वेदनाको भूलकर संसारको आश्चर्यमें डालनेवाली वाणीमें कहा - ' सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता , राजनीतिके समुद्र , शत्रु - समुदायको परास्त करनेवाले तथा भगवान् विष्णुके चरणोंमें अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन औषधोंसे क्या लेना है ? वैद्योंसे भी कुछ लाभ होनेवाला नहीं है , दान और जपसे भी क्या सिद्ध होगा ? आप कृपा करके गीताके सत्रहवें अध्यायका पाठ करनेवाले किसी ब्राह्मणको बुलवाइये ।

हाथीके कथनानुसार राजाने सब कुछ वैसा ही किया । तदनन्तर गीता - पाठ करनेवाले ब्राह्मणने जब उत्तम जलको अभिमन्त्रित करके उसके ऊपर डाला , तब दुःशासन गजयोनिका परित्याग करके मुक्त हो गया । राजाने दुःशासनको दिव्य विमानपर आरूढ़ एवं इन्द्रके समान तेजस्वी देखकर पूछा - ' तुम्हारी पूर्व - जन्ममें क्या जाति थी ? क्या स्वरूप था ? कैसे आचरण थे ? और किस कर्मसे तुम यहाँ हाथी होकर आये थे ? ये सारी बातें मुझे बताओ । ' राजाके इस प्रकार पूछनेपर संकटसे छूटे हुए दुःशासनने विमानपर बैठे - ही - बैठे स्थिरताके साथ अपना पूर्वजन्मका उपर्युक्त समाचार यथावत् कह सुनाया ।

तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश भी गीताके सत्रहवें अध्यायका पाठ करने लगे । इससे थोड़े ही समयमें उनकी मुक्ति हो गयी ।


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