Saturday 18 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के षष्ठ अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार // The significance, meaning, teachings and essence of the best chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के षष्ठ अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार
The significance, meaning, teachings and essence of the best chapter of Srimad Bhagavad Gita

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दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम अध्याय 
अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य -
The greatness of the sixth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीभगवान् कहते हैं -
सुमुखि ! अब मैं छठे अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ , जिसे सुननेवाले मनुष्योंके लिये मुक्ति करतलगत हो जाती है । गोदावरी नदीके तटपर प्रतिष्ठानपुर ( पैठण ) नामक एक विशाल नगर है , जहाँ मैं पिप्पलेशके नामसे विख्यात होकर रहता हूँ । उस नगरमें जानश्रुति नामक एक राजा रहते थे , जो भूमण्डलकी प्रजाको अत्यन्त प्रिय थे । उनका प्रताप मार्तण्ड - मण्डलके प्रचण्ड तेजके समान जान पड़ता था । प्रतिदिन होनेवाले उनके यज्ञके धुएँसे नन्दनवनके कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे , मानो राजाकी असाधारण दानशीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों । उनके यज्ञमें प्राप्त पुरोडाशके रसास्वादनमें सदा आसक्त होनेके कारण देवतालोग कभी प्रतिष्ठानपुरको छोड़कर बाहर नहीं जाते थे ।

उनके दानके समय छोड़े हुए जलकी धारा , प्रतापरूपी तेज और यज्ञके धूमोंसे पुष्ट होकर मेघ ठीक समयपर वर्षा करते थे । उस राजाके शासनकालमें ईतियों ( खेतीमें होनेवाले छ : प्रकारके उपद्रवों ) के लिये कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियोंका सर्वत्र प्रसार होता था । वे बावली , कुएँ और पोखरे खुदवानेके बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वीके भीतरकी निधियोंका अवलोकन करते थे । एक समय राजाके दान , तप , यज्ञ और प्रजापालनसे संतुष्ट होकर स्वर्गके देवता उन्हें वर देनेके लिये आये । वे कमलनालके समान उज्ज्वल हंसोंका रूप धारणकर अपनी पाँखें हिलाते हुए आकाशमार्गसे चलने लगे । बड़ी उतावलीके साथ उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे ।

 उनमेंसे भद्राश्व आदि दो - तीन हंस वेगसे उड़कर आगे निकल गये । तब पीछेवाले हंसोंने आगे जानेवालोंको सम्बोधित करके कहा - ' अरे भाई भद्राश्व ! तुमलोग वेगसे चलकर आगे क्यों हो गये ? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है ; इसमें हम सबको साथ मिलकर चलना चाहिये । क्या तुम्हें , दिखायी नहीं देता , यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुतिका तेजःपुन्न अत्यन्त स्पष्टरूपसे प्रकाशमान हो रहा है । [ उस तेजस भस्प होनेकी आशङ्का है , अत : सावधान होकर चलना चाहिये । ।

पीछेवाले हंसोंके ये वचन सुनकर आगेवाले हंस हँस पड़े और उच्च स्वरसे उनकी बातोंकी अवहेलना करते हुए बोले - ' ओ भाई । क्या इस राजा जानश्रुतिका तेज ब्रह्मवादी पहात्या रेकके तेजसे भी अधिक तीव्र है ?

हंसोंकी ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महलकी छतसे उतर गये और सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो अपने सारथिको बुलाकर बोले - ' जाओ , महात्मा रैकको यहाँ ले आओ । ' राजाका यह अमृतके समान वचन सुनकर मह नामक सारथि प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगरसे बाहर निकला । सबसे पहले उसने मुक्तिदायिनी काशीपुरी की यात्रा की , जहाँ जगत्के स्वामी भगवान् विश्वनाथ मनुष्योंको उपदेश दिया करते हैं ।

उसके बाद वह गयाक्षेत्रमें पहुँचा , जहाँ प्रफुल्ल नेत्रोंवाले भगवान् गदाधर सम्पूर्ण लोकोंका उद्धार करनेके लिये निवास करते हैं । तदनन्तर नाना तीर्थों में भ्रमण करता हुआ सारथि पापनाशिनी मथुरापुरीमें गया ; यह भगवान् श्रीकृष्णका आदि स्थान है , जो परम महान् एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है । वेद और शास्त्रोंमें वह तीर्थ त्रिभुवनपति भगवान् गोविन्दके अवतारस्थानके नामसे प्रसिद्ध है । नाना देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं । मथुरा नगर कालिन्दी ( यमुना ) -के किनारे शोभा पाता है । उसकी आकृति अर्द्धचन्द्रके समान प्रतीत होती है । वह सब तीर्थों के निवाससे परिपूर्ण है । परम आनन्द प्रदान करनेके कारण सुन्दर प्रतीत होता है । गोवर्धन पर्वतके होनेसे मथुरामण्डलकी शोभा और भी बढ़ गयी है । वह पवित्र वृक्षों और लताओंसे आवृत है ।

उसमें बारह वन हैं । वह परम पुण्यमय तथा सबको विश्राम देनेवाले श्रुतियोंके सारभूत भगवान् श्रीकृष्णकी आधारभूमि है । तत्पश्चात् मथुरासे पश्चिम और उत्तर दिशाकी ओर बहुत दूरतक जानेपर सारथिको काश्मीर नामक नगर दिखायी दिया , जहाँ शङ्खके समान उज्ज्वल गगनचुम्बी महलोंकी पंक्तियाँ भगवान् शङ्करके अट्टहासकी भाँति शोभा पाती हैं । जहाँ ब्राह्मणोंके शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और पदोंका उच्चारण करते हुए देवताके समान हो जाते हैं । जहाँ निरन्तर होनेवाले यज्ञ - धूमसे व्याप्त होनेके कारण आकाश - मण्डल मेघोंसे धुलते रहनेपर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ता ।

जहाँ उपाध्यायके पास आकर छात्र जन्मकालीन अभ्याससे ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ माणिकेश्वर नामसे प्रसिद्ध भगवान् चन्द्रशेखर देहधारियोंको वरदान देनेके लिये नित्य निवास करते हैं । काश्मीरके राजा माणिक्येशने दिग्विजयमें समस्त राजाओंको जीतकर भगवान् शिवका पूजन किया था , तभीसे उनका नाम माणिक्येश्वर हो गया था । उन्हींके मन्दिरके दरवाजेपर महात्मा रैक एक छोटी - सी गाड़ीपर बैठे अपने अङ्गोंको खुजलाते हुए वृक्षकी छायाका सेवन कर रहे थे । इसी अवस्थामें सारथिने उन्हें देखा । राजाके बताये हुए भिन्न - भिन्न चिह्नोंसे उसने शीघ्र ही रैकको पहचान लिया और उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा - ' ब्रह्मन् ! आप किस स्थानपर रहते हैं ? आपका पूरा नाम क्या है ? आप तो सदा स्वच्छन्द विचरनेवाले हैं , फिर यहाँ किस लिये ठहरे हैं ? इस समय आपका क्या करनेका विचार है ?

सारथिके ये वचन सुनकर परम आनन्दमें निमग्न महात्मा रैक्कने कुछ सोचकर उससे कहा - ' यद्यपि हम पूर्णकाम हैं - हमें किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है , तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्तिके अनुसार परिचर्या कर सकता है । ' रैक्वके हार्दिक अभिप्रायको आदरपूर्वक ग्रहण करके सारथि धीरेसे राजाके पास चल दिया । वहाँ पहुँचकर राजाको प्रणाम करके उसने हाथ जोड़ सारा समाचार निवेदन किया । उस समय स्वामीके दर्शनसे उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी । सारथिके वचन सुनकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे । उनके हृदयमें रैक्कका सत्कार करनेकी श्रद्धा जाग्रत् हुई । उन्होंने दो खच्चरियोंसे जुती हुई एक गाड़ी लेकर यात्रा की । साथ ही मोतीके हार , अच्छे - अच्छे वस्त्र और एक सहस्त्र गौएँ भी ले लीं । काश्मीर - मण्डलमें महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे उस स्थानपर पहुँचकर राजाने सारी वस्तुएँ उनके आगे निवेदन कर दी और पृथ्वीपर पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ।

महात्मा रैक्क अत्यन्त भक्तिके साथ चरणोंमें पड़े हुए राजा जानश्रुतिपर कुपित हो उठे और बोले - ' रे शूद्र ! तू दुष्ट राजा है । क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता ? यह खच्चरियोंसे जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा । ये वस्त्र , ये मोतियोंके हार और ये दूध देनेवाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा । ' इस तरह आज्ञा देकर रैक्कने राजाके मनमें भय उत्पन्न कर दिया । तब राजाने शापके भयसे महात्मा रैक्वके दोनों चरण पकड़ लिये और भक्तिपूर्वक कहा - ' ब्रह्मन् ! मुझपर प्रसन्न होइये । भगवन् ! आपमें यह अद्भुत माहात्म्य कैसे आया ? प्रसन्न होकर मुझे ठीक - ठीक बताइये ।

 रैक्वने कहा - 
राजन् ! मैं प्रतिदिन गीताके छठे अध्यायका जप करता हूँ , इसीसे मेरी तेजोराशि देवताओंके लिये भी दुःसह है । तदनन्तर परम बुद्धिमान् राजा जानश्रुतिने यत्नपूर्वक महात्मा रैकसे गीताके छठे अध्यायका अभ्यास किया । इससे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई । इधर रैक्व भी भगवान् माणिक्येश्वरके समीप मोक्षदायक गीताके छठे अध्यायका जप करते हुए सुखसे रहने लगे । हंसका रूप धारण करके वरदान देनेके लिये आये हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये । जो मनुष्य सदा इस एक ही अध्यायका जप करता है , वह भी भगवान् विष्णुके ही स्वरूपको प्राप्त होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।


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