Sunday 19 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार // The significance, meaning, teachings and essence of the eighth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार
The significance, meaning, teachings and essence of the eighth chapter of Srimad Bhagavad Gita

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दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम्   अध्याय 
अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।


श्रीमद्भगवद्गीताके आठवें अध्यायका माहात्म्य 
The greatness of the eighth chapter of Srimad Bhagavad Gita

भगवान् शिव कहते हैं - 
देवि ! अब आठवें अध्यायका माहात्म्य सुनो ! उसके सुननेसे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी । [ लक्ष्मीजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें इस प्रकार अष्टम अध्यायका माहात्म्य बतलाया था । ] दक्षिणमें आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है । वहाँ भावशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था , जिसने वेश्याको पत्नी बनाकर रखा था । वह मांस खाता , मदिरा पीता , श्रेष्ठ पुरुषोंका धन चुराता , परायी स्त्रीसे व्यभिचार करता और शिकार खेलने में दिलचस्पी रखता था । वह बड़े भयानक स्वभावका था और मनमें बड़े - बड़े हौसले रखता था । एक दिन मदिरा पीनेवालोंका समाज जुटा था । उसमें भावशर्माने भरपेट ताड़ी पी - खूब गलेतक उसे चढ़ाया ; अतः अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ ।

उसकी घनी और ठंडी छायाका आश्रय लेकर ब्रह्मराक्षस - भावको प्राप्त हुए कोई पति - पत्नी वहाँ रहा करते थे । उनके पूर्वजन्मकी घटना इस प्रकार है । एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था , जो वेद - वेदाङ्गके तत्त्वोंका ज्ञाता , सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका विशेषज्ञ और सदाचारी था । उसकी स्त्रीका नाम कुमति था । वह बड़े खोटे विचारकी थी । वह ब्राह्मण विद्वान् होनेपर भी अत्यन्त लोभवश अपनी स्त्रीके साथ प्रतिदिन भैंस , कालपुरुष और घोड़े आदि बड़े दानोंको ग्रहण किया करता था ; परंतु दूसरे ब्राह्मणोंको दानमें मिली कौड़ी भी नहीं देता था । वे ही दोनों पति - पत्नी कालवश मृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए ।

वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसी ताड़वृक्षके पास आये और उसके मूल भागमें विश्राम करने लगे । इसके बाद पत्नीने पतिसे पूछा - ' नाथ ! हमलोगोंका यह
महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षस - योनिसे किस प्रकार हम दोनोंकी मुक्ति होगी ? ' तब उस ब्राह्मणने कहा - ' ब्रह्मविद्याके उपदेश , अध्यात्म - तत्त्वके विचार और कर्मविधिके ज्ञान बिना किस प्रकार संकटसे छुटकारा मिल सकता है ।

यह सुनकर पत्नीने पूछा –'किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम '

( पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन - सा है ? ) उसकी पत्नीके इतना कहते ही जो आश्चर्यकी घटना घटित हुई , उसको सुनो । उपर्युक्त वाक्य गीताके आठवें अध्यायका आधा श्लोक था । उसके श्रवणसे वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया । तत्काल ज्ञान होनेसे विशुद्ध - चित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया । तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति - पत्नी भी मुक्त हो गये ।

उनके मुखसे दैवात् ही आठवें अध्याय का आधा श्लोक निकल पड़ा था । तदनन्तर आकाशसे एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति - पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकको चले गये । वहाँका यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था ।

उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोकको लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करनेकी इच्छासे वह मुक्तिदायिनी काशीपुरीमें चला गया । वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने भारी तपस्या आरम्भ की । उसी समय क्षीरसागरकी कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जोड़कर देवताओंके भी देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा - ' नाथ ! आप सहसा नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ? '

श्रीभगवान् बोले -
देवि ! काशीपुरीमें भागीरथीके तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरससे परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है । वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके गीताके आठवें
अध्यायके आधे श्लोकका जप करता है । मैं उसकी तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ । बहुत देरसे उसकी तपस्याके अनुरूप फलका विचार कर रहा था । प्रिये ! इस समय वह फल देनेको मैं उत्कण्ठित हूँ ।

पार्वतीजीने पूछा-
भगवन् ! श्रीहरि सदा प्रसन्न होनेपर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे , उस भगवद्भक्त भावशर्माने कौन - सा फल प्राप्त किया ?

श्रीमहादेवजी बोले -
देवि ! द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुके प्रसादको पाकर आत्यन्तिक सुख ( मोक्ष ) -को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी , जो नरक - यातनामें पड़े थे , उसीके शुद्धकर्मसे भगवद्धामको प्राप्त हुए । पार्वती ! यह आठवें अध्यायका माहात्म्य थोड़ेमें ही तुम्हें बताया है । इसपर सदा विचार करते रहना चाहिये ।


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