Saturday 18 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम् अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार // The significance, meaning, teachings and essence of the seventh chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम् अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार
The significance, meaning, teachings and essence of the seventh chapter of Srimad Bhagavad Gita

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दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,  अध्याय 
अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।


श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें अध्यायका माहात्म्य 
The greatness of the seventh chapter of Srimad Bhagavad Gita

भगवान् शिव कहते हैं -
 पार्वती ! अब मैं सातवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ , जिसे सुनकर कानोंमें अमृत - राशि भर जाती है । पाटलिपुत्र नामक एक दुर्गम नगर है , जिसका गोपुर ( द्वार ) बहुत ही ऊँचा है ।

उस नगरमें शङ्ककर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था , उसने वैश्य - वृत्तिका आश्रय लेकर बहुत धन कमाया , किंतु न तो कभी पितरोंका तर्पण किया और न देवताओंका पूजन ही । वह धनोपार्जनमें तत्पर होकर राजाओंको ही भोज दिया करता था । एक समयकी बात है , उस ब्राह्मणने अपना चौथा विवाह करनेके लिये पुत्रों और बन्धुओंके साथ यात्रा की । मार्गमें आधी रातके समय जब वह सो रहा था , एक सर्पने कहींसे आकर उसकी बाँहमें काट लिया । उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गयी कि मणि , मन्त्र और ओषधि आदिसे भी उसके शरीरकी रक्षा असाध्य जान पड़ी । तत्पश्चात् कुछ ही क्षणोंमें उसके प्राण - पखेरू उड़ गये । फिर बहुत समयके बाद वह प्रेत सर्प - योनिमें उत्पन्न हुआ । उसका चित्त धनकी वासनामें बँधा था । उसने पूर्व - वृत्तान्तको स्मरण करके सोचा - ' मैंने जो घरके बाहर करोड़ोंकी संख्यामें अपना धन गाड़ रखा है , उससे इन पुत्रोंको वञ्चित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा । ' एक दिन साँपकी योनिसे पीड़ित होकर पिताने स्वप्नमें अपने पुत्रोंके समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया , तब उसके निरङ्कश पुत्रोंने सबेरे उठकर बड़े विस्मयके साथ एक - दूसरेसे स्वप्नकी बातें कहीं ।

उनमेंसे मझला पुत्र कुदाल हाथमें लिये घरसे निकला और जहाँ उसके पिता सर्पयोनि धारण करके रहते थे , उस स्थानपर गया । यद्यपि उसे धनके स्थानका ठीक - ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नोंसे उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभबुद्धिसे वहाँ पहुँचकर बाँबीको खोदना आरम्भ किया । तब उस बाँबीसे बड़ा भयानक साँप प्रकट हुआ और बोला - ' ओ मूढ़ ! तू ! तु कौन है , किसलिये आया है , क्यों बिल खोद रहा है , अथवा किसने तुझे भेजा है ? ये सारी बातें मेरे सामने बता ।

पुत्र बोला -
मैं आपका पुत्र हूँ । मेरा नाम शिव है । मैं रात्रिमें देखे हुए स्वप्नसे विस्मित होकर यहाँका सुवर्ण लेनेके कौतूहलसे आया हूँ । पुत्रकी यह वाणी सुनकर वह साँप हँसता हुआ उच्च स्वरसे इस प्रकार स्पष्ट वचन बोला - ' यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धनसे मुक्त कर । मैं पूर्वजन्मके गाड़े हुए धनके ही लिये सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ ।

पुत्रने पूछा-
पिताजी ! आपकी मुक्ति कैसे होगी ? इसका उपाय मुझे बताइये ; क्योंकि मैं इस रातमें सब लोगोंको छोड़कर आपके पास आया हूँ ।

पिताने कहा -
बेटा ! गीताके अमृतमय सप्तम अध्यायको छोड़कर मुझे मुक्त करने में तीर्थ , दान , तप और यज्ञ भी सर्वथा समर्थ नहीं हैं । केवल गीताका सातवाँ अध्याय ही प्राणियोंके जरा - मृत्यु आदि दुःखको दूर करनेवाला है । पुत्र ! मेरे श्राद्धके दिन सप्तम अध्यायका पाठ करने वाले ब्राह्मणको श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ । इससे नि : सन्देह मेरी मुक्ति हो जायगी । वत्स ! अपनी शक्तिके अनुसार पूर्ण श्रद्धाके साथ वेद - विद्या प्रवीण अन्य ब्राह्मणोंको भी भोजन कराना ।

सर्पयोनिमें पड़े हुए पिताके ये वचन सुनकर सभी पुत्रोंने उसकी आज्ञाके अनुसार तथा उससे भी अधिक किया । तब शङ्कुकर्णने अपने सर्पशरीरको त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रोंके अधीन कर दिया । पिताने करोड़ोंकी संख्यामें जो धन बाँटकर दिया था , उससे वे सदाचारी पुत्र बहुत प्रसन्न हुए । उनकी बुद्धि धर्ममें लगी हुई थी ; इसलिये उन्होंने बावली , कुआँ , पोखरा , यज्ञ तथा देवमन्दिरके लिये उस धनका उपयोग किया और अन्नशाला भी बनवायी । तत्पश्चात् सातवें अध्यायका सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । पार्वती ! यह तुम्हें सातवें अध्यायका माहात्म्य बताया गया है । जिसके श्रवणमात्रसे मानव सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है ।


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