Monday 20 July 2020

श्रीमद्भगवद्गीता के दशम् अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार / The significance, meaning, teachings and essence of the tenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता के दशम् अध्याय का माहात्म्य, अर्थ, उपदेश व सार
The significance, meaning, teachings and essence of the tenth chapter of Srimad Bhagavad Gita

Bhagwat geeta Mahatm in hindi, geeta Quotes Images, photos and wallpapers to download and share with your friends to inspire others. Bhagwat geetaQuotes in Hindi, Hindi Quotes on geeta, geeta thoughts in hindi, geeta par Suvichar, geeta ka Mahatm Anmol Vachan, Target Slogan in Hindi, 

यह भी पढें 👇👇👇👇👇👇👇
> श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य व अर्थ 
> श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का माहात्म्य व अर्थ 
> श्रीमद्भगवद्गीता के  तृतीय अध्याय का माहात्म्य व अर्थ 
> श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य व अर्थ 
>श्रीमद्भगवद्गीता के पञ्चम अध्याय का माहात्म्य व अर्थ
> श्रीमद्भगवद्गीता के षष्ठ अध्याय का माहात्म्य व अर्थ  
> श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय का माहात्म्य व अर्थ 
> श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टम अध्याय का माहात्म्य 
> श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय का माहात्म्य 

दोस्तों श्रीमद्भागवत गीता के माहात्म्य का बहुत ही बडा महत्व है, इस माहात्म्य में अनेकों संदेश छिपे हुए है ,अनेकों रहस्य छुपे हुए है,  जिसका अध्ययन करके हम अपने जीव के सार को समझ सकते है। श्रीमद्भागवत  गीता स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए वचन है,जो असत्य नही हो सकते है, और मनुष्य के लिए गीता के माहात्म्य, गीता के अर्थ को जानना बहुत ही आवश्यक है।  गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है,भय शोकादिवर्जित:। वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा (गीता माहात्म्य  प्रथम अध्याय )।

इससे पहले हमने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।
आइए हम आपके लिए गीता के अध्याय एक का माहात्म्य, अर्थ व सार लेकर आए है,जिसका आधार ग्रंथ स्वयं गीता ही है।आशा है आप इसके महत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयास करेंगे।

श्रीमद्भगवद्गीताके दसवें अध्यायका माहात्म्य -

भगवान् शिव कहते हैं -
सुन्दरि ! अब तुम दशम अध्यायके माहात्म्यकी परमपावन कथा सुनो , जो स्वर्गरूपी दुर्गमें जानेके लिये सुन्दर सोपान और प्रभावकी चरम सीमा है । काशीपुरीमें धीरबुद्धि नामसे विख्यात एक ब्राह्मण था , जो मुझमें प्रिय नन्दीके समान भक्ति रखता था । वह पावन कीर्तिके अर्जनमें तत्पर रहनेवाला , शान्तचित्त और हिंसा , कठोरता एवं दुःसाहससे दूर रहनेवाला था । जितेन्द्रिय होनेके कारण वह निवृत्ति मार्गमें ही स्थित रहता था । उसने वेदरूपी समुद्रका पार पा लिया था । वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके तात्पर्यका ज्ञाता था । उसका चित्त सदा मेरे ध्यानमें संलग्न रहता था । वह मनको अन्तरात्मामें लगाकर सदा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किया करता था ; अतः जब वह चलने लगता , तब मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़ - दौड़कर उसे हाथका सहारा देता रहता था ।

यह देख मेरे पार्षद भृङ्गिरिटिने पूछा - भगवन् ! इस प्रकार भला , किसने आपका दर्शन किया होगा । इस महात्माने कौन - सा तप , होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पद - पदपर इसे हाथका सहारा देते चलते हैं ?

भृङ्गिरिटिका यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया । एक समयकी बात है , कैलासपर्वतके पार्श्वभागमें पुन्नाग वनके भीतर चन्द्रमाकी अमृतमयी किरणोंसे धुली हुई भूमिमें एक वेदीका आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था । मेरे बैठनेके क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोरकी आँधी उठी , वहाँके वृक्षोंकी शाखाएँ नीचे - ऊपर होकर आपसमें टकराने लगीं , कितनी ही टहनियाँ टूट - टूटकर बिखर गयीं । पर्वतकी अविचल छाया भी हिलने लगी । इसके बाद वहाँ महान् भयंकर शब्द हुआ , जिससे पर्वतकी कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं । तदनन्तर आकाशसे कोई विशाल पक्षी उतरा , जिसकी कान्ति काले मेघके समान थी । वह कज्जलकी राशि , अन्धकारके वह समूह अथवा पंख कटे काले पर्वत - सा जान पड़ता था । पैरोंसे पृथ्वीका सहारा लेकर उस पक्षीने मुझे किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणोंमें रखकर स्पष्ट वाणीमें स्तुति करनी आरम्भ की ।

पक्षी बोला -
देव ! आपकी जय हो । आप चिदानन्दमयी सुधाके सागर तथा जगत्के पालक हैं । सदा सद्भावनासे युक्त एवं अनासक्तिकी लहरोंसे उल्लसित हैं । आपके वैभवका कहीं अन्त नहीं है । आपकी जय हो । अद्वैतवासनासे परिपूर्ण बुद्धिके द्वारा आप त्रिविध मलोंसे रहित हैं । आप जितेन्द्रिय भक्तोंके अधीन रहते हैं तथा ध्यानमें आपके स्वरूपका साक्षात्कार होता है । आप अविद्यामय उपाधिसे रहित , नित्यमुक्त , निराकार , निरामय , असीम , अहंकारशून्य , आवरणरहित और निर्गुण हैं । आपके चरणकमल शरणागत भक्तोंकी रक्षा करने में प्रवीण हैं ।

अपने भयंकर ललाटरूपी महासर्पकी विषज्वालासे आपने कामदेवको भस्म किया है । आपकी जय हो । आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं । आपको बार - बार नमस्कार है । चैतन्यके स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है । मैं श्रेष्ठ योगियोंद्वारा चुम्बित आपके उन चरण - कमलोंकी वन्दना करता हूँ , जो अपार भव - पापके समुद्रसे पार उतारनेमें अद्भुत शक्तिशाली हैं । महादेव ! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेकी धृष्टता नहीं कर सकते । सहस्त्र मुखोंवाले नागराज शेषमें भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणोंका वर्णन कर सकें । फिर मेरे - जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षीकी तो बिसात ही क्या है ।

उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा
 विहङ्गम ! तुम कौन हो और कहाँसे आये हो ? तुम्हारी आकृति तो हंस - जैसी है , मगर रंग कौएका मिला है । तुम जिस प्रयोजनको लेकर यहाँ आये हो , उसे बताओ ।

पक्षी बोला -
देवेश ! मुझे ब्रह्माजीका हंस जानिये । धूर्जटे ! जिस कर्मसे मेरे शरीरमें इस समय कालिमा आ गयी है , उसे सुनिये । प्रभो ! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं [ अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं है ] तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ । सौराष्ट्र ( सूरत ) नगरके पास एक सुन्दर सरोवर है , जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं । उसीमेंसे बालचन्द्रमाके टुकड़े - जैसे श्वेत मृणालोंके ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गतिसे आकाशमें उड़ रहा था । उड़ते - उड़ते सहसा वहाँसे पृथ्वीपर गिर पड़ा । जब होशमें आया और अपने गिरनेका कोई कारण न देख सका तो मन - ही - मन सोचने लगा - ' अहो ! यह मुझपर क्या आ पड़ा ? आज मेरा पतन कैसे हो गया ? ' पके हुए कपूरके समान मेरे श्वेत शरीरमें यह कालिमा कैसे आ गयी ?

इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरेके कमलोंमेंसे मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी - ' हंस ! उठो , मैं तुम्हारे गिरने और काले होनेका कारण बताती हूँ । ' तब मैं उठकर सरोवरके बीच में गया और वहाँ पाँच कमलोंसे युक्त एक सुन्दर कमलिनीको देखा । उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतनका सारा कारण पूछा ।

कमलिनी बोली -
कलहंस ! तुम आकाशमार्गसे मुझे लाँघकर गये हो , उसी पातकके परिणामवश तुम्हें पृथ्वीपर गिरना पड़ा है तथा उसीके कारण तुम्हारे शरीरमें कालिमा दिखायी देती है । तुम्हें गिरा देख मेरे हृदयमें दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमलके द्वारा बोलने लगी हूँ , उस समय मेरे मुखसे निकली हुई सुगन्धको सूंघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये हैं । पक्षिराज ! जिस कारण मुझमें इतना वैभव - ऐसा प्रभाव आया है , उसे बतलाती हूँ ; सुनो । इस जन्मसे पहले तीसरे जन्ममें मैं इस पृथ्वीपर एक ब्राह्मणकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई थी ।

उस समय मेरा नाम सरोजवदना था । मैं गुरुजनोंकी सेवा करती सदा एकमात्र पातिव्रतके पालनमें तत्पर रहती थी । एक दिनकी बात है , मैं एक मैनाको पढ़ा रही थी । इससे पतिसेवामें कुछ विलम्ब हो गया । इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया ' पापिनी ! तू मैना हो जा । ' मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई , तथापि पातिव्रत्यके प्रसादसे मुनियोंके ही घरमें मुझे आश्रय मिला । किसी मुनिकन्याने मेरा पालन - पोषण किया । मैं जिनके घरमें थी , वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीताके दसवें अध्यायका पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुना करती थी । विहङ्गम ! काल आनेपर मैं मैनाका शरीर छोड़कर दशम अध्यायके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें अप्सरा हुई । मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्माकी प्यारी सखी हो गयी ।

एक दिन मैं विमानसे आकाशमें विचर रही थी । उस समय सुन्दर कमलोंसे सुशोभित इस रमणीय सरोवरपर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की , त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके । उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया । उनके भयसे मैंने स्वयं ही एक कमलिनीका रूप धारण कर लिया । मेरे दोनों पैर दो कमल हुए । दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अङ्गोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ । इस प्रकार मैं पाँच कमलोंसे युक्त हुई । मुनिवर दुर्वासाने मुझे देखा । उनके नेत्र क्रोधाग्निसे जल रहे थे । वे बोले - ' पापिनी ! तू इसी रूपमें सौ वर्षोंतक पड़ी रह । ' यह शाप देकर वे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये ।

कमलिनी होनेपर भी विभूतियोगाध्यायके माहात्म्यसे मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है । मुझे लाँघनेमात्रके अपराधसे तुम पृथ्वीपर गिरे हो । पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शापकी निवृत्ति हो रही है , क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये । मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम अध्यायको तुम भी सुन लो । उसके श्रवणमात्रसे तुम भी आज ही मुक्त हो जाओगे ।

यों कहकर पद्मिनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणीमें दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी । उसे सुननेके बाद उसीके दिये हुए इस उत्तम कमलको लाकर मैंने आपको अर्पण किया है ।

इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया । यह एक अद्भुत - सी घटना हुई । वही पक्षी अब दसवें अध्यायके प्रभावसे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ है । जन्मसे ही अभ्यास होनेके कारण शैशवावस्थासे ही इसके मुखसे सदा गीताके दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है । दसवें अध्यायके अर्थ - चिन्तनका यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतोंमें स्थित शङ्ख - चक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है । इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारीके शरीरपर पड़ जाती है , तब वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो , मुक्त हो जाता है । तथा पूर्वजन्ममें अभ्यास किये हुए दसवें अध्यायके माहात्म्यसे इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है । अत : जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ । भृङ्गिरिटे ! यह सब दसवें अध्यायकी ही महामहिमा है ।

पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृङ्गिरिटिके सामने जो पापनाशक कथा कही थी , वही यहाँ तुमसे भी कही है । नर हो या नारी अथवा कोई भी क्यों न हो , इस दसवें अध्यायके श्रवणमात्रसे उसे सब आश्रमोंके पालनका फल प्राप्त होता है ।


अन्य सम्बन्धित लेख साहित्य---


0 comments: