Friday 7 August 2020

अष्टादशश्लोकी गीता,गीता के इन 18 श्लोकों में ही छिपा है पूरी गीता का सार,महत्व एवं अर्थ / Ashtadashshloki Geeta,/The essence, significance and meaning of the entire Gita is hidden in these 18 verses of the Gita

अष्टादशश्लोकी गीता,गीता के इन 18 श्लोकों में ही छिपा है पूरी गीता का सार,महत्व एवं अर्थ 
Ashtadashshloki Geeta,/The essence, significance and meaning of the entire Gita is hidden in these 18 verses of the Gita

श्रीमद्भागवत गीता के 18 अध्याय में से केवल 18 श्लोकों में ही समस्त गीता का रहस्य , गीता के कर्म वचन और गीता का सार निहित है। मनुष्य के समस्त सवालों का जवाब दीजिए ताकि में छिपा हुआ है जो भी मनुष्य अपने पथ से भटक जाता है वह इस गीता के माध्यम से अपनी समस्या समाधान कर सकता है दोस्तों इन 18 श्लोकों में श्री कृष्ण ने अर्जुन को और समस्त संसार को ऐसा संदेश दिया है, जो किसी के भी जीवन को सफलता की ओर ले जा सकता है और इस लोगों का मनन करके वह अपने जीवन को साकार कर सकता है श्रीमद्भागवत गीता के 18 श्लोक में इसका सार छुपा हुआ है, निष्कर्ष यह है जो कोई भी पूरी गीता को नहीं पढ़ पाता है वह इन 18 श्लोंकों की गीता का नित्य पाठ करने से अपने कर्मों को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है ।

👉इससे पहले हमने सम्पूर्ण गीता का अर्थ व सार सरल एवं भावप्रद शब्दों में लिखा है👎👎

श्रीमद्भगवद्गीता  प्रथम ,द्वितीय , तृृतीय ,चतुर्थ ,पञ्चम,षष्ठ,सप्तम् , अष्टम , नवम ,  दशम  एकादश ,द्वादश  , त्रयोदश,  चतुर्दश पञ्चदश , षोडष , सप्तदश ,अष्टादश अध्याय अर्थ, माहात्म्य, उपदेश, सुविचार तथा सार
 बताया है।

अष्टादशश्लोकी गीता 

अर्जुन उवाच 

श्लोक -१

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव  

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्त्वा स्वजनमाहवे ।।

भावार्थ - हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ , तथा युद्ध में स्वजन - समुदाय को मार कर कल्याण भी नहीं देखता ।  


श्री भगवानुवाच 

श्लोक -२

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । 

सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।

भावार्थ -  हे धनञ्जय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर । समत्वभाव ही योग नाम से कहा जाता है । 


श्लोक -३ 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्  

इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते   ।।

भावार्थ -  जो मूढ़बुद्धि पुरुष समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ( ऊपर से ) रोककर उन इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता रहता है , वह मिथ्याचारी अर्थात् पाखण्डी कहा जाता है । 


श्लोक - ४

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः       

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।

भावार्थ -  जितेन्द्रिय ( साधन परायण ) हुआ श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है । तथा ज्ञान को प्राप्त कर वह बिना विलम्ब के तत्क्षण ही परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है । 


श्लोक -५

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः          । 

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।।

भावार्थ -  जिसकी इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि जीती हुई है , ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा , भय और क्रोध से रहित हो गया है , वह सदा मुक्त ही है ।  


श्लोक -६

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु         । 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु : खहा ।।

भावार्थ -  यथायोग्य आहार - विहार , यथायोग्य चेष्टा और यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले को ही यह दुःखनाशक योग सिद्ध होता है ।


श्लोक - ७

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया   

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।

भावार्थ -  मेरी यह अलौकिक अर्थात् अद्भुत त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है , इसलिए जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं , वे इस माया को लाँघ जाते हैं । 


श्लोक - ८

अग्निोतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्   

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।।

भावार्थ -  जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि , दिन , शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छह महीने , इन सबके अभिमानी देवता हैं , उस मार्ग में मर कर गए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उन देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । 


श्लोक - ९

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्    

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।

भावार्थ -  यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मुझ को निरन्तर भजता है , तो वह भी साधु ही मानने योग्य है क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है , अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है । 


श्लोक - १०

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्  । 

असंमूढः स मत्र्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते   ।।

भावार्थ -  जो मुझे अजन्मा ( जन्मरहित ) और अनादि तथा लोकों का महान् ईश्वर रूप से जानता है , वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सभी पापों से मुक्त हो जाता है । 


श्लोक - ११

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संङ्गवर्जितः  

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।।

भावार्थ -  हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए यज्ञ , दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है , मेरे परायण है , तथा मेरा भक्त है , अर्थात् मेरे नाम , गुण , प्रभाव , और रहस्य के श्रवण , कीर्तन , मनन , ध्यान का प्रेमभाव से अभ्यास करने वाला है , आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति वैरभाव से रहित है , ऐसा वह भक्ति वाला पुरुष मुझ को ही प्राप्त होता है । 


श्लोक -१२

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यसाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।

भावार्थ -  मर्म न जानकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्ष से मुझ परमेश्वर के रूप का ध्यान श्रेष्ठ है । ध्यान से भी सब कर्मों के फल का मेरे लिए त्याग श्रेष्ठ है , क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है । 


श्लोक - १३

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । 

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम  ।।

भावार्थ -   हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा मुझ को ही जान और क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है , वही ज्ञान है , ऐसा मेरा मत है । 


श्लोक - १४

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते    

स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।

भावार्थ -  जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग द्वारा मुझे निरन्तर भजता है , वह इन तीनों गुणों को लाँघ कर ब्रह्म से एकत्व के योग्य होता है । 


श्लोक - १५

निर्मानमोहा जितसङ्गन्दोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदु : खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।

भावार्थ -   जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है तथा आसक्तिरूप दोष जिन्होंने जीत लिया है और जिनकी नित्य स्थिति परमात्मा के स्वरूप में है तथा जिनकी कामना भली प्रकार से नष्ट हो गयी है , ऐसे वे सुख - दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं । 


श्लोक - १६

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः    । 

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।

भावार्थ -  जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है , वह न तो सिद्ध को , न परम गति को और न सुख को ही प्राप्त होता है । 


श्लोक - १७

मन : प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः  

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते      ।।

भावार्थ  मन की प्रसन्नता , शान्त भाव , भगवत् चिन्तन करने का स्वभाव , मन का निग्रह और अन्त : करण के भावों की भली भाँति पवित्रता - ऐसे ये मन - सम्बन्धी तप कहे जाते हैं । 


श्लोक - १८

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज           

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

भावार्थ -   संपूर्ण धर्मों को अर्थात् संपूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा । तू शोक मत कर ।



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