Monday 28 December 2020

संस्कृत मे 21 महा सूक्तियों का रहस्य? जिसमे छिपा है सफलता का द्वार/The secret of 21 great stories in Sanskrit, in which the door to success is hidden

संस्कृत मे 21 महा सूक्तियों का रहस्य? जिसमे छिपा है सफलता का द्वार/The secret of 21 great stories in Sanskrit, in which the door to success is hidden

जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार से विविध ज्ञान एवं धर्मग्रंथों, श्लोकों, व आदर्श वचनों का एक ही तत्त्व की सीख देते है, और उनका एक ही मकसद होता है, श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करना। अत: इसी प्रकार संस्कृत श्लोक ज्ञानवर्धक और शिक्षा प्रद कथनों को इस "संस्कृत सुभाषितानि" में हिन्दी अर्थ, संस्कृत भावार्थ सहित समाहित करने का छोटा सा प्रयास किया गया है।Sanskrit sloks with meaning in hindi धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं।

सूक्ति- ( १ ) 

जगतः ( संसारस्य ) सृष्टा निर्माता एकः एव ईश्वरः अस्ति । 

भावार्थ - जगत को रचने वाला एक ही है । अर्थात् संसार में हमें जो असंख्य वस्तुएँ दिखती हैं , प्राणियों की जो असंख्य जातियों और उनके विविध रंग - रुप दिखते हैं , उन सबकी रचना एक ही ईश्वर ने की है । आशय यही है कि संसार में एक ही सर्वोच्च सत्ता है - ईश्वर । वही इसका स्रष्टा और विनाशक है । ईश्वर , अल्लाह , राम , रहीम आदि उसके विभिन्न नामकरण हमारे द्वारा किए गए हैं । ये सब अलग - अलग नहीं हैं , वरन् एक ही तत्त्व के विभिन्न नाम हैं ।

सूक्ति - (2)

`` क्षणे -क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया: ,,

भावार्थ - जो व्यक्ति हर समय नवीनता को धारण करता है। और नये नये ज्ञान को सीखने के लिए उसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है। वही रमणीयता का स्वरूप है।

सूक्ति - (3) 

``एकतायाः बलम् एव सर्वोत्तमं बलम् अस्ति लोके ।,,

भावार्थ - इस संसार में एकता ही सबसे बड़ी शक्ति है । अर्थात् कोई कार्य कितना ही बड़ा , कठिन अथवा असम्भव - सा लगता हो , उसको एकता के बल से अतिलघु , सरल अथवा सम्भव बनाया जा सकता है । एक अकेली चींटी भले ही कुछ न कर पाए . किन्तु हजारों चीटियाँ मिलकर पर्वत को खोखला कर सकती हैं । एक तिनका भले ही हवा के झोंके में स्वयं को न रोक पाए . किन्तु हजारों तिनके जब रस्सी के रुप में एक होते हैं तो मदमस्त हाथी को भी रोकने में समर्थ होते हैं । इस प्रकार एकता संसार का सबसे बड़ा बल है । 

सूक्ति - (4) 

``किमिव ही मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।,,

भावार्थ - सुन्दर आकृतियों के लिए कोई वस्तु अलंकार नहीँ होती है, उनकी वास्तविकता ही असल सृंगार है। उनका भाव आंतरिक रूप से पवित्र और पावन होता है।

सूक्ति -(5) 

``गुणी पुरुषः एव गुणान् जानाति गुणरहितः न ।,,

भावार्थ - गुणी ही गुणों को जानता है गुणहीन व्यक्ति नहीं । अर्थात् गुणी व्यक्ति ही गुणों के महत्व को समझ सकता है परन्तु गुणहीन व्यक्ति गुणों के न होने के कारण गुण के महत्व कैसे समझ सकता है ? 

सूक्ति - (6)

``जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।,,

भावार्थ - जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान होती है। उसकी पवित्रता हमारे अन्दर विद्यमान होता है, वह भूमि माता की तरह हमारी रक्षा करती है। हम सभी उसके पुत्र है।

सूक्ति -(7)

 ``देशभक्तः निजप्राणान् तृणमिव तुच्छं मन्यते ।,,

भावार्थ - देशभक्त अपने प्राणों को तिनके के समान समझता है । अर्थात् देशभक्त कभी भी अपनी प्राणों की चिन्ता नहीं करते , उनके लिए देश और मानवता का हित ही सर्वोपरि होता है । यदि देश और मानवता की रक्षा प्राण देकर हो सकती है तो वे इसमें तनिक भी संकोच नहीं करते और अपने प्राणीको तिनके के समान देश और मानवता पर न्यौछावर कर देते हैं ।

सूक्ति - (8)

``विभूषणम् मौनमपण्डितानाम।,,

भावार्थ - मूर्खो का मौन रहना ही सबसे बडा आभूषण है। क्योंकि अगर वह बोलेगा तो वह अपवाद ही बनेगा और लोग उसे बुरा कहेंगे।

सूक्ति - (9) 

``सज्जनानां वाणी कस्य मनः न हरति अर्थात् सर्वेषां मनांसि हरति एव।,,

भावार्थ - सज्जनों की वाणी किसके मन को नहीं हरती है ? सभी को मनोहारी लगती है अर्थात् सज्जन अत्यन्त विनम्र और संस्कारवान होते हैं । उनकी वाणी अत्यन्त मधुर और सबका कल्याण करने वाली होती है । इसीलिए वह सबको प्रिय होती है । 

सूक्ति - (10) 

``को नामोष्णोदकेन नवमालिकाम् सिञ्चति ।,,

भावार्थ - प्रियंवदा कहती है,कि कौन नवमालिका को गर्म जल से सींचना चाहेगा।

सूक्ति - (11)

धर्मवृद्धानां वयः आयुः न गण्यते ।,,

भावार्थ - धर्मवृद्धों की आयु नहीं देखी जाती है । अर्थात् धर्मपालन७ के प्रति निष्ठा रखने वाले लोगों की आयु पर ध्यान नहीं दिया जाता ; क्योंकि यह व्यक्ति की स्वयं की निष्ठा और दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है । धर्मनिष्ठ होने के | लिए व्यक्ति का बूढ़ा होना आवश्यक नहीं है अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्येक बूढ़ा व्यक्ति धर्मनिष्ठ हो , यह आवश्यक नहीं है और प्रत्येक युवा धर्म से विमुख हो यह भी आवश्यक नहीं है । एक युवा और वृद्ध समान रूप से धर्मनिष्ठ अथवा धर्मविमुख / धर्मच्युत हो सकते हैं । 

सूक्ति - (12)

``दुखशीले तपस्विजने कोऽभ्यर्थ्यताम् ।,,

भावार्थ - कष्ट सहन करने वाले तपस्वियों में से किससे प्रार्थना करें, क्योंकि अन्य मनुष्य के अन्दर न तो वह धृति है और न धारणा है।

सूक्ति -(13)

``मानवः संसारे गुणैः पूज्यते न तु उच्चकुले जन्म ग्रहणात् ।,,

भावार्थ - संसार में मनुष्य गुणों के कारण सम्मानित होता है न कि जन्म के कारण । अर्थात् संसार में गुणों की पूजा होती है ; अतः वही व्यक्ति पूजा जाता है अथवा सब जगह सम्मान पाता है , जो गुणवान् होता है । किसी विशिष्ट कुल अथवा जाति में जन्म लेने से कोई व्यक्ति सम्मान पाने का अधिकारी नहीं हो जाता ।

सूक्ति - (14) 

`` धैर्यधना हि साधवा:।,,

भावार्थ - सज्जन लोगों का धैर्य ही सबसे बढा धन होता है,उनका भौतिक वाद से कोई वास्ता नहीं होता है।

सूक्ति - (15)

``यः पंचविंशतिं वर्षाणि यावत् ब्रह्मचर्यव्रतस्य पालनं करोति सः अमरः ।,, 

भावार्थ - जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है , वह अमर हो जाता है ? अर्थात् जो व्यक्ति पच्चीस वर्षों तक नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है , उसमें देवताओं के समान ओज , कान्ति , बल तथा स्फूर्ति उत्पन्न हो जाते हैं । वह उनके द्वारा संसार में ऐसे कार्य कर जाता है कि लोग मरने के बाद भी उसका स्मरण करते हैं । इस प्रकार वह व्यक्ति अपने यशःशरीर से संसार में अमर हो जाता है ।

सूक्ति -(16)

`` भोगीव मन्त्रोषधिरूद्धवीर्य:।,,

भावार्थ - हाथ के रूक जाने से बढे हुए क्रोध वाले राजा दिलीप ,मंत्र और औषधी से बांध दिया गया है। पराक्रम जिसका ,ऐसे सांप की भांती समीप मे स्थित अपराधी को नहीँ स्पर्श करते हुए अपने तेज से भीतर जलने लगे।

सूक्ति - (17)

``मनुष्याणां यदि अन्तः क्रोधः अस्ति तर्हि शत्रुभिः कि प्रयोजनम् ।,,

भावार्थ - यदि मनुष्य क्रोधी स्वभाव का है तो उसे शत्रुओं से क्या ? अर्थात् यदि व्यक्ति में क्रोध है तो उसे अन्य शत्रुओं से क्या लेना - देना , उसके विनाश के लिए तो उसके भीतर स्थित एकमात्र शत्रु क्रोध ही पर्याप्त है । क्रोधी व्यक्ति को अपने विनाश के लिए शत्रुओं की आवश्यकता नहीं होती ; क्योंकि क्रोध व्यक्ति के लिए संसार का सबसे बड़ा शत्रु हैं । 

सूक्ति -(18)

``अकारणपक्षपातिनं भवन्तम् द्रष्ट्म इच्छति में हृदयं ।,,

भावार्थ - केयूरत महास्वेता का संदेश चंद्रापीड को देते हुए कहता है कि आपके प्रति मेरा स्नेह स्वार्थ रहित है फिर भी आपसे मिलने के लिए उत्कण्ठा हो रही है।

सूक्ति- (19) 

``कल्याणकारिणी मनोहारिणी च वाणी दुर्लभा ।,,

भावार्थ - कल्याणकारी और मनोहारी वचन दुर्लभ है । अर्थात् संसार में ऐसे व्यक्ति बड़ी कठिनाई से मिलते हैं , जो व्यक्ति के कल्याण की बात भी करें और उसकी बातें सम्बन्धित व्यक्ति को अच्छी भी लगें । इसीलिए सच्चाई को कडुवा कहा गया है । केवल मीठी बातें करने वाला व्यक्ति हितकारी नहीं हो सकता । सच्चा हितैषी वही होता है , जो इस बात की चिन्ता नहीं करता कि मेरी कडुवी और सच्ची बात से सामने वाला व्यक्ति नाराज होगा , वह उसकी नाराजगी की चिन्ता किए बिना वही बात कहता है , जिसमें उसका हित होता है । ऐसी मधुर और कल्याणकारी बातें उसी प्रकार दुर्लभ हैं , जैसे मीठी और कल्याणकारी औषधि का मिलना कठिन होता है । 

सूक्ति -20- 

`` अनतिक्रमणीया नियतिरिति ।,,

भावार्थ - मनुष्य की नियति अक्रमणीय होती है। अर्थात होनी को नहीँ टाला जा सकता है। वह तो हो कर ही रहेगी।

सूक्ति - (21 ) 

``सर्वेषां कार्याणां धर्माणां साधनरूपं शरीरमेव प्रथमम् इति ।,,

भावार्थ - शरीर ही सभी धर्मों का क्रियान्वित करने का पहला साधन है । अर्थात् व्यक्ति के लिए इस संसार में उसका शरीर ही सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है । जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति माना गया है और मोक्ष - प्राप्ति का एकमात्र साधन धर्मपालन को बताया गया है , किन्तु धर्मपालन के लिए व्यक्ति के शरीर का सब प्रकार से स्वस्थ होना आवश्यक है , क्योंकि अस्वस्थ व्यक्ति कोई भी कार्य ठीक से कर पाने में असमर्थ होता है ।

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