Friday 28 January 2022

Shanivar vrat katha शनिवार व्रत कथा, विधि विधान, नियम एवं उद्यापन करने की विधि

जय श्री कृष्ण दोस्तों आज हम Shanivar Vrat Katha का विस्तृत वर्णन करेंगे। शनि देव को ग्रहों का राजा कहा जाता है। और शनि न्याय के देवता भी माने जाते है। शनि देव को बहुत जल्दी क्रोध आता है। शनिदेव साढेसाती और ढैया पर जातक कष्ट देते है। अपने क्रोधी स्वभाव के कारण पिता सूर्य से इनकी नाराजगी बनी रहती है। इनके क्रोध से सभी बचने की कोशिश करते हैं, और इन्हें शान्त करना भी इतना आसान नहीं है। इसलिए इन्हें प्रसन्न करने के लिए शनिवार व्रत रखा जाता है। शनि कृपा से व्यक्ति को सुख और वैभव की प्राप्ति होती है।

Shanivar vrat katha शनिवार व्रत कथा, विधि विधान, नियम एवं उद्यापन करने की विधि 

शनिवार व्रत का विधान अधिकांश व्यक्ति इस मिथ्या भ्रम से ग्रसित हैं कि शनि देव एक क्रूर , धन - सम्पत्ति के हरणकर्ता और अनिष्टकारक देव हैं । परन्तु यह तो उनकी शक्तियों का एक पक्ष है , दूसरी ओर अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाले अत्यन्त कृपालु देवता भी हैं श्री शनि देव । राजा को रंक और रंक को राजा , कोढ़ी को कमनीय काया का स्वामी और दुराचारी को श्रीसम्पन्न धर्मात्मा बनाना श्री शनि देव के लिए सहज सम्भव है । 

शनिवार का व्रत लगातार तैंतीस शनिवारों तक किया जाता है । यद्यपि किसी भी शनिवार से व्रत प्रारम्भ किया जा सकता है , परन्तु श्रावण मास के शनिवार से प्रारम्भ करना विशेष लाभदायक रहता है । घर अथवा मन्दिर के बजाय पीपल या रेशम वृक्ष के नीचे बैठकर शनि देव का पूजन करना अधिक लाभदायक है । शमी अथवा पीपल के वृक्ष के नीचे गोबर से लीपकर वेदी बनाने के बाद वहाँ लोहे की बनी श्री शनि देव की मूर्ति अथवा यन्त्र स्थापित करके उसकी पूर्ण विधि - विधानपूर्वक पूजा करनी चाहिए । काले रंग से रंगे चावलों से चौबीस दल का कमल बनाकर मूर्ति स्थापित करने , सरसों के तेल का दीपक जलाने और पूजा में काले रंग की वस्तुओं का प्रयोग करने पर श्री शनि देव परम प्रसन्न होते हैं । शनि पूजन में शनि देव की मूर्ति या शनि यन्त्र का पूजन किया जाता है ।  

१- कोणस्थ                  २- पिंगल 

३- वभ्रु                         ४- कृष्ण 

५- रौद्रान्तक                  ६- यम 

७- सौर                         ८- शनिश्चर 

९ - मन्द                       १०- पिप्पला

ये दस शनि देव के विशिष्ट नाम हैं अतः पूजा के अन्त में इन दसों नामों के साथ नमः लगाकर शनि देव को नमन किया जाता है । जिस वृक्ष के नीचे बैठकर आपने शनि देव का पूजन किया है उसकी सात परिक्रमा देते हुए सूत के धागे को सात बार लपेटें । शनि देव को पहले शनिवार को उड़द व भात का , दूसरे को खीर का , तीसरे को खजला का , चौथे को पूरियों और पाँचवें को तिल के लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए । शनि का दान तेल माँगने वाले भड्डरी को दिया जाता है और वह भी मध्यान्तर बारह बजे । सरसों के तेल , ताँबे के सिक्कों , काले तिलों , काले उड़द , लोहा , काले वस्त्र , भैंस या काली गऊ का दान देने का विधान है । 

ॐ शं शनैश्चराय नम : ' यह शनि देव का विशिष्ट मन्त्र है । पूजन के बाद इसकी एक माला तो जपनी ही चाहिए । 

शनिवार व्रत का उद्यापन-    तेतीसवें शनिवार को इस व्रत का उद्यापन किया जाता है । उद्यापन में तेतीस  ब्राह्मणों को भोजन कराके विशेष दान दिए जाते हैं । 

शनिवा व्रत का महत्व -

 शनिग्रह मन्द गति से भ्रमण करने वाला ग्रह है , इसे सूर्य की एक परिक्रमा करने में तीस वर्ष लगते हैं । इस प्रकार एक राशि पर इसकी दशा ढाई वर्ष पूर्ण वेग से रहती है जबकि आगे - पीछे की दो राशियाँ भी इससे प्रभावित रहती हैं । शनि देव के प्रकोप के इस काल में और अन्य समयों पर शनि देव के प्रकोप से बचने हेतु तो यह व्रत और शनि देव के निमित्त विशिष्ट वस्तुओं का दान किया ही जाता है । सामान्य रूप में वह व्रत करने पर भी परम प्रसन्न होते हैं । श्री शनि देव और अपने भक्त के सब कष्ट हरकर उसे हर प्रकार का सुख , वैभव , शक्ति , पुत्र - पौत्रादि प्रदान करते हैं । 

शनिवार व्रत कथा Shanivar vrat katha

एक समय सूर्य , चन्द्रमा , मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि , राहु और केतु इन नव ग्रहों में विवाद हो गया कि हममें सबसे बड़ा कौन है ? जब आपस में कोई निश्चय न हो सका तो सब देवराज इन्द्र के पास गए और कहने लगे कि आप सब देवताओं के राजा हैं , इसलिए आप हमारा न्याय करके बताएँ कि हम नव ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है ? राजा इन्द्र इनका प्रश्न सुनकर घबरा गए और कहने लगे कि मुझमें सामर्थ्य नहीं है जो किसी को बड़ा या छोटा बताऊँ । मैं अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता । हाँ , एक उपाय हो सकता है ।

 इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य बहुत बड़ा न्यायकर्ता है , अतः आप सब जाकर उनसे फैसला करा लो । यह सुनकर सभी ग्रह देवता चलकर भू - लोक में राजा विक्रमादित्य की सभा में आकर उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा । राजा उनकी बात सुनकर बड़ी चिन्ता में पड़ गए कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसको छोटा बताऊँगा वही क्रोध करेगा । परन्तु उनका झगड़ा निपटाने के लिए राजा ने एक उपाय सोचा और उसने सोना , चाँदी , काँसा , पीतल , शीशा , राँगा , जस्ता , अभ्रक और लोहा धातुओं के नौ आसन बनवाये । सब आसनों को क्रम से जैसे सोना सबसे पहले और लोहा सबसे पीछे बिछाए । इसके पश्चात् राजा ने सब ग्रहों से कहा कि आप सब अपने - अपने आसनों पर बैठ जाएँ । जिसका आसन सबसे आगे वह सबसे बड़ा और जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानें । क्योंकि लोहा सबसे पीछे था और वह शनि देव का आसन था इसलिए शनि देव ने समझ लिया कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है । 

इस पर शनि को क्रोध आया और उसने कहा कि राजा तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता । सूर्य एक राशि पर एक महीना , चन्द्रमा सवा दो दिन , मंगल डेढ़ महीना , बृहस्पति तेरह महीने , बुध और शुक्र एक महीने , राहू और केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल अठारह महीने रहते हैं परन्तु मैं एक राशि पर ढाई और साढ़े सात साल तक रहता हूँ । बड़े - बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुःख दिया है । रामजी को साढ़े साती आई तो वनवास हो गया और रावण को आई तो राम और लक्ष्मण ने सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी । रावण के कुल का नाश कर दिया ।

 हे राजा ! अब तुम सावधान रहना । राजा कहने लगा जो भाग्य में होगा देखा जाएगा । उसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ गए , परन्तु शनि देव बड़े क्रोध के साथ वहाँ से सिधारे । कुछ काल व्यतीत होने पर जब राजा को साढ़े साती की दशा आई तो शनि देव घोड़ों का सौदागर बनकर अनेक सुन्दर घोड़ों सहित राजा की राजधानी में आए । जब राजा ने सौदागर के आने की खबर सुनी तो अपने अश्वपाल को अच्छे - अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी । अश्वपाल ऐसे अच्छे नस्ल के घोड़े देखकर और उनका मूल्य सुनकर चकित हो गया और तुरन्त ही राजा को खबर दी । राजा उन घोड़ों को देखकर एक अच्छा सा घोड़ा चुनकर उस पर सवारी के लिए चढ़ा । राजा के पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा जोर से भागा । घोड़ा बहुत दूर एक बड़े जंगल में जाकर राजा को छोड़कर अन्तर्ध्यान हो गया ।इसके बाद राजा अकेला जंगल में भटकता रहा । 

बहुत देर के पश्चात् राजा ने भूख प्यास से दुःखी होकर भटकते - भटकते एक ग्वाले को देखा । ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया । राजा की उँगली में एक अंगूठी थी । वह उसने निकाल कर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और शहर की ओर चल दिया । राजा शहर में पहुँचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया और अपने आपको उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम वीका बतलाया । सेठ ने उसको कुलीन मनुष्य समझकर जल आदि पिलाया । भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बिक्री बहुत अधिक हुई तब सेठ उसको भाग्यवान पुरुष समझकर भोजन कराने के लिए अपने साथ ले गया । भोजन करते समय राजा ने एक आश्चर्य की बात देखी कि खूँटी पर हार लटक रहा है और वह खूँटी उस हार को निगल रही है । सेठ को कमरे में हार न मिला तो सबने यही निश्चय किया कि सिवाय वीका के और कोई इस कमरे में नहीं आया , अतः अवश्य ही उसी ने हार चोरी किया है । पाँच - सात आदमी इकट्ठे होकर उसको फौजदार के पास ले गए । 

फौजदार ने उसको राजा के सामने उपस्थित करदिया और कहा कि ये आदमी तो भला प्रतीत होता है , चोर नहीं मालूम होता परन्तु सेठ का कहना है कि इसके सिवाय और कोई घर में आया ही नहीं , अवश्य ही इसी ने चोरी की है । तब राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ - पैर काटकर चौरंगिया किया जाए ।

 राजा की आज्ञा का तुरन्त पालन किया गया और वीका के हाथ पैर काट दिए गए । कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया । वीका कोल्हू पर बैठा हुआ अपनी जुबान से बैल हाँकता रहता । कुछ वर्षों में शनि की दशा समाप्त हो गई । एक रात को वह वर्षा ऋतु के समय मल्हार राग गाने लगा । उसका गाना सुनकर उस शहर के राजा की कन्या उस राग पर मोहित हो गई और दासी को खबर लाने के लिए भेजा कि शहर में कौन गा रहा है । दासी सारे शहर में फिरती - फिरती क्या देखती है कि एक तेली के घर में चौरंगिया राग गा रहा है । दासी ने महल में आकर राजकुमारी को सब वृतान्त सुना दिया । बस उसी क्षण राजकुमारी ने यह प्रण कर लिया चाहे कुछ हो मुझे इस चौरंगिया के साथ विवाह करना है । माता ने कहा- पगली यह क्या बात कह रही है । तुझको किसी देश के बड़े राजा के साथ परणाया जाएगा । कन्या कहने लगी कि माताजी मैं अपना प्रण कभी नहीं तोडूंगी । 

माता ने चिन्तित होकर यह बात राजा को – बताई । जब महाराज ने भी आकर यही समझाया कि मैं अभी देश - देशान्तर में अपने दूत भेजकर सुयोग्य , रूपवान एवं बड़े - से - बड़े गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूँगा , ऐसी बात तुमको कभी नहीं विचारनी चाहिए । कन्या ने कहा- पिताजी मैं अपने प्राण त्याग दूँगी परन्तु दूसरे से विवाह नहीं करूँगी । इतना सुनकर राजा ने क्रोध से कहा – यदि तेरे भाग्य में ऐसा ही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर । 

राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूँ । अपने घर जाकर विवाह की तैयारी करो । राजा ने उसी समय राजकुमारी का विवाह चौरंगिया विक्रमादित्य के साथ कर दिया । रात्रि को शनि देव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया । राजा देखो - मुझको छोटा बतलाकर तुमने दुःख उठाए । राजा ने क्षमा माँगी । शनि देव ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ - पैर दिए । तब राजा ने कहा महाराज मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें कि जैसा दुःख आपने मुझे दिया है ऐसा और किसी को न दें । 

शनि देव ने कहा कि तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है , जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा उसको मेरी दशा में कभी किसी प्रकार दुःख नहीं होगा और जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा और चींटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे । इतना कहकर शनि देव अपने धाम को चले गए । राजकुमारी की आँख खुली और उसने पति के हाथ - पाँव देखे तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । राजा ने अपना समस्त हाल कहा कि मैं उज्जैन का राजा विक्रमादित्य हूँ । यह बात सुनकर राजकुमारी अत्यन्त प्रसन्न हुई । प्रातःकाल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृतान्त कह सुनाया । सबने प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर ने आपकी मनोकामना पूर्ण कर दी । जब उस सेठ ने यह सुनी तो वह सेठ विक्रमादित्य के पास आया और उसके पैरों में गिरकर क्षमा माँगने लगा कि आप पर मैंने चोरी का दोष लगाया अतः आप मुझको जो चाहे दण्ड दें । राजा ने कहा मुझ पर शनि देव का प्रकोप था इसी कारण यह सब दुःख मुझको प्राप्त हुआ , इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं , तुम अपने घर जाकर अपना कार्य करो । सेठ बोला कि मुझे तभी शान्ति होगी जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेंगे । राजा ने कहा कि जैसी आपकी मरजी हो वैसा ही करें । सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के भोजन बनवाए और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया । जिस समय वे भोजन कर रहे थे एक अत्यन्त अश्चर्य की बात सबको दिखाई दी । 

जो खूँटी पहले हार निगल गई थी , वह अब हार उगल रही है । जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत - सी मोहरें राजा को भेंट की और कहा कि मेरे श्रीकँवरी नामक एक कन्या है उसका पाणिग्रहण आप करें । इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा दान - दहेज आदि दिया । कुछ दिनों तक वहाँ निवास करने के पश्चात् विक्रमादित्य ने शहर के राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है । 

राजा और सेठ से विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी , सेठ की कन्या श्रीकँवरी तथा दोनों जगह के दहेज में प्राप्त अनेक दास , दासी और पालकियों सहित विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले । जब शहर के निकट पहुँचे और पुरवासियों ने राजा के आने का सम्वाद सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा अगवानी के लिए आईं । बड़ी प्रसन्नता से राजा अपने महल में पधारे । सारे शहर में बड़ा भारी महोत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई । दूसरे दिन राजा ने शहर में यह सूचना कराई कि शनिश्चर देवता सब ग्रहों में सर्वोपरि हैं । मैंने इनको छोटा बतलाया इसी से मुझको यह दुःख प्राप्त हुआ । सारे शहर में प्रत्येक शनिवार को शनि देव की पूजा और कथा होने लगी और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही । ।

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