Tuesday 19 April 2022

Garud Puran in hindi गरूड पुराण कथा द्वितीय अध्याय हिन्दी में वैतरणी नदी का सच्च तथा कठिन यातनाओं का वर्णन

जय श्री कृष्ण दोस्तों आज हम गरुण पुराण Garuda Purana Chapter-2 in hindi के द्वितीय अध्याय हिन्दी में आपको बता रहे है। जिसमें यमलोक मार्ग तथा वैतरणी नदी का सम्पूर्ण वर्णन बताया गया है। दोस्तों हिन्दू धर्म के वेद पुराण में गरूड पुराण एक है । गरुण पुराण Garuda Puranam हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला है और इसीलिए मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण की कथा Garud Puran Katha के श्रवण का प्रावधान है। इस पुराण में मनुष्य को पाप कर्मों से बचने का प्रावधान बताया गया है। इस गरुण पुराण के अधिष्ठातृ देव भगवान विष्णु माने जाते हैं। (भगवान विष्णु तथा गरुड़ के संवाद में गरुड़ पुराण – पापी मनुष्यों की इस लोक तथा परलोक में होने वाली दुर्गति का वर्णन, दश गात्र के पिण्डदान से यातना देह का निर्माण।) इसीलिए यह गरूड पुराण हमें सत्कर्मों को करने के लिए प्रेरित करता है। गरूड पुराण प्रथम अध्याय हिन्दी 

Garud Puran in hindi गरूड पुराण कथा द्वितीय अध्याय हिन्दी में वैतरणी नदी का सच्च तथा कठिन यातनाओं का वर्णन

हिन्दी अर्थ गरुड़ पुराणं द्वितीय अध्याय गरुड़ ने कहा- हे केशव ! यमलोक का मार्ग किस प्रकार कष्ट देनेवाला होता है , वहाँ जिस प्रकार से पापी मनुष्य जाते हैं , वह हमसे कहने की कृपा करें || १ || ऐसा प्रश्न करने पर श्रीभगवान् कहते हैं कि , प्राणी को यमलोक का मार्ग बड़ा दु : ख | देनेवाला है , मैं तुमको बतलाता हूँ । ( तुम ) मेरे भक्तजन हो , तथापि सुनने से तुम कंपायमान हो जाओगे || २ || उस मार्ग में विश्राम लेने के लिये वृक्ष की छाया तक नहीं है तथा अन्नादि भी नहीं है , जिससे कि प्राणों की रक्षा हो सके ॥३ ॥ अत्यन्त तृषातुर प्राणी जलपान करें , ऐसी भी मार्ग में जगह नहीं है और साथ ही प्रलयकाल की भाँति बारहों सूर्य वहाँ तपते रहते हैं || ४ || उस मार्ग से जाता हुआ पापी मनुष्य कभी शीतल वायु से पीड़ित होता है तो कभी काँटों तथा महाविषधर सर्पों से आवेष्टित हो जाता है ॥५ ॥ कहीं उस पापी को बड़े भयानक व्याघ्र , शेर और कुत्ते भक्षण करते हैं , तो कहीं बिच्छू काटते हैं और कहीं अग्नि से जलाया जाता है || ६ || इसके बाद वह महाभयानक असिपत्र वन में पहुँचता है , जो दो सहस्र योजन लम्बा - चौड़ा है ॥७ ॥ वह वन कौआ , उल्लू , वट , गीध , मधुमक्खी , मच्छर आदि जीवों से तथा दावानल से व्याप्त है । असिपत्र वन के पत्र से वह प्रेत छिन्न - भिन्न हो जाता है | ॥ ८॥ फिर मार्ग में वह कहीं अंधकूप नरक में तो कहीं विकट पर्वत से गिर पड़ता है , कहीं तीक्ष्ण शस्त्र पर चलता है , किसी जगह नुकीली कीलों के ऊपर चलता है॥९॥ कभी भयानक अंधतम नरक में गिरता है तो कभी जल में गिर पड़ता है , कभी तो जोंकयुक्त कीचड़ में पड़ता है , कहीं संतप्त कर्दम ( जलते हुए कीचड़ ) नामक नरक में पड़ता है ॥१० ॥ कहीं बालुका से भरे हुए नरक में पड़ता है , कहीं अग्नि से तप्त ताम्रमय नरक में गिरता है , कहीं अग्नि के अंगार के समूह में पड़ता है , कहीं महान् धूम से भरे हुए नरक में पड़ता ॥ ११॥ फिर यममार्ग में जाते कहीं अंगार की वृष्टि होती है , कहीं लोहमय वज्र सहित स्थूल पत्थर की वर्षा होती है , कहीं रुधिर की वृष्टि , कहीं शस्त्र की वृष्टि होती है तो कहीं खौलते हुए जल की वर्षा होती है ।। १२ ||

हिन्दी अर्थ गरुड़ पुराणं द्वितीय अध्याय कभी भस्मसहित कीचड़ की वृष्टि होती है , कहीं बड़े गर्तखण्डों में प्रवेश करता है । कभी - कभी ऊँचे स्थान पर चढ़ता है , • कभी पर्वत की कन्दरा में प्रवेश करता है । १३॥ उस मार्ग में कहीं अत्यन्त अंधकार है , जहाँ कष्ट से चढ़ा जाय ऐसे बड़े पर्वत कहीं पूय - शोणित से व्याप्त और विष्टा से भरे हुए तालाब हैं | १४ || रास्ते के मध्य में बहने वाली ऐसी भयंकर वैतरणी नदी है , जिसकी कथा श्रवण करने से भय उत्पन्न होता है , तब देखने में कष्टकारक हो , इसमें क्या आश्चर्य है || १५ || वैतरणी नदी का सौ योजन विस्तार है । उसमें पूय और रुधिर बहते हैं , हड्डी से व्याप्त उसका तट है , मांस और शोणित के कर्दम से युक्त है । और बहुत ऊँची है , मनुष्य तैर नहीं सकते , केशरूपी शैवाल से दुर्गम है और बड़े - बड़े मगरमच्छादि से परिपूर्ण है और अति भयंकर हजारों पक्षियों से सम्पन्न है।।१६-१७ ॥ ऐसी नदी पापी प्राणी को देख ज्वाला तथा धूमयुक्त दिखने लगती है , जैसे लोहे की कढ़ाई में अग्नि से तपा हुआ तेल या घी ज्वाला से व्याप्त होता है । उस नदी का नाम हे गरुड़ ! वैतरणी कहा है || १८ || वह सूई के मुखवाले भयानक कृमि से व्याप्त और वज्र - जैसी चोंचवाले महागृद्ध , वायस आदि से वेष्टित है । शिशुमार , मगर , जलूका , मत्स्य , कच्छ तथा और भी जलचर जीवों से वह व्याप्त है।।१९ -२० ॥ उस प्रवाह में गिरे हुए बहुत से पापी प्राणी हा भ्राता ! हा पुत्र ! हा तात ! इस प्रकार की दीनता के वचन बोलते रहते हैं || २१ || क्षुधा - तृषायुक्त होकर वे उस नदी के रुधिर को पीते हैं , वह नदी फेन तथा रुधिर से व्याप्त हो बहती है || २२ || वह बड़ी भयानक है , उच्च स्वर से गर्जन करती है , कोई उसको देख नहीं सकता , उसके देखने से पापी चेतनारहित हो जाते हैं - ऐसी भयानक वह नदी है ॥२३ ॥ बहुत से बिच्छू एवं कृष्णसर्पों से व्याप्त उसमें पड़े हुए पापी पुरुषों की रक्षा करने वाला कोई भी वहाँ नहीं ॥२४ ॥ नदी के अनंत आवर्तों से पापी पाताल को जाते हैं , क्षणमात्र पाताल में रहते हैं , पुनः क्षणमात्र में नदी के ऊपर आते हैं।॥२५ ॥ हे गरुड़ ! ऐसी वह नदी पापी पुरुष के गिरने के लिये रची गयी है , उस नदी का पार नहीं दीखता और किसी से तैरी न जाय , ऐसी - | ही दुःखदायक वैतरणी नदी का वर्णन किया ॥२६ ॥

इस तरह से अनेक प्रकार के क्लेश जिसमें हैं , ऐसे दुःखदायक यममार्ग में पापी पुरुष रोते - चिल्लाते तथा दुःखित होकर जाते हैं || २७ || उस मार्ग में कोई पापी जीव पाश से बँधे हुए , कोई अंकुश से खँचे हुए , कोई शस्त्र के अग्रभाग द्वारा पीठ में छेदते हुए ले जाये जाते हैं || २८ || यमदूत किसी की नासिका के अग्रभाग में पाश बाँधकर , किसी के कान में पाश बाँधकर और किसी को कालपाश से बाँधकर खींचते हैं ॥२ ९ ॥ कितने पापी ग्रीवा में , भुजा में , पैरों में , शृंखला से बँधे हुए जाते हैं , कितने लोहे के समूह को मस्तक पर रखकर रास्ते में चलते हैं || ३० || कितने ही को भयानक यमदूत मुद्गर से ताड़ित करते हैं , तब मुख से रुधिर का वमनकर उसी रुधिर को वे पापी भक्षण करते हैं || ३१ || इस प्रकार से अत्यन्त दुःखी हो अपने किये हुए कर्मों को भोगते हुए पापी यमलोक में जाते हैं || ३२ || फिर भी मन्दबुद्धि पुरुष पुत्रपौत्रादिकों का स्मरण करता हुआ तथा हाहाकार करता और रोता हुआ पश्चात्ताप करता है || ३३ ।। वह सोचता है कि बड़े पुण्य से मनुष्य जन्म मिलता है , उसे प्राप्तकर भगवद्धर्म का आराधन मैंने नहीं किया , देखो यह भूल मैने की है ।।३४ ।। दान , अग्नि में हवन , तप , देवताओं की पूजा , विधि - विधान से तीर्थ की सेवा आदि नहीं की । हे जीव ! तुमने निंदनीय कार्य किये हैं । अत : अब तुम अपने किये हुए दण्ड मार्ग को भोगो , इस प्रकार आत्मा - आत्मा को सम्बोधन कर , उपदेश करता है || ३५ || हे जीव ब्राह्मणों की पूजा , गंगाजल का पान , सत्पुरुषों की सेवा , परोपकार आदि भी नहीं किया । हे जीवात्मन् ! तुम्हारे किये कर्मों के फल तुम ही भोगो ॥३६ ॥ पशु - पक्षियों के लिये वन में वापी - कूप - तड़ागादि नहीं खोदवाया और गौ , ब्राह्मण की वृत्ति के लिये कुछ भी धन खर्च नहीं किया , अत : हे जीवात्मन् ! तुम अपने किये कर्मों को भोगो ॥३७ ॥

अन्नदान नहीं किया और एक दिन में एक गौ तृप्त हो उतना भी तृणदान नहीं किया , स्नान , संध्या , जप , होम , स्वाध्याय और देवतार्चनादि नहीं किये , वेदशास्त्र के यथार्थ वचन नहीं माने , पुराण की कथा का श्रवण नहीं किया और पुरा के बनानेवाले व्यासजी की पूजा भी नहीं की , इसलिये हे जीवात्मन् ! अब अपने किये हुए कर्मों को भोगो ॥ ३८॥ मैंने स्त्री - जन्म धारणकर स्वामी का हित नहीं किया , प्रिय वचन भी नहीं बोली और पतिव्रत धर्म से भी च्युत थी , किसी दिन गुरु का सत्कार भी नहीं किया , इस कारण हे जीवात्मन् ! अब किये हुए कर्मों को तुम भोगो ॥३ ९ ॥ धर्मबुद्धि से मैंने पति की सेवा नहीं की , पति के मरने बाद सती भी नहीं हुई , विधवापन प्राप्त होने पर तप भी नहीं किया , इसलिये हे जीवात्मन् ! तुम अपने किये कर्म को भोगो || ४० ।। महीने के उपवास तथा बड़े विस्तृत नियमवाले चान्द्रायणादि व्रतों से शरीर को पूरा कृश भी नहीं किया और पूर्वजन्म के पापकर्म से नारी का शरीर मैंने प्राप्त किया है , जो शरीर वैधव्यादि बहु दुःख का पात्र है ॥४१ ॥ से हे गरुड़ ! वह प्रेत अनेक प्रकार से विलाप कर पूर्वजन्म के किये कर्मों का स्मरण करता हुआ विचार करता है कि , अब मनुष्य देह कैसे प्राप्त होगा , यह विचारता हुआ प्रेत जाता है | ॥४२ ॥ सत्रह दिन तक प्रेत अकेला ही वायुवेग से जाता है , तदनन्तर अठारहवें दिन हे गरुड़ ! वह प्रेत अत्यन्त रमणीय सौम्यपुर को जाता है || ४३ || उसमें प्रेतों के बहुत से गण रहते हैं , वहाँ पुष्पभद्रा नाम की नदी है और वहाँ न्यग्रोध नाम का अत्यन्त सुन्दर दिखाई देनेवाला वृक्ष है ॥४४ || यम के दूत उस पुर में प्रेत को विश्राम कराते हैं , तब प्रेत वहाँ दुःखित होकर स्त्री - पुत्रादि द्वारा किये सुख का स्मरण करता है || ४५ || जिस समय में प्रेत धन , नौकर आदि सबका सोच करता है उस समय वहाँ के प्रेत और यमदूत सब इकट्ठे होकर उस प्रेत को ऐसे वचन कहते हैं || ४६ ॥ हे मूर्ख ! तू व्यर्थ शोच करता है , धन , भृत्य , पुत्र , स्त्री , मित्र , बान्धव आदि तुम्हारे कोई भी नहीं हैं , जीव अपने किये हुए कर्मों को आप ही भोगता है इसलिये यमलोक के मार्ग में चलो || ४७ ||

- अहो परलोक के यात्री ! यमराज के बल और यम के दूत हम हैं , जिनके बल को तू नहीं जानता है और यमराज दंड न दें ऐसा यत्न नहीं करता है , इससे अब जिस मार्ग में लेना - देना इत्यादि व्यवहार कोई भी नहीं ऐसे मार्ग में तुझे अवश्य चलना है।। ४८ ।। हे प्रेत ! यमलोक मार्ग को बालक पर्यन्त सभी जानते हैं , इसको तुमने कैसे नहीं सुना और पुराणों के वचन भी ब्राह्मणों के पास तूने नहीं सुने , क्योंकि पुराणों में नरकादि का वर्णन बहुत प्रकार से किया है।॥४९ ॥ दूत ऐसे वचन कहकर के मुगर से प्रताड़ित करते हैं , तब प्रेत गिरता पड़ता दौड़ता है और यमदूत उसको पाश से बाँधकर खींचते हैं || ५० || इस पुर में बैठा हुआ प्रेत मरने के बाद पौत्रादिकों ने जो स्नेह से अथवा कृपाकर मासिक पिण्डदान दिया है , उसी पिण्ड को खाता है , तदनन्तर सौरिपुर को जाता है || ५१ ॥ जिस पुर में काल के रूप को धारण करने वाला जंगम नाम वाला राजा है , जिससे प्रेत भयभीत हो विश्राम चाहता है || ५२ ॥ उस पुर में प्रेत के पुत्रादिकों ने जो त्रैपाक्षिक पिण्डदान किया , उस अन्न - जल को भक्षण करता हआ आगे जाता है ॥५३ ॥ तदनन्तर प्रेत जल्दी से नगेन्द्रभवन जाता है , वहाँ भयानक वन हैं , जिसको देख वह बड़े दु : ख से रोता है | ॥५४ ॥ निर्दयी यमदूत के पाश से खँचा हुआ प्रेत दो मास में रोता हुआ जाता है || ५५ || वहाँ बान्धवों के दिये हुए द्वितीय मासिक पिण्ड , जल और वस्त्र को भोग यमदूतों के पाश द्वारा आगे जाता है || ५६ || तीसरे मास में गंधर्वपुर को प्राप्त हो त्रैमासिक पिण्ड को गंधर्वपुर में भोग आगे चलता है || ५७ || चतुर्थ मास में शैलागमपुर को जाता है । वहाँ प्रेत के ऊपर बहुत से पत्थर बरसते हैं || ५८ || वहाँ चतुर्थ मास के दिये हुए पिण्ड का भोगकर किंचित्सुख को प्राप्त हो वहाँ से पाँचवें महीने में क्रौंचपुर को जाता है।।५९ || वहाँ पंचममासिक पिंड को भोगकर आगे क्रूरपुर को जाता है || ६० || साढ़े पाँच मास के बाद न्यूनषाण्मासिक होता है , उस समय के उस घट सहित पिण्डदान से प्रेत कुछ तृप्त होता है ॥६१ ॥

और वहाँ आधे मुहूर्त तक आराम कर बड़े दुःख से कम्पायमान हो यमदूत की गर्जना से उस पुर को त्याग वह चित्रभवन नामक पुर को जाता है । वहाँ यमराज का छोटा भाई विचित्र नाम वाला राजा राज्य करता है || ॥६२-६३ || उस पुर में उस विशालकाय यम के भाई को देख प्रेत भय से दौड़ता है , तब नाव चलाने वाले उस प्रेत के सामने आकर कहते हैं कि || ६४ || महावैतरणी नदी में चलाने के लिये हम नाव लेकर तुम्हारे पास आये हैं , अब तुम्हारे पास कोई ऐसा पुण्य हो , तो कहो ॥६५ ॥ हे प्रेत ! तत्त्व के वेत्ता मुनियों ने दान को ' वितरण ' कहा है , जिससे यह तैरी जा सकती है — इसलिए इसका नाम वैतरणी नदी है ॥६६ ॥ यदि तुमने गौ का दान दिया हो तो यह नौका तुम्हारे समीप आयेगी , बिना दान यह किसी के पास नहीं आती है , ऐसे वचन सुन प्रेत हाहाकार शब्द करने लगता है , हा दैव ! मैंने दान नहीं दिया || ६७ || ऐसी नदी को देख प्रेत भयभीत हो विलाप करता है । जिसने गोदान नहीं किया , ऐसे पापी जीव वैतरणी नदी में डूब जाते हैं || ६८ ॥ तब जैसे मांस सहित मछली फँसानेवाले काँटे में फँसाकर मत्स्य को खींचते हैं , उसी प्रकार उस प्रेत के मुख में शूल छेदकर उसको आकाश में रहनेवाले यमदूत वैतरणी नदी के पार ले जाते हैं | ६ ९ ॥ तदनन्तर षाण्मासिक पिंड को भोगकर वह आगे चलता है , फिर भी मार्ग में अत्यधिक क्षुधा युक्त होकर विलाप करता हुआ ड को भोगकर वह आगे चलता है , फिर भी मार्ग में अत्यधिक क्षुधा युक्त होकर विलाप करता हुआ जाता है || ७० ॥ सातवें महीने में बह्वापदपुर को जाता है , वहाँ पुत्रादिकों के दिये हुए सप्तम मासिक पिंडदान को भोगता है || ७१ || उस पुर को लाँघकर दु : खद नामक पुर को जाता है , उस मार्ग में अवलंब - रहित पक्षी की तरह चलता हुआ प्रेत महान् कष्ट को प्राप्त होता है || ७२ || वहाँ आठवें महीने के पिंड भोग आगे जाता है , नौवाँ महीना पूर्ण नानाक्रंद नामक पुर को जाता है || ७३ || उस पुर में नाना प्रकार के जीव अत्यन्त दारुण भयानक शब्द करते हैं , उनको देख वह शून्य हृदय से आप ही दुःखी हो रोता है || ७४ || यमदूतों की गर्जना से वहाँ भी प्रेत उस पुर को छोड़ बड़े दुःख से दसवें मास में सुतप्तभवन को जाता है ॥७५ ॥

इस पुर में पिंडदानादि को भोग ग्यारहवाँ मास पूर्ण होने पर रौद्र नामक पुर को जाता है ॥७६ ॥ उस पुर में पुत्रादि के दिये हुए पिंड को भोग साढ़े ग्यारह महीने में पयोवर्षण नामक पुर को जाता है | ७७॥ उसके बाद शीताढ्य नामक नगर जाता है । उस पुर में हिम से सौ गुणाधिक महान् शीत पड़ता है , जिससे शीताढ्य उसका नाम पड़ा है।॥७८-७९ ।। उस पुर में प्रेत शीत द्वारा दु : खी तथा क्षुधायुक्त हो चारों दिशाओं की ओर सोचता जाता है , मेरे कोई बान्धव मुझे दुःख से निवृत्त करें || ८० || तब यमदूत बोलते हैं कि तुम्हारे ऐसे पुण्य कहाँ हैं , जो कोई तुम्हारे दु : खं मिटाये , उस पुर में वार्षिक पिण्ड को खाकर वह प्रेत कुछ धैर्य धारण करता है ॥८१ ॥ तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होने पर यमलोक के समीप बहुभीति नामक पुर में जाकर पिण्ड से उत्पन्न हुई हस्तप्रमाण देह का त्याग करता है ॥८२ ॥ - - हे गरुड़ ! इसके बाद अंगुष्ठमात्र वायुरूप जीवात्मा कर्मों को भोगने के निमित्त यातना भोगने के योग्य शरीर को धारणकर यमदूतों के साथ यमलोक को जाता है || ८३ || हे गरुड़ ! परलोक के निमित्त जिसने दान नहीं दिया — वह कष्ट से तथा दृढ़बन्धन से बँधा हुआ यमलोक को जाता है || ८४ || उस यमराजपुर के चार दरवाजे हैं— इसमें दक्षिण द्वार के मार्ग को हे गरुड़ ! -तुमसे कहा।।८५ ॥ उस भयानक यमलोक के रास्ते में क्षुधा - तृषा , श्रम आदि से दुःखी हुए प्रेत जिस प्रकार से जाते हैं , उसको मैंने कहा है , अब तुम क्या सुनने की इच्छा करते हो ? ॥८६ ॥

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