Wednesday 20 April 2022

Garud Puran in hindi गरूड पुराण कथा तृतीय अध्याय हिन्दी में वैतरणी नदी 21 महा नर्कों का सम्पूर्ण वर्णन

जय श्री कृष्ण दोस्तों आज हम गरुण पुराण Garuda Purana Chapter-3 in hindi के तृतीय अध्याय हिन्दी में आपको बता रहे है। जिसमें यमलोक मार्ग तथा 21 महा नर्कों सम्पूर्ण वर्णन बताया गया है। दोस्तों हिन्दू धर्म के वेद पुराण में गरूड पुराण एक है । गरुण पुराण Garuda Puranam part-3 in hindi हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला है और इसीलिए मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण की कथा Garud Puran Katha के श्रवण का प्रावधान है। इस पुराण में मनुष्य को पाप कर्मों से बचने का प्रावधान बताया गया है। इस गरुण पुराण के अधिष्ठातृ देव भगवान विष्णु माने जाते हैं। (भगवान विष्णु तथा गरुड़ के संवाद में गरुड़ पुराण – पापी मनुष्यों की इस लोक तथा परलोक में होने वाली दुर्गति का वर्णन, दश गात्र के पिण्डदान से यातना देह का निर्माण।) इसीलिए यह गरूड पुराण हमें सत्कर्मों को करने के लिए प्रेरित करता है। है। गरूड पुराण प्रथम अध्याय हिन्दी // द्वितीय अध्याय 

Garud Puran in hindi गरूड पुराण कथा तृतीय अध्याय हिन्दी में वैतरणी नदी 21 महा नर्कों का सम्पूर्ण वर्णन 

हिन्दी अर्थ गरुड़ पुराणं तृतीय अध्याय गरुड़ बोले - हे भगवन् ! पापी पुरुष यममार्ग को लाँघकर यमलोक में जा किस प्रकार से यम की यातना को भोगते हैं , वह मुझसे कहिये ॥१ ॥ श्रीभगवान् बोले- हे गरुड़ ! नरक के दःखों का आदि से लेकर अंत तक मैं समस्त वर्णन कहूँगा , जिसको सुनकर तुम कंपायमान हो जाओगे , ऐसा वह भयानक है ॥२ ॥ हे गरुड़ ! बहुभीति नामक पुर के आगे चौवालिस योजन का धर्मराज का पुर है || ३ || उसमें हाहाकार शब्द होता रहता है , जिसको देख पापी भी हाहाकार शब्द करने लग जाते हैं , उस हाहाकार शब्द को सुन यमराज के दूत यमपुरी में जाकर द्वारपाल से कहते हैं- एक पापी को हम ले आये हैं ।॥ ४-५ ॥ धर्मराज के द्वार पर धर्मध्वज नामक द्वारपाल सदा स्थित रहता है , द्वारपाल जाकर चित्रगुप्त से उस प्राणी के पाप - पुण्य के विषय में कहता है . ( तभी ) चित्रगप्त जाकर धर्मराज से कहते हैं ॥६ ॥ हे गरुड़ ! जो नास्तिक महापापी पुरुष हैं , उन सबको अच्छी तरह धर्मराज जानते हैं | ७ || तो भी वे चित्रगुप्त से पूछते हैं , तब चित्रगुप्त भी उनके विषय में सब कुछ जानते हुए भी श्रवण नाम के गणों से जानकारी करते हैं।।८ ।। श्रवण नामक देवता ब्रह्माजी के पुत्र हैं , वे स्वर्ग , मृत्यु , पाताल आदि में भ्रमण करते रहते हैं , वे दूर से ही श्रवणकर सब जान लेते हैं और दूर स्थित वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखते हैं , जिससे उनका श्रवण ऐसा नाम रखा गया है | ९ || फिर उनकी स्त्रियाँ भी श्रवणी इसी नाम से प्रसिद्ध हैं , वे स्त्रियाँ भी स्त्री मात्र के चरित्रों को अच्छी तरह जानती हैं || १० || इस संसार में जो प्राणी शुभाशुभ प्रत्यक्ष या गुप्तरूप से करते हैं , उसको श्रवण नाम देवगण चित्रगुप्त से कहते हैं और स्त्रियों के चरित्र को श्रवणगण की श्रवणी नामक स्त्रियाँ चित्रगुप्त से कहती हैं।।११ ॥ श्रवण और श्रवणी ये सब धर्मराज के गुप्तचर हैं , प्राणियों के शुभाशुभ को मन और वचन आदि से किये हुए सब कर्मों के तत्त्व को ये जानते हैं ॥ १२॥ मनुष्य और देवताओं के तत्त्व को जानने की श्रवणादिकों की शक्ति है , वे सत्यवादी श्रवण मनुष्यमात्र के किये हुए सभी कार्यों को चित्रगुप्त से बतलाते हैं । ॥ १३ ॥ 

इसलिए व्रत , दान , सत्यपालन आदि से कोई भी पुरुष श्रवण को प्रसन्न करे तो श्रवणगण उस मनुष्य को स्वर्ग तथा मोक्ष को देनेवाले हो जाते हैं || १४ || सत्य बोलने वाले धर्मराज के श्रवण नामक दूत पापी पुरुषों के पाप को जानकर धर्मराज से कह देते हैं , जिससे वे पापियों के प्रति दुःखदायी होते हैं । तब यमराज पापियों को दण्ड देते हैं || १५ || और वे सब साक्षी देते हैं । सूर्य , चन्द्र , अनिल , अनल , आकाश , पृथ्वी , जल , अन्तरात्मा , मन , दिन , रात्रि , दोनों सन्ध्याएँ और धर्म – ये मनुष्यमात्र के चरित्र को जानते हैं || १६ || धर्मराज चित्रगुप्त , श्रवण , भास्करादि सब संसार के प्राणियों के देह में स्थित पाप और पुण्य को भलीभाँति जानते हैं || १७ || इस तरह पापियों के पाप को निश्चय कर यमराज तदनन्तर पापियों को बुलाकर अपने भयानक स्वरूप को दिखाते हैं || १८ || तब पापी पुरुष यमराज के भयंकर स्वरूप को ( इस प्रकार से ) देखते हैं , ( एक ) बड़ा शरीरधारी , हाथ में दण्ड लिये भैंसे पर बैठा हुआ है । १ ९ ॥ प्रलयकाल में जैसे मेघ शब्द करता है वैसा उसका स्वर है , काजल पर्वत जैसी कान्ति है , बिजली की प्रभा के समान प्रकाशमान , शस्त्रधारी बत्तीस भुजाओं से युक्त युक्त है || २० || तीन योजन विस्तार वाला उसका शरीर है , वापी के तुल्य भयानक मुख है , लालनेत्र हैं , बड़ी - बड़ी दाढ़ों से युक्त भयंकर मुख है , लम्बी नाक है , ऐसा यमराज का स्वरूप है || २१ || मृत्यु , ज्वर आदि से युक्त चित्रगुप्त भी भयानक रूप को धारण करते हैं । यम के जैसे ही भयानक उनके दूत भी पापी के पास आकर गर्जते हैं || २२ || जिसको देख पापी भयभीत हो हाहाकार शब्द करता है ; दान न देनेवाले , ऐसे पापी कम्पायमान होकर रोते हैं | २३ || तब चिन्तातुर होकर क्रन्दन करते हुए पापियों को चित्रगुप्त यमराज की आज्ञा से उसके किये कर्म को श्रवण कराते हैं || २४ || हे पापी दुराचारी जीव ! अहंकारयुक्त विवेकरहित हो तुमने पाप रूप धन का संचय किसलिए किया ? क्योंकि ईश्वर के निमित्त धन दान देना था अपितु संचय नहीं करना था।।२५ ।। पापी पुरुषों की संगति से और काम - क्रोधादि से उत्पन्न हुए ऐसे दुःख देनेवाले पाप को तुमने किसके लिए किया ? ।। २६ ।। तुमने अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे पहले पाप किये हैं , वैसे ही अब दुःख को भोगो , अब उल्टे मुखकर क्यों रुदन करते हो ? ॥२७ ॥

तुमने जिन पापों को किया है , वे सब पाप दु : ख के कारण हैं || २८ || धर्मराज मूर्ख में , पंडित में , दरिद्र में , धनवान् में , बलवान् में तथा निर्बल में , सबमें समभाव रखते हैं || २ ९ || इस प्रकार पापी चित्रगुप्त के वचन सुन अपने किये हुए कर्मों का | विचारकर निश्चल हो मौन धारण करते हैं || ३० || तथा चोर की तरह निश्चल हो स्थित हुए ऐसे पापी पुरुषों को देखने के पश्चात् उनके पापों के योग्य यमराज दंड देने की आज्ञा करते हैं || ३१ || दूत यमराज की आज्ञा से दयारहित हो प्रेतों को ताड़ना कर कहते हैं — हे पापी जीव ! यहाँ से भयानक नरक में चलो || ३२ || यमाज्ञाकारी प्रचंड - चंडकादि दूत एक पाश से उन सब प्रेतों को बाँधकर नरकों में ले जाते हैं || ३३ || उन नरकों के समीप एक बड़ा शाल्मली वृक्ष है , जो अग्नि के समान कान्तिमान । जिसका बीस कोस का विस्तार है और जो एक योजन ऊँचा है || ३४ || यमदूत उस वृक्ष में प्रेत को नीचे की मुख और ऊपर की ओर पैर कर शृङ्खलादि से बाँधकर मारते हैं । तब प्रेत अग्नि से जलते हुए रोते हैं , क्योंकि उस स्थान में उनकी रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं रहता है ॥ ३५ ॥ में उस शाल्मली वृक्ष में बँधे हुए क्षुधा - तृषा से पीड़ित पापी लटकते हैं और यमदूत ऊपर से ताड़ना करते हैं ॥ ३६॥ तब पापी जीव हाथ जोड़ यमराज के दूतों से प्रार्थना करते हैं , हे यमदूतों ! हमारे अपराध क्षमा करो , हम ( अब ) कभी पाप नहीं करेंगे || ३७ || ऐसे प्रेतों के वचन सुनकर भी यमदूत लोहदंड से , मुद्गर से , तोमर से , भाले से , गदा से और मुसल से , अनेक तरह से मारते हैं || ३८ || जिस ताड़ना में प्रेत मूर्च्छित हो जाते हैं , तब चेष्टारहित देख यमदूत कहते हैं | ३ ९ ॥ हे दुराचारी प्रेत ! ऐसे दुष्ट आचरण क्यों किये ? क्या संसार में अन्न - जल कोई भी पदार्थ सुलभ नहीं था ? तुमने किसी को किसी समय दान नहीं किया ॥४० ॥ तुमने ग्रास मात्र अन्नदान नहीं किया , तुमने बलिवैश्वदेवादि भी नहीं किया , अतिथियों को नमस्कार भी नहीं किया और पितृतर्पण भी नहीं किया ॥४१ ॥ यमराज और चित्रगुप्त का उत्तम ध्यान तथा दोनों के उस मंत्र का जप भी नहीं किया , यम की यातना जिस जपादि करने से नहीं होती ॥ ४२ ॥

( गृहस्थ धर्म में रहते हुए भी कोई तीर्थ नहीं किया , न देवता की पूजा की तथा अहंकार को भी नहीं त्यागा ॥४३ ॥ संत पुरुषों की सेवा नहीं करने से ( अब ) फल को भोगो धर्म से रहित हो , अतः अनेक तरह की हम तुम्हारी ताड़ना करते हैं ॥४४ ॥ यदि तुम कहो कि , दण्डनीय अपराध क्षमा करो , तो वह ईश्वर भगवान् क्षमा करते हैं और अन्य कोई भी नहीं कर सकता । हम लोग तो श्रीहरि की आज्ञा से पुरुषों को ताड़ना देनेवाले हैं ॥४५ ॥ ऐसे वचन कहकर यमराज के दूत दयारहित हो पापियों की ताड़ना करते हैं । तब प्रेत जले हुए अंगार की तरह होकर ताड़ना करने से नीचे गिरते हैं || ४६ ॥ उनके गिरते पुन : शाल्मली वृक्ष के पत्र ऊपर से गिरते हैं , जिससे उनके अंगों का छेदन होता है और उनको कुत्ते भक्षण करते हैं , तब प्रेत दुःखी होकर रोते हैं ॥४७ ॥ रुदन करते हुए प्रेतों का मुख धूल से भर पाश से बाँध यमदूत अनेक प्रकार से मारते हैं तथा अन्य यमदूत मुद्गर से मारते हैं ॥४८ ॥ कोई यमदूत आरा आदि से काष्ठ की तरह पापी को चीरते हैं कितने यमदूत नारकी को भूमि पर गिराकर कुठारादि से टुकड़े - टुकड़े करते हैं ॥ ४ ९ ॥ कितने दूत भूमि में गड्ढा खोदकर पापी को कटिपर्यन्त  गाड़ , उनके सिर में बाणों से भेदन करते हैं , कितने ही पापी यमदूतों द्वारा यन्त्र में रख ईख के दण्ड की तरह पेरे जाते हैं ॥५० ॥ कितनों को यमदूत अंगारसहित जलते हुए काष्ठ से चारों ओर वेष्टित कर लोहपिण्ड की तरह धधकाते हैं ॥५१ ॥ कितने को दूत अग्नि पर तपे हुए घृत में , कितने को तपे हुए तैल में डालकर जैसे कड़ाही स्थित तपे हुए तैल में बड़ा तला जाता है , वैसे तलते हैं || ५२ ॥ कितनों को मदोन्मत्त हाथियों के आगे पटकते हैं , कितनों के हाथ - पैर बाँधकर उलटे मुख से गिराते हैं | ५३ || कितने को कूप में , कितने को पर्वत से गिराते हैं तथा कितने कृमिकुंड में पड़े हुए जीवों से भेदे जाते हैं ॥५४ ॥ कितने को मस्तक में , नेत्र में वज्र समान तीक्ष्ण चोंचवाले काकपक्षी तथा मांसलोभी गृद्धपक्षी मारते हैं।॥५५ ॥ कितने परस्पर यह कहते हैं कि पूर्व जन्म में तुमने हमारे धन को भक्षण किया , तुम अब मेरे धन को दो , क्योंकि यमलोक में मिले हो ऐसी प्रार्थना करते हैं ॥५६ ॥

नरक में भी पापी पुरुषों को आपस में इस प्रकार विवाद करते हुए देख यमदूत उनके मांसखण्ड को छेदन कर माँगनेवाले को देते हैं ॥५७ ।। इस प्रकार से यमदूत उनको ताड़ना दे खींचकर तामिस्रादिक घोर नरक में यमराज की अत्युत्कट आज्ञा से गिराते हैं ॥५८ ॥ शाल्मली वृक्ष के समीप बहुत से दुःख देनेवाले नरक हैं , उन नरकों में जो बड़ा दुःख है , उसे वाणी से भी नहीं कहा जा सकता ॥ ५ ९ ॥ हे गरुड़ ! चौरासी लाख नरक है , इनमें इक्कीस प्रधान भयानक नरक हैं || ६० ॥ हे गरुड़ ! उनके नाम कहता हूँ , सुनो - तामिस्र , लोहशंकु , महारौरव , शाल्मली , रौरव , कुड्मल , कालसूत्र , पूतिमृत्तिक , संघात , लोहितोद , सविष , संप्रतापन , महानिरय , काकोल , संजीवन , महापथ , अवीचि , अंधतामिस्र , कुंभीपाक , संप्रतापन तथा तपन – ये इक्कीस नरक हैं ॥६१-६३ ॥ जो अनेक तरह के यातना भेदों से रचे हुए हैं और अनेक यमदूतों से परिपूर्ण हैं ॥६४ || इन नरकों में धर्मवर्जित पापिष्ठ मूर्ख गिरते हैं और वहाँ नरकों की वेदना को कल्पपर्यन्त भोगते हैं ॥६५ ॥ स्त्री तथा पुरुष परस्पर अधिक विषय - सेवन से तामिस्र , अंधतामिस्र , रौरवादि नरक की यातना को भोगते हैं , इसलिए ऋतुदान और विषय - वासना में लिप्त नहीं होना चाहिए ॥६६ ॥ कोई पुरुष ईश्वर के निमित्त दान को न कर केवल कुटुम्ब का भरण - पोषण तथा अपने उदर को भरता है , ऐसे पुरुष कुटुम्ब को एवं अपनी देह को छोड़कर परलोक में नरकादि के दु : खों को भोगते हैं || ६७ || जिसने अनेक प्राणियों से बैर - भाव करके अपने शरीर का पोषण किया , वह शरीर को त्याग कर पापरूप पाथेय को साथ ले एकाकी नरक में जाता है । अन्य कोई भी संग नहीं जाता । ईश्वर को त्यागकर कुटुम्ब का पोषण किया , इसी देवप्रेरित पाप का संचय करने से नरक में जीव भोग भोगता है और दुःखी होता है।६८-६९ || जैसे धन लुट जाने से जीव दुःखी होता है । वैसे अधर्म से कुटुम्ब का भरण - पोषण करनेवाला पुरुष सब नरकों में भोगकर अंधतामिस्र नरक में गिरता है ॥७० ॥ हे गरुड़ । यह जीव मनुष्यलोक के नीचे जितने नरकादि हैं , उनको अनुक्रम से भोग तदनन्तर पवित्र हो पुनः यहाँ आता है अर्थात् नरक की यातना भोगकर पाप क्षीण हो जाने से जीव मनुष्यता को प्राप्त होता है ॥७१ ॥

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