Monday 19 December 2022

12 सर्वश्रेष्ठ संस्कृत सूक्तियों का संकलन हिंदी अर्थ सहित |Best Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning

12 सर्वश्रेष्ठ संस्कृत सूक्तियों का संकलन हिंदी अर्थ सहित |Best Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning

जय श्रीकृष्ण दोस्तों आज हम संस्कृत ग्रंथों का सार लेकर आए है।जो 12 संस्कृत सूक्तियां हिंदी अर्थ सहित है Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning Top 12 संस्कृत शास्त्रों की महत्वपूर्ण सूक्तियां हिंदी अनुवाद सहित यहां नीचे दी जा रही है। जो आपके लिए State TET, CTET, TGT, PGT, UGC-NET/JRF, DSSSB, GIC and Degree College Lecturer M.A., B.Ed and Ph.D Entrance Exam आदि सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में उपयोगी साबित होगी। तथा आपके जीवन में भी कुछ बदलाव देखने को जरूर मिलेंगे इसमें Popular Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning संस्कृत भाषा में सुविचार तथा सूक्तियाँ का सही अर्थ जानकर आप अच्छे नंबर के साथ बहुत कुछ प्राप्त कर सकते है।

(1) सतां साङ्गो लोके कथमपि हि पुण्येन भवति ॥

अर्थात- सज्जनों की संगति संसार में सरलता से नहीं मिलती अपितु पूर्व जन्मों के पुण्य से प्राप्त होती है। अतः हमें सदा सज्जनों की संगति ही करनी चाहिए।

(2) भूमिर्मातादितिर्नो जनित्रम् ॥

अर्थात- यह अखण्ड भूमि हमारे लिए माता और जननी है। हमें जिस प्रकार माता की सेवा करनी चाहिए उसी पकार पृथ्वी का | पालन-पोषण भी करना चाहिए। हमें भूमि, जल और वायु की शुद्धता की रक्षा करनी चाहिए। इस धरती को माता के समान मानते हुए हमें इसका उपयोग करना चाहिए।

(3) गुणिनो दुर्लभा भूमौ गणनिया सुसंसदि ॥

अर्थात- गुणी लोग पृथ्वी पर दुर्लभ हैं और अच्छी सभा में अंगुली पर गिनने भर के लिए हैं। अतः गुणी जनों का सदा आदर करना चाहिए और हमें भी सदा गुणार्जन का प्रयास करना चाहिए।

(4) अङ्गीकृतं सृकृतिनः परिपालयन्ति ॥

अर्थात- जो अंगीकार किया है सज्जन लोग उसका पालन करते ही हैं। उनका वचन कभी झूठा नहीं होता। यह सूक्ति प्रसिद्ध है कि रामचन्द्र कभी दो अर्थों वाली बात नहीं बोलते जो बोलते हैं उसका पालन करते हैं। रघुपति रीति सदा चलि आई। प्राण जाहिं पर वचन न जाई ।। अतः हमें भी सदा सत्य वचन ही बोलने चाहिए।

(5) किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतिनाम् ॥

अर्थात- सुन्दर आकार वालों पर सभी वस्त्र और सभी आभूषण शोभा देते हैं। शरीर यदि सुन्दर है तो सभी शोभा देता है किन्तु | शरीर के असुन्दर होने पर कुछ भी शोभा नहीं देता अर्थात् कृत्रिम सौन्दर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौन्दर्य ही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है इसलिए हमारी दृष्टि कृत्रिम सौन्दर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर अधिक होनी चाहिए। उसी के रक्षण और वर्धन के लिए हमें प्रमुख रूप से प्रयास करना चाहिए ।

(6) दुःखं विना नैव सुखस्य बोधः ॥

अर्थात- दुःख के बिना सुख का बोध नहीं होता है। सुख के महत्त्व को मनुष्य तभी जानते हैं जब वे स्वयं दुःख का अनुभव कर सुख प्राप्त करते हैं। अतः भाग्य के द्वारा या प्रकृति के द्वारा या माता-पिता के द्वारा प्राप्त सुख के महत्त्व को जानकर हमें उसका उपभोग करना चाहिए।

(7) अपथ्यसेवी भिषजामसाध्यः ॥

अर्थात्- जो मनुष्य अखाद्य वस्तुओं को खाते हैं और अपेय को पीते हैं उनकी चिकित्सा वैद्य भी नहीं कर सकते। अतः हमें खाने-पीने में बहुत ही सावधानी रखनी चाहिए। केवल जिह्वा के स्वाद के लिए ही कुछ भी नहीं खाना चाहिए अपितु शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक भोजन का विचार कर ही खाद्य वस्तुओं का उपभोग करना चाहिए।

(8) तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥

अर्थात- मेरा मन शुभ संकल्पों वाला है। हमारे मन में दुर्विचार नहीं आने चाहिए। अच्छा या बुरा विचार सर्वप्रथम मन में ही उत्पन्न होता है उसके बाद वह क्रिया रूप में परिणत होता है। अतः विचारों की शुद्धि परम आवश्यक है ।

(9) प्रवर्तते हि विमले हृदि स्वच्छे सरस्वती ॥

अर्थात- पवित्र और स्वच्छ हृदय में सरस्वती का निवास होता है। हम सब सरस्वती के सेवक हैं अतः हमारे हृदय भी बुराइयों से रहित होने चाहिए तभी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

(10) सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥

अर्थात- सत्य पर ही सब कुछ टिका है। सत्य साक्षात ईश्वर का रूप है। असत्य के द्वारा यदि कोई कुछ भी पा लेता है तो वह न तो स्थायी होता और न ही आत्मिक सन्तोष प्रदान करता है। अतः सत्य का पालन करना ही हमारा परम धर्म है।

(11) मानवं पुत्रवद् वृक्षास्तारयन्ति परत्र च ॥

अर्थात्-  पुत्र के समान वृक्ष मनुष्य को इस लोक और परलोक में भी तार देते हैं। कभी-कभी कुपुत्र पुत्रधर्म का पालन नहीं करते हैं किन्तु मनुष्य के द्वारा आरोपित वृक्ष मनुष्य के लिए इस लोक और परलोक दोनों में सुख देता है अतः मनुष्य को वृक्षारोपण करके उनका पालन-पोषण और रक्षण करना चाहिए। हमारे जीवन के लिए इन वृक्षों की अनिवार्यता सभी जानते हैं, ये प्राणवायु छोड़ते हैं। आरोपित किया हुआ वृक्ष प्राणवायु, फल, फूल, काष्ठ और छाया प्रदान करके मनुष्य के लिए पुण्य प्रदान करता है।

(12) एक लक्ष्याः समान धर्मा: ॥

अर्थात- सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सभी नत एक ही ईश्वर के पास ले जाते हैं। जैसे किसी भी नौका से नदी पार जाया जा सकता है उसी प्रकार किसी भी मत से ईश्वर प्राप्ति सम्भव है। अतः मेरा धर्म श्रेष्ठ है दूसरे का धर्म हीन है ऐसा भाव कभी भी नहीं होना चाहिए अपितु सभी मतों के प्रति समान रूप से आदर का भाव हमारा परम कर्तव्य है ।

0 comments: