Wednesday, 28 June 2023

Chanakya Niti top 93 shlok Sanskrit hindi: चाणक्य नीति के 93 शक्तिशाली श्लोकों में छिपा है जीवन का रहस्य, जरूर जाने

Chanakya Niti 93 Top shlok Sanskrit hindi: चाणक्य नीति के 93 शक्तिशाली श्लोकों में छिपा है जीवन का रहस्य, जरूर जाने

नमस्कार दोस्तों आज आपको आचार्य चाणक्य जी के नीतियों उन 93 श्लोकों विचारों व नीतियों के बारे में बताने वाले है,जो जीवन में तरक्की लाने के साथ आर्थिक संकट दूर करते हैं, ये चाणक्य के 93 श्लोक Chanakya Niti: रट लें आचार्य चाणक्य के ये 93 श्लोक, सफलता चूमेगी आपके कदम
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सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वाचा।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः॥1॥

अर्थात् - कुंदरू खाने से तत्काल मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है, वच खाने से तत्काल बुद्धि बढ़ती है, नारी शीघ्र ही शक्ति का हरण करती है और दूध पीने से उसी क्षण बल प्राप्त होता है।

परोपकारं येषां जागर्ति हृदये सततम्।
नश्यन्ति विपदास्तेषां सम्पदाः स्युः पदे पदे ॥2॥
अर्थात -
जिन सज्जन लोगों के दिल में दूसरों का उपकार करने की भावना जाग्रत रहती है, उनकी विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं और पग-पग पर उन्हें धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है।

आहारनिद्राभयधर्मं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥3॥

अर्थात - भोजन करना, नींद लेना, भयभीत होना और मैथुन अर्थात संतान की उत्पत्ति करना, ये सब बातें मनुष्य और पशु में एक जैसी होती हैं। मनुष्य में पशुओं की अपेक्षा धर्म ही ऐसी विशेष वस्तु है जो उनसे अधिक होती है। यदि मनुष्य में धर्म न हो तो वह पशु के समान है।

पत्युराज्ञं विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् ॥4॥

अर्थात - पति की आज्ञा के बिना जो स्त्री उपवास रूपी व्रत करती है, वह अपने पति की आयु को कम करने वाली होती है। वह स्त्री नरक में जाती है, उसे महान कष्ट भोगने पड़ते हैं ।

न दानैः शुद्ध्यते नारी नोपवासशतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तुः पादोदकैर्यथा ॥5॥

अर्थात - स्त्री अनेक प्रकार के दान करने से शुद्ध नहीं होती अर्थात मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती, सैकड़ों उपवास करने से भी वह शुद्ध नहीं होती, अनेक तीर्थों की यात्रा करने के बाद भी वह शुद्ध नहीं होती, वह तो केवल पति चरणों की सेवा से ही शुद्ध हो सकती है अर्थात मोक्ष प्राप्त कर सकती है।

कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसा प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत् ॥6॥

अर्थात - जो जैसा करे, उससे वैसा बरतें। कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता भरा, हिंसक (दुष्ट) के साथ हिंसायुक्त और दुष्ट से दुष्टताभरा व्यवहार करने में किसी प्रकार का पाप (पातक) नहीं है।

यद्दूरं यदुराराध्यं यच्च दूरे सुरक्षाम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दूर्तिक्रमम् ॥7॥

अर्थात - जो वस्तु अत्यंत दूर है, जिसकी आराधना करना अत्यंत कठिन है और जो अत्यंत ऊंचे स्थान पर स्थित है, ऐसी चीजों को तप द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। सिद्धि का प्रयोग यह प्राप्त करना भी है।

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञोम्बलिक्रियाः।
न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम् ॥8॥

अर्थात - सभी प्रकार के अन्न, जल, वस्त्र, भूमिदान आदि, सभी प्रकार के ब्रह्म यज्ञ, देव-यज्ञ और बलि यज्ञ आदि-सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात यह सभी वस्तुएं नष्ट होने वाली हैं, परंतु सुपात्र व्यक्ति को दिया हुआ दान और प्राणिमात्र को दिया गया अभयदान कभी भी नष्ट नहीं होता।

तृणं लघु तृणात्तूलं तुलादपि च याचकः।
वायुना किं न नितोऽसौ मामयं याचयिष्यति ॥9॥

अर्थात - संसार में एक तिनका अत्यंत हल्का होता है। तिनके से भी अधिक हल्की रुई होती है, परंतु याचक को तो सबसे अधिक हल्का माना गया है अर्थात व्यक्ति जब कोई चीज किसी से मांग बैठता है, तो वह सभी चीजों से हल्का अर्थात तुच्छ माना जाता है।

वरं प्राणपरित्यागो मनभंगेन जीवनात्।
प्राणत्यागे क्षणं दुःखं मनभंगे दिने दिने ॥10॥
अर्थात -
अपमानित होकर जीने के बजाय मर जाना अधिक अच्छा है, क्योंकि मृत्यु से तो क्षणभर का ही कष्ट होता है, जबकि अपमानित होने पर व्यक्ति दिन-प्रतिदिन मरता रहता है।


प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्मात्तदेव जपं वचने का दरिद्रता ॥11॥
अर्थात
- मधुर बोली वाले से सभी प्राणी प्रसन्न रहते हैं, अतः व्यक्ति को सदैव प्रिय वचन ही बोलने चाहिए, उसे चाहिए कि वह वाणी में अमृतरूपी मधुरता घोलकर बोले। व्यक्ति को वाणी से दरिद्र नहीं होना चाहिए।

गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रसादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुद्यते ॥12॥
अर्थात
-
मनुष्य अपने अच्छे गुणों के कारण ही श्रेष्ठता को प्राप्त होता है, ऊंचे आसन पर बैठने के कारण नहीं। राजभवन की सबसे ऊंची चोटी पर बैठने पर भी कौआ कभी गरुड़ नहीं बन सकता।

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदाः।
पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलंको यथा कृषः ॥13॥
अर्थात -
मनुष्य सभी स्थानों पर मनुष्य का आदर-सत्कार उसके गुणों के कारण ही होता है। गुणहीन के पास यदि धन के भण्डार भी हों तो भी उसका सम्मान नहीं होता । बहुत थोड़े से प्रकाश वाला, परंतु दाग-धब्बों से रहित दूज का चांद जिस प्रकार पूजा जाता है अथवा शुभ समझा जाता है, पूर्णिमा के चंद्रमा को वैसा सम्मान प्राप्त नहीं होता।

पर प्रोक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः॥14॥
अर्थात -
जिस मनुष्य के गुणों की तारीफ दूसरे लोग करते हैं, वह गुणों से रहित होने पर भी गुणी मान लिया जाता है, परंतु यदि इंद्र भी अपने मुख से अपनी प्रशंसा करे तो उन्हें छोटा ही माना जाएगा।

तावंमौनेन नियन्ते कोकिलैश्चैव वासरः।
यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्प्रवर्तते ॥15॥
अर्थात -
जब तक सभी को आनंद देने वाली बसंत ऋतु आरंभ नहीं होती, तब तक कोयल मौन रहकर अपने दिन बिता देती है अर्थात बसंत ऋतु के आने पर ही कोयल की कूक सुनाई देती है ।

धर्मं धनं च धान्यं च गुरुर्वचनौषधम्।
सुगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा तु न जीवति ॥16॥
अर्थात -
जीवन को सही से बिताने के लिए धर्म का आचरण, धन पैदा करना, अन्नों का संचय, गुरु के वचनों का पालन, अनेक प्रकार की औषधियों का संग्रह विधिपूर्वक और यत्न से करना चाहिए।

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम् ॥17॥
अर्थात
-
हे मनुष्य! दुष्टों के संग को त्याग दे और सज्जन पुरुषों का संग कर। दिन-रात अच्छे कार्य किया कर, सदैव संसार को नाशवान समझकर परमेश्वर का ध्यान किया कर ।

दानेसि तपये वा विज्ञाने विये नये।
विषमयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुंधरा ॥18॥
अर्थात
- दान, तपस्या, वीरता, विज्ञान, विनम्रता और नीतिवान होने में मनुष्य को सबसे बड़ा होने का अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि पृथ्वी अनेक अमूल्य रत्नों से भरी हुई है।

हितोऽपि न हितो यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति चरमस्थोऽपि दूरतः ॥19॥
अर्थात -
जो जिसके हृदय में बसा हुआ है, वह यदि बहुत दूर है तो भी उसे दूर नहीं कहा जा सकता और जो जिसके हृदय में समाया हुआ नहीं है, वह बहुत निकट रहने पर भी दूर प्रतीत होता है।

इप्सितं मनसः सर्वं कस्य संपद्यते सुखम्।
दैवऽऽयत्तं यतः सर्वं तस्मात्सन्तोषमाश्रयेत् ॥20॥
अर्थात
- मनुष्य के मन की सभी इच्छाएं कभी भी पूर्ण नहीं होतीं, क्योंकि वे सभी भाग्य के अधीन हैं, इसलिए मनुष्य को अपने जीवन में संतोष धारण करना चाहिए ।

यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुग्च्छति ॥21॥
अर्थात
- जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा केवल अपनी मां के ही पास जाता है, उसी प्रकार जो कर्म किया जाता है, वह कर्म करने वाले के पीछे-पीछे चलता है।

अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम्।
जने दहति संसर्गो वने संगविवर्जनम् ॥22॥
अर्थात
-
बेढंगे काम करने वाले को न समाज में सुख मिलता है, न ही जंगल में। ऐसे व्यक्ति को समाज में मनुष्यों का संसर्ग दुखी करता है जबकि जंगल में अकेलापन ।

अहो बत विचित्रानि चरितानि महाऽऽत्मनम्।
लक्ष्मीं तृणय मन्यन्ते तद्भारेण नम्ति च ॥23॥
अर्थात -
महात्माओं और सज्जनों का चरित्र बड़ा विचित्र होता है। वे धन को तिनके के समान समझते हैं, परंतु तब उसके भार से वह झुक जाते हैं, अर्थात विनम्र बन जाते हैं जब वह आता है।

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भजनम्।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम् ॥24॥
अर्थात् -
जिसका किसी के प्रति स्नेह अथवा प्रेम होता है, उसी से उसको भय भी होता है। स्नेह अथवा प्रेम ही दुख का आधार है। स्नेह ही सारे दुखों का मूल कारण है। इसलिए उन स्नेह बन्धनों को त्यागकर सुखपूर्वक रहने का प्रयत्न करना चाहिए।

जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
सहेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ॥25॥
अर्थात
-
जैसे बूंद-बूंद से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार निरंतर इकट्ठा करते रहने से धन, विद्या और धर्म की प्राप्ति होती है।

व्यासः एसेऽपि यः खलः खल एव सः।
सुपक्वमपि माधुर्यं नोपयातिन्द्रवरुणम् ॥26॥
अर्थात -
जो व्यक्ति दुष्ट है, वह परिपक्व अवस्था का हो जाने पर भी दुष्ट ही बना रहता है, जैसे इंद्रायण का फल पक जाने पर भी मीठा नहीं होता, कड़वा ही बना रहता है।

आमंत्रन्त्रणोत्सव विप्रा गावो नवतर्नोत्सवः।
पत्युत्साह्युता नार्यः अहं कृष्णरोत्सवः ॥27॥
अर्थात -
किसी ब्राह्मण के लिए भोजन का निमंत्रण मिलना ही उत्सव है। गौओं के लिए ताजी नई घास प्राप्त होना ही उत्सव के समान है। पति में उत्साह की वृद्धि होते रहना ही स्त्रियों के लिए उत्सव के समान है। और मेरे लिए? मेरे लिए तो श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग ही उत्सव के समान है।

मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ॥28॥
अर्थात
- जो व्यक्ति दूसरी स्त्रियों को माता के समान देखता है, दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है और संसार के सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, वास्तव में वही यथार्थ को देखता है।

लौकिके कर्माणि रतः पशूनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते ॥29॥
अर्थात
- सदा सांसारिक कार्यों में संलग्न, पशुओं के पालक, व्यापार और खेती आदि करने वाले ब्राह्मण को वैश्य कहा जाता है।

लक्षादितैलनीलानां कुसुम्भमधुसर्पिषाम्।
विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शूद्र उच्यते ॥30॥
अर्थात
- जो ब्राह्मण वृक्षों की लाख, तेल, नील, कपड़े आदि रंगने का रंग, शहद, घी, शराब, मांस आदि चीजों का व्यापार करता है, उसे शूद्र कहते हैं।

कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृंगारकौतुके।
अतिनिद्राऽतिसेवे च मित्र ह्यष्ट वर्जयेत् ॥31॥
अर्थात
-
विद्यार्थी के लिए आवश्यक है कि वह काम, क्रोध, लोभ, स्वादिष्ट पदार्थों की इच्छा, शृंगार, खेल-तमाशे, अधिक सोना और चापलूसी करना आदि इन आठ बातों का त्याग कर दे।

अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्चते॥32॥
अर्थात
- जो बिना खेती की हुई भूमि से उत्पन्न होने वाले फल और कंदमूल आदि को खाकर निर्वाह करता है और सदा जंगल में रहकर ही प्रसन्न रहता है और जो प्रतिदिन श्राद्ध करता है, ऐसा ब्राह्मण ऋषि कहलाता है।

दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ॥33॥
अर्थात
- इस संसार में ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बनाया जा सके, बिलकुल उसी तरह जिस प्रकार गुदा को चाहे सैकड़ों प्रकार से और सैकड़ों बार धोया जाए फिर भी वह श्रेष्ठ अंग नहीं बन सकती।

आत्मद्वेषात् भवेन्मृत्युः परद्वेषात् धनक्षयः।
राजवेषात् भवेन्नशो ब्रह्मद्वेषात् कुलक्षयः ॥34॥
अर्थात
-
जो मनुष्य अपनी ही आत्मा से द्वेष रखता है वह स्वयं को नष्ट कर लेता है। दूसरों से द्वेष रखने से अपना धन नष्ट होता है। राजा से वैर भाव रखने से मनुष्य अपना नाश करता है और ब्राह्मणों से द्वेष रखने से कुल का नाश हो जाता है।

धनहीनो न हिनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेन यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुषु ॥35॥
अर्थात
- धन से ही मनुष्य दीन-हीन नहीं होता, यदि वह विद्या धन से युक्त हो तो, परंतु जिस मनुष्य के पास विद्या रूपी रत्न नहीं है, वह सभी चीजों से हीन माना जाता है।

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रपूतं वदेत् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत् ॥36॥
अर्थात
- भली-प्रकार आंख से देखकर मनुष्य को आगे कदम रखना चाहिए, कपड़े से छानकर जल पीना चाहिए, शास्त्र के अनुसार कोई बात कहनी चाहिए और कोई भी कार्य मन से भली प्रकार सोच-समझकर करना चाहिए।

अर्थाऽधीताश्च यैर्वेदस्तथा शूद्रान्नभोजिनाः।
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः॥37॥
अर्थात
- जो ब्राह्मण धन की प्राप्ति के विचार से वेदों का अध्ययन करते हैं और जो शूद्रों अर्थात नीच मनुष्यों का अन्न खाते हैं, वे विषहीन सांप के समान कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं।

यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनऽऽगमः।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति ॥38॥
अर्थात -
जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का डर नहीं होता और जिसके प्रसन्न होने पर धन प्राप्ति की आशा नहीं होती, जो न दण्ड दे सकता है और न ही किसी प्रकार की दया प्रकट कर सकता है उसके नाराज होने पर किसी का कुछ नहीं बिगड़ता ।

निर्विषेणाऽपि सर्पेण कर्तव्या महती फणा ।
विषमस्तु न चाप्यस्तु घटतोपो भयंकरः ॥39॥
अर्थात
- विषहीन सांप को भी अपना फन फैलाना चाहिए, उसमें विष है या नहीं, इस बात को कोई नहीं जानता? हां, उसके इस आडंबर से अथवा दिखावे से लोग भयभीत अवश्य हो सकते हैं।

प्रातर्द्युत्प्रसंगें मध्याह्ने स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रिरौ शौर्यप्रसंगें कालो गच्छत्यधीमताम् ॥40॥
अर्थात्
- मूर्ख लोग अपना प्रातःकाल का समय जुआ खेलने में, दोपहर का समय स्त्री प्रसंग में और रात्रि का समय चोरी आदि में व्यर्थ करते हैं।

निर्गुणस्य हतं रूपं दु:शीलस्य हतं कुलम्।
असिद्धस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम् ॥41॥
अर्थात -
गुणहीन मनुष्यों का सुंदर अथवा रूपवान होना व्यर्थ होता है। जिस व्यक्ति का आचरण शील से युक्त नहीं, उसकी कुल में निंदा होती है। जिस व्यक्ति में किसी कार्य को सिद्ध करने की शक्ति नहीं, ऐसे बुद्धिहीन व्यक्ति की विद्या व्यर्थ है और जिस धन का उपभोग नहीं किया जाता, वह धन भी व्यर्थ है।

शुचिर्भूमिगतं तोयं शुद्धा नारी पतिव्रता।
शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः ॥42॥
अर्थात -
भूमि के अंदर से निकलने वाला पानी शुद्ध माना जाता है। पतिव्रता नारी पवित्र होती है। लोगों का कल्याण करने वाला राजा पवित्र माना जाता है और संतोषी ब्राह्मण को भी पवित्र माना गया है।

शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषत्परं सुखम्।
न तृष्णयाः परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ॥43॥
अर्थात
-
शांति से बढ़कर कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं। तृष्णा अथवा चाह से बढ़कर कोई रोग नहीं, दयालुता से बढ़कर कोई धर्म नहीं।

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम् ॥44॥
अर्थात
- क्रोध यमराज के समान है। तृष्णा वैतरणी है। विद्या कामधेनु है और संतोष नंदन वन अर्थात इंद्र के उद्यान के समान है।

चाण्डालनं सहस्त्रे च सुरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात् परः ॥45॥
अर्थात् -
तत्त्व को जानने वाले विद्वानों ने यह कहा है कि हजारों चाण्डालों के समान एक यवन अर्थात म्लेच्छ— धर्मविरोधी होता है। इससे बढ़कर कोई दूसरा नीच नहीं होता।  

तैलाभ्यंगे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्माणि।
तावद्भवति चांडालो यावत्सनानं न चाऽऽचरेत् ॥46॥
अर्थात् -
तेल की मालिश करने के बाद, चिता के धुएं के स्पर्श करने के बाद, स्त्री से संभोग करने के बाद और हजामत आदि करवाने के बाद मनुष्य जब तक स्नान नहीं कर लेता, तब तक वह चाण्डाल अर्थात् अशुद्ध होता है ।

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चामृतं वारि भोजनन्ते विषप्रदम् ॥47॥
अर्थात
- अपच की स्थिति में जल पीना औषधि का काम देता है और भोजन के पच जाने पर जल पीने से शरीर का बल बढ़ता है, भोजन के बीच में जल पीना अमृत के समान है, परंतु भोजन के अंत में जल का सेवन विष के समान हानिकारक होता है।

हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्ट ह्यभर्तृकाः ॥48॥
अर्थात -
आचरण के बिना ज्ञान व्यर्थ है। अज्ञान से मनुष्य नष्ट हो जाता है। सेनापति के अभाव में सेना नष्ट हो जाती है और पति से रहित स्त्रियां भी नष्ट हो जाती हैं।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयंक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ॥49॥
अर्थात -
समय पर उठना, युद्ध के लिए सदा तैयार रहना, अपने बन्धुओं को उनका उचित हिस्सा देना और स्वयं आक्रमण करके भोजन करना मनुष्य को ये चार बातें मुर्गे से सीखनी चाहिए।

गूढधर्मचरित्वं च काले काले च संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात् ॥50॥
अर्थात
- छिपकर मैथुन करना, ढीठ होना, समय-समय पर कुछ वस्तुएं इकट्ठी करना, निरंतर सावधान रहना और किसी दूसरे पर पूरी तरह विश्वास नहीं करना, ये पांच बातें कौए से सीखने योग्य है।

बह्वाशी स्वल्पसंतुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनाः।
स्वामीभक्तश्च शूरश्च षडेते स्वान्तो गुणाः ॥51॥
अर्थात
- बहुत भोजन करना लेकिन कम में भी संतुष्ट रहना, गहरी नींद लेकिन जल्दी से उठ बैठना, स्वामिभक्ति और बहादुरी ये छह गुण कुत्ते से सीखने चाहिए।

पादभ्यां न स्पृषेद्ग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च।
नैव गं न कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा ॥52॥
अर्थात -
अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंवारी कन्या, बूढ़ा आदमी और छोटे बच्चे - इन सबको पैर से कभी नहीं छूना चाहिए।

शक्तं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्।
हस्ति शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम् ॥53॥
अर्थात
-
बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहने में ही मनुष्य की भलाई है। लेकिन दुष्ट से बचने के लिए यदि स्थान विशेष का त्याग भी करना पड़े तो हिचकना नहीं चाहिए।

राजा राष्ट्रकृतं भुंक्ते राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा ॥54॥
अर्थात् -
राजा को राष्ट्र के पापों का फल भोगना पड़ता है। राजा के पाप पुरोहित भोगता है। पत्नी के पाप उसके पति को भोगने पड़ते हैं और शिष्य के पाप गुरु भोगते हैं।

ऋणदाता पिता शत्रु माता च व्यभिचारिणी।
भय्या रूपवती शत्रुः पुत्र शत्रुपण्डितः ॥55॥
अर्थात -
ऋणी पिता अपनी संतान का शत्रु होता है। यही स्थिति बुरे आचरण वाली माता की भी है। सुन्दर पत्नी अपने पति की और मूर्ख पुत्र अपने माता-पिता का शत्रु होता है।

भस्माना शुध्यते नक्षत्रं ताम्रमलेन शुध्यति।
रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन सुधयति ॥56॥
अर्थात
- कांसे का बर्तन राख से मांजने पर, तांबा खटाई से, स्त्री रजस्वला होने के बाद तथा नदी का जल तीव्र वेग से शुद्ध होता है।

भ्रमन सम्पूज्यते राजा भ्रमन सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ति विनश्यति ॥57॥
अर्थात
- अपनी प्रजा में घूम-फिरकर उसकी स्थिति को जानने वाले राजा की प्रजा उसकी पूजा करती है। जो द्विज अर्थात विद्वान ब्राह्मण देश प्रदेश की भूमि पर ज्ञान का प्रचार करता है, उसकी पूजा होती है। जो योगी सदा घूमता रहता है, वह आदर-सत्कार का भागी होता है, परंतु भ्रमण करने वाली स्त्री भ्रष्ट हो जाती है।

सत्येन धार्यते पृथिवी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वती वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥58॥
अर्थात
-
सत्य के कारण पृथ्वी स्थिर है, सूर्य भी सत्य के बल से प्रकाश देता है, सत्य से ही वायु बहती है, सब सत्य में ही स्थिर है।

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवित-यौवनम्।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ॥59॥
अर्थात -
इस चराचर जगत् में लक्ष्मी (धन) चलायमान है अर्थात लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती, नष्ट हो जाती है, प्राण भी नाशवान हैं, जीवन और यौवन भी नष्ट होने वाले हैं, इस चराचर संसार में एकमात्र धर्म ही स्थिर है।

वृथा विष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च ॥60॥
अर्थात
-
समुद्र में बारिश होना, भोजन से तृप्त हुए मनुष्य को फिर से भोजन कराना, धनी लोगों को दान देना और दिन में दीपक जलाना आदि बातें व्यर्थ और निरर्थक होती हैं।

नाऽस्ति मेघसमं तोयं नाऽस्ति चतमसमं बलम्।
नाऽस्ति चक्षुः समं तेजो नाऽस्ति धान्यसमं प्रियम् ॥61॥
अर्थात्
-
बादल के जल जैसा दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं, आत्मबल के समान दूसरा कोई बल नहीं, नेत्र ज्योति के समान दूसरी कोई ज्योति नहीं और अन्न के समान दूसरा कोई प्रिय पदार्थ नहीं होता।

दारिद्र्यनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनि प्रज्ञा भावना भयनाशिनी ॥62॥
अर्थात्
- दान देने से दरिद्रता नष्ट होती है, अच्छे आचरण से कष्ट दूर होते हैं, मनुष्य की दुर्गति समाप्त होती है, बुद्धि से अज्ञान नष्ट होता है अर्थात मूर्खता नष्ट होती है और ईश्वर की भक्ति से भय दूर होता है।

अलस्योपहता विद्या प्रहस्तगताः स्त्रिय:।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम् ॥63॥
अर्थात
- आलस्य के कारण विद्या नष्ट हो जाती है, दूसरे के हाथ में गई हुई स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं, कम बीज डालने से खेत बेकार हो जाता है और सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है।

अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते ॥64॥
अर्थात -
विद्या की प्राप्ति निरंतर अभ्यास से होती है । अभ्यास से ही विद्या फलवती होती है। उत्तम गुण और स्वभाव से ही कुल का गौरव और यश स्थिर रहता है। श्रेष्ठ पुरुष की पहचान सद्गुणों से होती है। मनुष्य की आंखें देखकर क्रोध का ज्ञान हो जाता है।

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्रता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥65॥
अर्थात्
-
जन्म देने वाला, यज्ञोपवीत कराने वाला गुरु, विद्या दान देने वाला अध्यापक, अन्न देने वाला और भय से मुक्त रखने वाला, यह पांच व्यक्ति पितर माने गए हैं।  

राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च।
पत्नीमाता स्वमाता च पंचैता मातरः स्मृतः ॥66॥
अर्थात
- राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता अर्थात सास और जन्म देने वाली अपनी माता, ये पांच माताएं मानी गई हैं, अर्थात् इनका सम्मान माता के समान करना चाहिए। न्याय करते समय भी इन संबंधों को 'मां' की परिभाषा में ही स्वीकार किया जाता है।

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनिनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥67॥
अर्थात
- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विजाति कहा गया है, इनका देवता यज्ञ है। मुनियों का देवता उनके हृदय में निवास करता है। मंद बुद्धि वालों के लिए मूर्ति ही देवता होती है। जो व्यक्ति समदर्शी हैं, जिनकी समान दृष्टि है, वे परमेश्वर को सर्वत्र विद्यमान मानते हैं।

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्रता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥68॥
अर्थात् -
जन्म देने वाला, यज्ञोपवीत कराने वाला गुरु, विद्या दान देने वाला अध्यापक, अन्न देने वाला और भय से मुक्त रखने वाला, यह पांच व्यक्ति पितर माने गए हैं।  

राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च।
पत्नीमाता स्वमाता च पंचैता मातरः स्मृतः ॥69॥
अर्थात -
राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता अर्थात सास और जन्म देने वाली अपनी माता, ये पांच माताएं मानी गई हैं, अर्थात् इनका सम्मान माता के समान करना चाहिए। न्याय करते समय भी इन संबंधों को 'मां' की परिभाषा में ही स्वीकार किया जाता है।

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनिनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिनः॥70॥
अर्थात
-
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विजाति कहा गया है, इनका देवता यज्ञ है। मुनियों का देवता उनके हृदय में निवास करता है। मंद बुद्धि वालों के लिए मूर्ति ही देवता होती है। जो व्यक्ति समदर्शी हैं, जिनकी समान दृष्टि है, वे परमेश्वर को सर्वत्र विद्यमान मानते हैं।

संसार तपादग्धानां त्रयो विश्रन्तिहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सततं सततेव च ॥71॥
अर्थात -
इस संसार में दुखी लोगों को तीन बातों से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है-अच्छी संतान, पतिव्रता स्त्री और सज्जनों का संग।

सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्र्यन्येतानि सकृत्सकृत् ॥72॥
अर्थात -
राजा एक ही बार आज्ञा देते हैं, पण्डित लोग भी एक ही बार बोलते हैं। कन्या भी एक ही बार विवाह के समय दान में दी जाती है।

दर्शनध्यानसंस्पर्शेर्मत्सि कूर्मि च पक्षिणी।
शिशुपालं पाल्यते नित्यं तथा सज्जनसंगतिः ॥73॥
अर्थात
-
जैसे मछली अपने बच्चों को देखकर, मादा कछुआ ध्यान (देखभाल) से और मादा पक्षी स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं, उसी प्रकार सज्जनों की संगति भी दर्शन, ध्यान और स्पर्श द्वारा संसर्ग में आए व्यक्ति का पालन करती है ।

यावत्स्वस्थो ह्यं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणन्ते किं करिष्यति ॥74॥
अर्थात
-
जब तक यह शरीर स्वस्थ तथा नीरोग है और जब तक मृत्यु नहीं आती तब तक व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए धर्मयुक्त आचरण - अर्थात पुण्य कर्म करने चाहिए क्योंकि करने-कराने का संबंध तो जीवन के साथ ही है। जब मृत्यु हो जाएगी, उस समय वह कुछ भी करने में असमर्थ हो जाएगा अर्थात कुछ भी नहीं कर सकेगा।

धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्याकोऽपि न विद्यते।
जन्म-जन्मनि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम् ॥75॥
अर्थात्
- जिस व्यक्ति के पास धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि इन चार पुरुषार्थों में से कोई भी पुरुषार्थ नहीं है, वह बार-बार मनुष्य योनि में जन्म लेकर केवल मरता ही रहता है, इसके अतिरिक्त उसे कोई लाभ नहीं होता।

मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम्।
दम्पत्येः कलहो नाऽस्ति तत्र श्रीः स्वयमगता ॥76॥
अर्थात -
जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां अन्न आदि काफी मात्रा में इकट्ठे रहते हैं, जहां पति-पत्नी में किसी प्रकार की कलह, लड़ाई-झगड़ा नहीं, ऐसे स्थान पर लक्ष्मी स्वयं आकर निवास करने लगती है।

एकेनाऽपि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वसीतं तद्वानं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा ॥77॥
अर्थात
-
जिस प्रकार सुगंधित फूलों से लदा हुआ एक ही वृक्ष सारे जंगल को सुगंध से भर देता है, उसी प्रकार सुपुत्र से सारे वंश की शोभा बढ़ती है, प्रशंसा होती है।

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना।
दह्यते तद्वानं सर्वं कुपुत्रेण कुलं तथा ॥78॥
अर्थात -
जिस प्रकार एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो जाता है, उसी प्रकार एक मूर्ख और कुपुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है।

रूपयौवनसम्पन्नः विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥79॥
अर्थात
- सुंदर रूप वाला, यौवन से युक्त, ऊंचे कुल में उत्पन्न होने पर भी विद्या से हीन मनुष्य सुगंधरहित ढाक अथवा टेसू के फूल की भांति उपेक्षित रहता है, प्रशंसा को प्राप्त नहीं होता।

कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्।
विद्या रूपं कुरूपानां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ॥80॥
अर्थात
- कोयल का सौंदर्य उसके स्वर में है, उसकी मीठी आवाज में है, स्त्रियों का सौंदर्य उनका पतिव्रता होना है, कुरूप लोगों का सौंदर्य उनके विद्यावान होने में और तपस्वियों की सुंदरता उनके क्षमावान होने में है ।

एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्।
आदिमध्यावसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम् ॥81॥
अर्थात
- राजा लोग कुलीन व्यक्तियों को अपने पास इसलिए रखते हैं कि वे राजा की उन्नति के समय, उसका ऐश्वर्य समाप्त हो जाने पर तथा विपत्ति के समय भी उसे नहीं छोड़ते।

प्रलये भिन्नमर्यदा भवन्ति किल सागरः।
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः ॥82॥
अर्थात
- समुद्र भी प्रलय की स्थिति में अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं और किनारों को लांघकर सारे प्रदेश में फैल जाते हैं, परंतु सज्जन व्यक्ति प्रलय के समान भयंकर विपत्ति और कष्ट आने पर भी अपनी सीमा में ही रहते हैं, अपनी मर्यादा नहीं छोड़ते।

बलं विद्या च विप्राणां राजं सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम् ॥83॥
अर्थात्
- ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना, व्यापारियों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है।

निर्धनं पुरुषं वैश्या प्रजा भग्नां नृपं त्यजेत्।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाऽभाग्यगता गृहम् ॥84॥
अर्थात
- वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा पराजित राजा को, पक्षी फलहीन वृक्षों को और अचानक आया हुआ अतिथि भोजन करने के बाद घर को त्यागकर चले जाते हैं।

माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥85॥
अर्थात -
वे माता-पिता बच्चों के शत्रु हैं, जिन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया नहीं, क्योंकि अनपढ़ बालक विद्वानों के समूह में शोभा नहीं पाता, उसका सदैव तिरस्कार होता है। विद्वानों के समूह में उसका अपमान उसी प्रकार होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है।

लालनाद् बहवो दोषास्तादनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च तद्येन्न तु लालयेत् ॥86॥
अर्थात
-
लाड़-दुलार से पुत्रों में बहुत से दोष उत्पन्न हो जाते हैं। उनकी ताड़ना करने से अर्थात दंड देने से उनमें गुणों का विकास होता है, इसलिए पुत्रों और शिष्यों को अधिक लाड़-दुलार नहीं करना चाहिए, उनकी ताड़ना करते रहनी चाहिए।

परोक्षे कार्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुंभं पयोमुखम् ॥87॥
अर्थात
- जो पीठ पीछे कार्य को बिगाड़े और सामने होने पर मीठी-मीठी बातें बनाए, ऐसे मित्र को उस घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके मुंह पर तो दूध भरा हुआ है परंतु अंदर विष हो।

न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चऽपि न विश्वसेत्।
कदाचितं कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत् ॥88॥
अर्थात -
जो मित्र खोटा है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए और जो मित्र है, उस पर भी अति विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा हो सकता है कि वह मित्र कभी नाराज होकर सारी गुप्त बातें प्रकट कर दे।

विषादप्यमृतं ग्राह्यमेधयादपि काञ्चनम्।
नीचादप्युत्तम विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥89॥
अर्थात
-
विष में भी यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। अपवित्र और अशुद्ध वस्तुओं में भी यदि सोना अथवा मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के योग्य होती है। यदि नीच मनुष्य के पास कोई अच्छी विद्या, कला अथवा गुण है तो उसे सीखने में कोई हानि नहीं। इसी प्रकार दुष्ट कुल में उत्पन्न अच्छे गुणों से युक्त स्त्री रूपी रत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए।

स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा।
साहसं षड्गुणं चैव कामोऽष्टगुण उच्यते ॥90॥
अर्थात
- पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार अर्थात भोजन दोगुना होता है, बुद्धि चौगुनी, साहस छह गुना और कामवासना आठ गुना होती है।

आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः संच्चितोऽपि विनश्यति ॥91॥
अर्थात -
आपत्तिकाल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन सज्जन पुरुषों के पास विपत्ति का क्या काम। और फिर लक्ष्मी तो चंचला है, वह संचित करने पर भी नष्ट हो जाती है।

यस्मिन् देशे न सन्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
नच विद्यासस्गमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत् ॥92॥
अर्थात -
जिस देश में आदर-सम्मान नहीं और न ही आजीविका का कोई साधन है, जहां कोई बंधु-बांधव, रिश्तेदार भी नहीं तथा किसी प्रकार की विद्या और गुणों की प्राप्ति की संभावना भी नहीं, ऐसे देश को छोड़ ही देना चाहिए। ऐसे स्थान पर रहना उचित नहीं ।

श्रोत्रो धनिकः राजा नदी वैद्यस्तु पंचमः।
पञ्च यत्र न विद्यान्ते न तत्र दिवसं वसेत् ॥93॥
अर्थात
- जहां श्रोत्रिय अर्थात वेद को जानने वाला ब्राह्मण, धनिक, राजा, नदी और वैद्य ये पांच चीजें न हों, उस स्थान पर मनुष्य को एक दिन भी नहीं रहना चाहिए


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