Sunday 17 March 2024

Bitter Truth Of Life : कडवा सच....अपना कुछ नहीं...?

Bitter Truth Of Life : कडवा सच....अपना कुछ नहीं...?


पखापखी के कारनै, सब जग रहा  भुलान ।
निरपख होई के हरि भजै, सोई संत सुजान ।।


कबीरदास जी ने बहुत अच्छी बात कही है कि मनुष्य का जीवन केवल भोगों के लिए नहीं हुआ है,बल्कि पश्चाताप व मुक्ति की ओर ले जाने वाले सद्कर्मों को अपनाने से है।

ऐस आराम अच्छा खाना अच्छा रहन सहन यह तो अन्य जीव भी करते है । लेकिन मनुष्य जीवन का अर्थ यह नहीं  है यह तो ईश्वर की श्रेष्ठ रचना है और जन्म मरण का आखिरी मार्ग है इसे भी अगर सांसारिक भोगों में ही गवां दिया तो फिर शुरू से इस मृत्युलोक में अनेकों जन्म-मरण से गुजरना होगा। मनुष्य जीवन का वास्तविक अर्थ है ईश्वर का स्मरण करना सांसारिक कार्यों के साथ साथ भक्ति और ईश्वर के हर अंश जीवमात्र के उत्थान के लिए कार्य करना ।

ललद्यद जी ने भी जीवन की बहुत अच्छी परिभाषा दी है.......

"आई सीधी राह से, गई न सीधी राह ।
सुषुम-सेतु पर खडी थी,बीत गया दिन आह ।
      जेब टटोली,कौडी न पाई ।
      माझी को दूं,क्या उतराई ?

यानी मनुष्य जन्म से पहले 9 माह  तक मां  के गर्भ में ईश्वर से संकल्पित  होता है किमै धरती पर जाकर केवल सदकर्म के साथ भक्ति और परोपकार करुंगा जिससे मुझे मुक्ति मिल सके और फिर से इस भवसागर में दुखों से न गुजरना पडे। और यह तब तक होता है जबतक बच्चे का अन्नप्राशन न हो जाए क्योंकि अन्नप्राशन के बाद उसकी स्मृति गायब हो जाती है। पूर्व जन्मों तथा ईश्वर से की हुई बातचीत को भूल जाता है और इस दुनियाँ की चकाचौंध में मशगूर हो जाता है।

दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो तुम्हें मुक्ति दिला सके या तुम्हें आनन्द दिला सके सिवाय भक्ति के क्योंकि भक्ति ही एक आधार है दुखों का समन करने का भक्ति और नाम जप में ही वो शक्ति है जो आपको हर सुख सुविधाएं भोग ऐश्वर्या और अंत में वैकुण्ठ दिला सकता है। सभी नवग्रह सभी दैवीय शक्ति सभी रोग बीमारियां भक्ति व नाम जप से शान्त हो जाते है।

लेकिन मनुष्य तो इस अमूल्य समय को गंवा देता है इस मानव जीवन की सार्थकता को नही भांप पाता है। जो समझता है वह सुखी रहता है और जो भोगों में लिप्त होकर नासमझ है वह सबकुछ होते हुए भी सबसे ज्यादा दुखी है।  संसार अनासक्ति का आधार है? संसार मिथ्या का भार है? संसार वासनाओं का जंजाल है? संसार लोलुप्तता व स्वार्थ का मायाजाल है। जिसमें फसकर वह मुक्ति पथ से भटक रहा है।

कबीरदास जी कहते है कि .......

मोको कहाँ ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में ।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में ।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में ।

यानी कबीरदास जी कहते है कि ईश्वर कहीं और नहीं हमारे ही अंदर है सभी प्राणियों और हमारे अन्दर एक ही आत्मा का वास है और आत्मा ही ईश्वर का स्वरुप है। फिर क्यों हम ईश्वर को कहीं और ढूंढने का प्रयास करते है। जबकी वह हमारे ही अंदर विद्यमान है यानी हमें अपने अंदर झांकने की आवश्यकता है अपने आंतरिक मन को शुद्ध करने की आवश्यकता है।  
आज हम प्राणियों के दुख का कारण भी यही है। इसीलिए वह जीवन की वास्तविकता नही समझ पा रहा है और अपना काफी वक्त बर्बाद कर रहा है।

धीरे-धीरे उसका जीवन समाप्त होता जा रहा है बचपन बहुत उत्साह उमंगो से गुजरता है । किसी चीज की कोई परवाह नहीं ना अपना न पराया ऊंच नीच का कोई भेद नहीं।  सभी प्रेम करते है और जीवन का वास्तविक आनन्द यही से प्राप्त होता है ऐसा लगता है मानो जीवन जीना कितना सरल व आसान है।
 
मगर उसे यह मालूम नहीं होता कि जीवन तो संघर्ष का नाम है। 20 साल कब हवा में  गुजर जाते है मालूम ही नहीं होता है। इसके बाद जीवन की परीक्षाएं शुरू होने लगती है । नौकरी की तलास में सबकुछ भूल जाता है और हर प्रयास में ऐसा लगता है मानो सफलता कुछ ही दूर है । सभी लोग अपनी काबिलियत के अनुसार नौकरी हासिल कर देते है। फिर पडाव आता है शादी का और एक दो साल तक जीवनसाथी के साथ बिताए हुए हर एक पल हसीन लगने लगते है । बच्चे के आते ही प्रेम बंट जाता है, attraction power समाप्त हो जाती है। धीरे-धीरे बच्चे के साथ व परिवार के साथ हंसी मजाक व मौज-मस्ती करते करते कब नन्हा बच्चा अपने कंधे तक का हो जाता है पता ही नहीं चलता।  इस बीच वह अपने परिवार की खुशियों के लिए कितने पाप कर्म कर देता है। दूसरे जीवों का हनन करता है, असहायों का शोषण करता है, दूसरे के पैसे गबन करता है उसे मालूम ही नहीं पडता । 

उम्र कब 50 पार हो गयी आभास ही नहीं होता मन में खयाल तो आता है कि आखिर मनुष्य जीवन किस उद्येश्य से मिला है परन्तु संसार की चकाचौंध में उसे वास्तविकता बेकार लगने लगती है।

फिर से वह परिवार की खुशियों में जुट जाता है घर, गाडी, जमीन, बैंक वैलेन्स आदी एकत्रित करता । उसे आभास ही नहीं होता कि आखिर हमारे कर्म हमारे साथ चल रहे है। उम्र 60 पार हो जाती है अब शरीर भी साथ देना कम कर देता है। लेकिन हिम्मत जुटाकर फिर से परिवार की खुशियों के लिए काम करने लगता है। 

धीरे-धीरे सभी इन्द्रियां कमजोर हो जाती है। सुनने की सामर्थ्य समाप्त हो जाती है अब उम्र हो चुकी है 65 पार और यही वह स्टेज है जिसमें व्यक्ति को सहानुभूति की अधिक आवश्यकता होती है। वह परिवार से चेष्टाएं करने लगता है कि परिवार उनकी सेवा करे,उन्हें वही लाड दुलार दें जो उसने अपने बच्चों को दिया है।

लेकिन आज के समाज में ऐसा होना कहाँ शोभनीय है। जिस परिवार के लिए उसने इतनी मेहनत की वही बच्चे आज उन्हें वृद्धाश्रम जाने को मजबूर कर रहे है । बेटा मां पिता से दूर रहने लगा है, यहाँ तक की नाती पोतों से भी बात नहीं कराते है। आज आभास हो रहा है कि जो सपने बुने हुए थे वो रेत की तरह फिसलते हुए दिख रहे है। आज उनको लग रहा है कि हमने वो कमाया जिसका कोई मूल्य नहीं था।

इसीलिए जीवन का सार यही कहता है कि इस मनुष्य जीवन को सफल बनाकर और भक्ति को आधार बनाकर अपने जीवन का उद्धार कर लीजिये।  यह आपके बहुत अच्छा समय है इसे चंद सुख-सुविधाओं के लालच में मत गवांइए। संसार तो गुरुत्वाकर्षण है जो तुम्हें अपनी ओर आकर्षित कर रहा है इसलिए अडिग रहकर तू केवल भक्ति और कर्म रहकर अपना कर्तव्य का पालन कर तेरा उद्धार हो जाएगा।

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